विद्याधर जी का प्रिय भजन - 83 वां स्वर्णिम संस्मरण
"अप्रैल 1968 नसीराबाद में हम लोग ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्ति के लिए रात में जाते थे।" तब समाज के कुछ लोग भजन सुनाते थे, विद्याधर जी को एक भजन बहुत अच्छा लगा वह मेरे पिताजी नेमीचंद जी गदिया से प्रतिदिन वहीं भजन सुनाने के लिए कहते थे, और स्वयं भी साथ साथ मधुर वाणी में बोलते थे। उनकी मधुर वाणी में भजन सुनकर हम युवा बड़े प्रभावित हुए, वह भजन हम लोगों ने तैयार कर लिया फिर मुनि दीक्षा के बाद सन 1972 में आए और जून 1973 तक रहे तब कई बार वह भजन हम लोगों ने उन्हें सुनाया वह इस प्रकार है-
लय- रिमझिम बरसे बादरवा
मनहर तेरी मूरतिया,मस्त हुआ मन मेरा।
तेरा दरश पाया, पाया,तेरा दरश पाया।।
प्यारा प्यारा सिंहासन,अति भा रहा,भा रहा।
उस पर रूप अनूप,तिहारा छा रहा,छा रहा।
पद्मासन अति सोहे रे,नयना उमगे है मेरे।
चित्त ललचाया आया,तेरा दरश पाया।।1।।
मनहर तेरी ..........
तव भक्ति से भव के दुःख मिट जाते है,जाते है।
पापी तक भी भव सागर तिर जाते हैं,जाते है।।
शिव पद वह ही पावे रे,शरणा-गत में है तेरी।
जो जीव आया-पाया,तेरा दरश पाया।।2।।
मनहर तेरी........
साँच कहूँ खोई निधि मुझको मिल गई,मिल गई।
जिसको पाकर मन की कलियां खिल गई,खिल गई।।
आशा पूरी होगी रे,आश लगा के "वृद्धि"।
तेरे द्वारा आया-पाया,तेरा दरश पाया।।3।।
मनहर तेरी.......
फिल्म - रतन (1944)
इस तरह विद्याधर जी भजन सुनकर के अपना हिंदी का ज्ञान प्रगाढ़ करते रहते थे, युवा सोचते थे कि मुनि श्री भजन में आनंद ले रहे हैं, किंतु वास्तविकता यही थी कि वह हर क्षण ज्ञान वृद्धि में लगे रहते थे। धन्य है ऐसी ज्ञानपिपाशा को नमन करता हुआ......
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