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सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 4 - नमन कर मन

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    जब तीर्थकर भगवान् का जन्म होता है, तब धूल-धूसरित रास्ता उज्ज्वल बनता जाता है और उनके अभाव में वापस धूल से भर जाता है। प्राय: संसारी व्यक्ति को रास्ता बताने की जरूरत पड़ती है। जिस प्रकार आकाश में अनेकों पक्षी चलते हैं पर उनके पद-चिह्न नहीं पड़ते हैं, उसी प्रकार मोक्ष रास्ते में अनेकों व्यक्ति चलते हैं, पर चिह्न नहीं पड़ते हैं। नमस्कार हमको किस लक्ष्य को लेकर करना है ? यह हमें देखना है। अनेक व्यक्ति रात दिन भगवान् का नाम लेते हैं, उपासना करते हैं। तन, मन, धन व वचन से नाम लेते हैं पर इससे ऊपर भी एक चीज है, वह है लक्ष्य की ओर ध्यान देना, निदान की ओर ध्यान देना। जब तक रोग का निदान नहीं होगा, तब तक रोगी का रोग दूर नहीं होगा, उसी प्रकार हमें भी लक्ष्य को पहले देखना होगा। हमें यह देखना होगा कि जिस वस्तु (लक्ष्य) को हम चाह रहे हैं, उसको प्राप्त करने का रास्ता भिन्न तो नहीं है, हमारी गति दूसरी दिशा की ओर तो नहीं है।

     

    परिग्रह महा खतरनाक है, जिसको आप लोग अच्छा मानते हैं। बाह्य परिग्रह से भी ज्यादा आभ्यंतर में मिथ्यात्व सबसे बड़ा परिग्रह है। स्थिति क्या है हमारी ? हम बहुत संतप्त हैं, तड़प रहे हैं। पर हवा ठण्डी नहीं है, पानी भी शीतल नहीं है। अनन्तकाल से यही मिथ्यात्व रूपी हवा हमें लग रही है, और जब तक ऐसी हवा लगती रहेगी, तब तक हमारे नमस्कार, उपासना को महावीर भगवान् स्वीकार नहीं कर सकते। उपासना तो दुनियाँ में सब करते हैं, पर कोई विषय-वासना की पुष्टि के लिए, शरीर की रक्षा करते हुए डॉक्टर के कहने पर रस त्याग करते हैं। पर उपासनाउपासना, त्याग-त्याग में फर्क होता है। डॉक्टर के कहने से एक बार भोजन करने का नियम ले लेने से, रस त्याग कर देने से कोई व्यक्ति त्यागी-मुनि नहीं बन सकता है। एक को जीने की, संपोषण की, शरीर को रखने की, पर की इच्छा है। वहाँ मुनि का त्याग भिन्न है। हम नमस्कार तो कर रहे हैं, पर अलग ही लक्ष्य को लेकर। संतान के न होने पर, रोगी होने पर, कचहरी में मुकदमा जीतने के लिए उपासना करना-मिथ्यात्व है विपरीत उपासना है। इससे संसार का अभाव, चतुर्गति भटकन कभी नहीं रुकेगा। वासना, तृष्णा के पीछे भटकते हुए हमारी यही गति हो रही है।

     

    जो भगवान् की दृष्टि है, वही भत की दृष्टि होनी चाहिए। भिन्न दृष्टि होने पर लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होगी। हममें यह विवेक नहीं है कि उपासना किसलिए करनी है। तो सबसे बढ़िया यही है कि सुबह उठकर चक्की को धोक दें, जिसके चलाने से कम से कम आटा तो मिलेगा, भगवान् से कया मिलेगा?

     

    हमें मिथ्यात्वरूपी परिग्रह को छोड़ना पड़ेगा, यही जन्म-मरण का कारण है। जन्म और मरण के बीच में है ‘जरा' हमें इसका भी संहार करना है। भगवान् ने जब इन तीनों को नहीं चाहा तो भक्त को भी इन तीनों को नहीं चाहना चाहिए। हमें तो मृत्युंजयी बनने की कोशिश करना चाहिए जो इस उद्देश्य को लेकर चलेगा, उसका रास्ता समीचीन बनता चला जायेगा। इस मिथ्यात्वरूपी परिग्रह को हमें गृहस्थाश्रम में ही छोड़ना है, बाकी परिग्रह तो बहुत जल्दी अपने आप छूट जायेंगे।

     

    रोग का निदान न होने पर जीरा की जगह हीरा भी खिला दे तो भी उसका प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। सर्व प्रथम जिधर हमें जाना है, अपनी दृष्टि उधर ही करनी पड़ेगी। आत्मा का स्वभाव है ‘चलना' अगर उसे मिथ्यात्व का रास्ता मिल गया तो उधर चलेगी और समीचीन रास्ता मिल गया तो यह आत्मा उधर चलने लगेगी।

     

    अनादिकाल से जो कर्म अर्जित है, वह भी एक बार नमस्कार, स्तुति करने से नाश हो जाते हैं। जैसे बहुत सारे कचरे को दिया सलाई से जरा जलाने पर वह जल कर राख हो जायेगा और उस राख को भी हवा उड़ा कर ले जाएगी। हालांकि नमस्कार स्तुति का फल मिलता है, पर वह फल संसार वृद्धि का कारण न होना चाहिए। हमें विषय-वासना आदि के लिए स्तुति, उपासना नहीं करनी है।

     

    यद्यपि कीचड़ में कमल है पर सुरक्षित है, उसका लक्ष्य कादे से अलग होने का है, लोहे की तरह मिट्टी में होने का नहीं। हमें इसको सोचना है। हमें लक्ष्य कमल के फूल के समान कीचड़ से अलग होने का बनाना है। हमें प्रभु के सामने कोर्ट केस में जीतने, धन वैभव बढ़ाने आदि संसार वृद्धि के लिए स्तुति नहीं करनी है।

     

    दृष्टि में (उपयोग में) समीचीनता है, तो वचनों में भी समीचीनता आ जाती है। नमस्कार के लिए अन्दर का उपयोग जरूरी है, समय, क्षेत्र आदि का ज्यादा महत्व नहीं है। स्तुति, गुरु के न होने पर भी फल देगी, क्योंकि गुरु तो हृदय में विराजे हुए हैं। गुरु प्रत्यक्ष में हों या न हों पर गुरु के प्रति विनय होनी चाहिए। गुरु के प्रति आत्म समर्पण करने पर ही (विद्या) फल की प्राप्ति होगी। हमें शब्दों में नहीं उलझना है, भाव को पकड़ना है। शब्दों में उलझकर समय व शक्ति खर्च नहीं करना है। महावीर भगवान् का कहना है कि ८ साल की उम्र के बाद अच्छे कार्य करने के लिए जीवन भर मुहूर्त है, पर आज ८० साल तक के भी हो जाने पर यही कहते हैं कि मुहूर्त नहीं आया। हमें मुहूर्त के लिए मूढ़ता को छोड़ना है।


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    रतन लाल

      

    परिग्रह का लोभ यदि इंसान त्याग दें तो जीवन में सफलता ही सफलता प्राप्त होगी

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