धर्म के अभाव में भारत को भारत नहीं कहा जा सकता, भारत बिलिंडगों, भवनों का राष्ट्र नहीं, भारत मशीनों का राष्ट्र नहीं, भारत बाँधों का राष्ट्र नहीं, भारत धर्म का राष्ट्र है। क्या मशीनों का नाम राष्ट्र है ? क्या बिलिंडगों का नाम राष्ट्र है? क्या बाँधों का नाम राष्ट्र है? यदि सात्विक जीवन जीने वालों का अभाव हो जायेगा तो राष्ट्र का कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा क्योंकि सात्विकता के अभाव में राष्ट्रीयता कैसे जिन्दा रह सकती है और जब राष्ट्रीयता का ही अभाव हो जायेगा तब क्या ये मशीन, ये भवन, ये बाँध राष्ट्र को सुरक्षित रख सकते हैं? नहीं। हमें भवनों की नहीं सात्विकता की सुरक्षा करना है और वह सात्विकता मशीनों से सुरक्षित नहीं रह सकती, उस सात्विकता को सुरक्षित रखने के लिए अहिंसा चाहिए, संवेदना, सहानुभूति, विवेक चाहिए, करुणा चाहिए तभी राष्ट्र उन्नत हो सकता है। अत: आज हमको सात्विकता की आवश्यकता है भवनों और मशीनों की नहीं। हमारे पास मशीन तो बहुत हैं बिलिंडग भी बहुत हैं लेकिन सात्विकता की कमी है संवेदना की कमी है, अहिंसा की कमी है।
जीवन में प्रण महत्वपूर्ण है प्राण नहीं क्योंकि प्राण तो बार-बार मिल जाते है लेकिन प्रण बार-बार नहीं मिलता। प्रण के लिए आस्था और विश्वास चाहिए लेकिन प्राणों के लिए इनकी आवश्यकता नहीं। प्राण तो सबके पास होते हैं लेकिन प्रण सबके पास नहीं होता अत: जीवन में प्राण को नहीं, प्रण को महत्व दो, प्रण की रक्षा करो, प्रण की रक्षा ही प्राणों की सुरक्षा है क्योंकि जिसका प्रण सुरक्षित है उसके प्राण कभी खतरे में नहीं पड़ सकते और वस्तुत: प्राणों को कोई खतरा नहीं। जो व्यक्ति अपने प्रण को आस्था और विश्वास के साथ पालता है उसका जीवन ही सही मायने में सही जीवन है। हमारे पास प्राण हैं लेकिन प्रण नहीं है हमको आज यह प्रण लेना है कि हमारे देश में हिंसा रुके, हिंसा को रोकने का प्रण लीजिए, यदि हिंसा रुक जायेगी तो आपके प्राण सार्थक हो जायेंगे और जो भी जीव हैं उनके प्राण भी बच जायेंगे। जीवों के प्राणों को बचाने का संकल्प लीजिए जीवों की रक्षा करने का प्रण लीजिए, सभी जीव सुखी रहें, इस प्रकार का प्रण लीजिए।
भारतीय इतिहास और दण्ड संहिता कहती है, हिंसा को रोकने के लिए दण्डित करना चाहिए, हिंसक को समाप्त करने के लिए नहीं। दण्ड देना बुरा नहीं लेकिन क्रूरता के साथ दण्ड नहीं देना चाहिए, क्योंकि यदि अपराधी को क्रूरता के साथ दण्ड देंगे तो वह शायद कभी सुधरे परन्तु उसको विवेक के साथ दण्डित किया जाये तो सुधर भी सकता है, अहिंसक भी बन सकता है, और जीव रक्षा का प्रण भी ले सकता है। दण्ड का विधान ही इसलिए किया गया है कि व्यक्ति उद्धृण्डता न करे उद्धृण्डता के लिए दण्ड अनिवार्य है ताकि उद्ण्डता रुक सके। हिंसा सबसे बड़ी उद्धृण्डता है, क्रूरता के साथ धन अर्जन करना सबसे बड़ी उद्धृण्डता है, जीवों को सताना, मारना सबसे बड़ी उद्ण्डता है।इस उद्धृण्डता को रोकना अनिवार्य है। भारत में यह आज बहुत हो रही है, दुधारू जानवरों को मार करके उनका मांस बेचना कितनी क्रूरता के साथ धन कमाने का साधन है। भारत को इस क्रूर वृत्ति का त्याग करना चाहिए क्रूरता से राष्ट्र का भला नहीं, भारत को मांस निर्यात बंद करना चाहिए और दूध का निर्यात करना चाहिए, खून मांस का नहीं।
आचार्य श्री ने एक मांसाहारी जानवर की अहिंसा और संकल्प की निष्ठा का उदाहरण देते हुए कहा कि एक मांसाहारी सियार ने किसी साधु से रात्रि में पानी नहीं पीने का संकल्प ले लिया, एक दिन जब वह प्यासा जल की तलाश करते-करते एक बावड़ी कुआं के पास पहुँचा और जब वह पानी पीने नीचे उतरा तो नीचे अंधेरा होने की वजह से उसने समझा कि अभी रात्रि है लेकिन जब वह कुंआ के बाहर आता तो दिन था नीचे आता तो अंधकार, ऐसा कई बार किया और इसी दौरान उस जानवर के प्राण निकल जाते हैं। क्या समझे आप इस कहानी से? एक जंगल का मांसाहारी जानवर भी अपने प्रण के लिए प्राणों की परवाह किये बिना मर जाता है लेकिन उसने अपने प्रण को नहीं तोड़ा एक मांसाहारी जानवर ने भी रात्रि में पानी का त्याग कर दिया। आप क्या समझते हो इन जानवरों को? इन जानवरों के पास भी धैर्य होता है, इसके पास भी अहसास होता है लेकिन हम तो जानवरों को जान वाले समझते ही नहीं। यह मनुष्य है जो अपने को ही सब कुछ समझता है पर दूसरों को बेजान समझता, उनसे दुव्र्यवहार करता है। इन छोटे-छोटे पशु पक्षियों में भी प्राण हैं उसके पास भी ज्ञान है सोचने विचारने की शक्ति है। वे भी धर्म को समझ जाते हैं और अपने जीवन की उन्नति कर लेते हैं। हमारा इन तमाम पशु-पक्षियों की रक्षा करना परम कर्तव्य है, ये जानवर प्रकृति के संतुलन हैं। यह धरती की हरियाली जानवरों की किस्मत से है मनुष्य की किस्मत से नहीं। यदि ये जानवर समाप्त हो जायेंगे तो धरती की हरियाली भी समाप्त हो जायेगी और हरियाली के अभाव में यह मनुष्य जाति भी जिंदा नहीं रह सकती, अत: जानवरों की रक्षा करना ही हरियाली को जिन्दा रखना है। मनुष्य ने आज जानवरों पर बहुत जुल्म करना प्रारंभ कर दिया। लगता है आज मनुष्यता मर चुकी है, पशुओं में भी इतनी क्रूरता नहीं जितनी आज मनुष्य में दिखाई दे रही है। प्राणी संरक्षण आज बहुत कठिन हो गया है जो मनुष्य का पहला कर्तव्य था।
अहिंसा की उपासना कोई तिलक लगाने वाला कर रहा है यह कोई नियम नहीं है क्योंकि अहिंसा का कोई तिलक नहीं होगा। अहिंसा आत्मा की वृत्ति है और वह आत्मा पशुओं के पास भी होती है संसार में ऐसा कोई जीव नहीं जिसके पास आत्मा न हो आत्मा के बिना जीव ही नहीं हो सकता। यह आत्मा सबके पास है आपके पास भी है लेकिन आपके पास अहिंसा नहीं, अहिंसा के अभाव में आपकी आत्मा हिंसक हो गई है क्रूर हो गई है, आप अपनी आत्मा में अहिंसा की प्रतिष्ठा करें। जीवन को अहिंसक बनायें इसी में जीवन की सार्थकता है। अहिंसा को न भूलें धर्म को न भूलें लेकिन यह भी याद रखें कि मंदिर जाकर घंटी बजाना ही धर्म नहीं है। धर्म तो करुणा/दया का नाम है। जो ट्रकों में भरकर जानवर कत्लखाने जा रहे हैं इन जानवरों की रक्षा करो इनकी जान बचाओ यही सही धर्म है।
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