श्रमण परम्परा के आदर्श संत आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का जन्म विक्रम सं. १९२६ (सन् १८७२) के आषाढ़ मास कृष्ण पक्ष ६ तिथि, बुधवार को दक्षिण भारत के बेलगाँव जिले के अंतर्गत येलगुल ग्राम में हुआ था। आपका विवाह ९ वर्ष की अल्प आयु में कर दिया गया था। विवाह के ६ माह उपरांत ही उस बालिका का स्वर्गवास हो गया। पुन: विवाह का प्रसंग उठने पर आपने अपने घर वालों को स्पष्ट मना कर दिया और आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेने का प्रस्ताव रख दिया और अन्त में उन्होंने गृहत्याग कर दिया और दीक्षा ले ली। आपने अपने ३५ वर्ष की साधनाकाल के अन्तर्गत नौ हजार छ: सो अड़तीस (९६३८) उपवास किए। आपका सारा जीवन घोर तपस्या और संघर्ष में बीता। आपके आचरण में अहिंसा थी, वाणी में स्याद्वाद और चिन्तन में अनेकान्त था। आपने अपने जीवन का अन्त समय निकट जानकर श्री दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र कुंथलगिरिजी (महाराष्ट्र) में १ अगस्त, रविवार को समाधि मरण (सल्लेखना) का निश्चय किया और १८ सितम्बर, सन् १९५५ को प्रातः ७.५० मि. पर लगभग ८४ वर्ष की आयु में समाधिपूर्वक अपने शरीर का त्याग किया।
भाद्रशुक्ल दूज, आज आपका ४२वाँ समाधि दिवस है। आज के इस पावन प्रसंग पर सबसे पहले आपकी भक्ति गीत पर मंगलाचरण हुआ। इसके उपरांत आपके जीवन के विभिन्न प्रसंगों पर प्रकाश डाला गया। इसके उपरांत आपकी पूजा की गई, पूजा की भक्ति गंगा में सारा जन समुदाय डूबा हुआ था। इसके उपरांत आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के मांगलिक प्रवचन हुए, आपने कहा कि मोक्षमार्ग भयभीत व्यक्तियों के द्वारा नहीं चलता कमजोर व्यक्तियों, कषायों से नहीं चलता, मोक्षमार्ग निभौंक और निरीह व्यक्ति के द्वारा चलता है। जब तक व्यक्ति पक्षपात को नहीं छोड़ सकता तब तक वह तपस्या नहीं कर सकता। मोक्षमार्ग में निष्पक्ष होना चाहिए। आपने कहा कि साधु वही कहला सकता है जो ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहता है। जो निष्पक्ष है, निग्रंथ है विषय-कषायों से दूर रहता है, राग से दूर रहता है वैराग्य ही एकमात्र जिसका जीवन हो वही साधु कहलाता है। हमको यह सोचना चाहिए कि ये हमारे गुरु हैं, ऐसा सोचना हमारी संकीर्णता है गुरु तो विश्व के होते हैं। गुरु तो सबके होते हैं गुरु वही होता है जो सबका होता है। जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है गुणों की उपासना करना और गुणों को पैदा करना। गुणों की उपासना ही हमारे जीवन का आदर्श होना चाहिए। आज का साधक मुनित्व की बात तो करता है लेकिन सल्लेखना को सब भूले हुए हैं। साधक की पहली साधना सल्लेखना की होना चाहिए। जोश नहीं ज्योषिता (चाह) होना चाहिए। सल्लेखना निष्ठा के बिना नहीं होती सल्लेखना के लिए निष्ठा होना चाहिए। सल्लेखना का अर्थ समाधिमरण । समाधिमरण का अर्थ आत्महत्या नहीं हैं। आत्महत्या अपराध है लेकिन समाधि मरण एक साधना है।
आज प्रदर्शन के अलावा कुछ भी नहीं है, प्रदर्शन के कारण आज दर्शन लुप्त हो गया है। जीवन में दर्शन होना चाहिए प्रदर्शन में जीवन खोखला हो जाता है। आचार्य शान्तिसागरजी महाराज की दया दृष्टि पर विचार करो पंथवाद पर नहीं। उनके आदर्श को समझो, आदर्श के बिना हमारा जीवन आदर्शमय नहीं बन सकता। किसी एक की पूजा जैन धर्म नहीं करता। पूजा व्यक्ति की नहीं व्यक्तित्व की होती है, व्यक्ति की जाति हो सकती है लेकिन व्यक्तित्व की कोई जाति नहीं होती।
व्यक्तित्व एक गुण है, आदर्श है, हमको इसी आदर्श की उपासना करना चाहिए। ऐसे आदर्श पुरुष आचार्य शान्तिसागरजी महाराज को समझने का प्रयास करो और उनके आदशों को अपने जीवन में उतारो ।
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