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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सिद्धोदयसार 32 - गुरु की प्राप्ति ही गुरु पूर्णिमा है

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    इन्द्रभूत को आज के दिन आषाढ शुक्ल पूर्णमासी को गुरु की प्राप्ति हुई, उनको गुरु मिले तभी से इस तिथि को यानि आषाढ़ शुक्ल पूर्णमासी को गुरुपूर्णिमा कहते हैं।


    आज के दिन एक गुरु को एक शिष्य की उपलब्धि हुई या यूँ कहें कि एक शिष्य को एक गुरु की उपलब्धि हुई थी। एक योग्य शिष्य के अभाव में गुरु मौन रहे लेकिन जब उनको एक योग्य शिष्य मिल गया तो उनकी दिव्य-वाणी संसार के जीवों को संसार से पार होने के लिए मिलने लगी। वस्तुत: अहिंसा का संकल्प जब तक नहीं होता तब तक महान् साधु बोलते नहीं क्योंकि बोलना किसलिए? एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देने वाले ऐसे लोगों से प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती।


    प्रयोजन की सिद्धि के लिए शब्द की आवश्यकता पड़ती है फिर भी उसको सुनकर अर्थ को समझ लिया जाए। बिना अर्थ को समझे मात्र शब्द से अपने प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती। शब्द का अपना महत्व है, वाणी का अपना प्रयोजन है लेकिन भगवान् की वाणी उसी को अच्छी लगती है जिसकी होनहार अच्छी होती है। जिसका भविष्य खराब रहता है उसका वर्तमान अच्छा कैसे रह सकता है? अत: हमको अपने जीवन को अंधकार से निकालने के लिए गुरु प्रकाश की खोज अवश्य करना चाहिए। गुरु हमारे जीवन का सृष्टा होता है, गुरु हमारे जीवन का प्रकाश होता है, गुरु की प्राप्ति से हमारी अपूर्णता पूर्ण हो जाती है अत: गुरु की प्राप्ति ही गुरुपूर्णिमा है।


    गुरु हमको बतलाते हैं कि अहिंसा ही एकमात्र पथ है, अहिंसा ही एक मात्र धर्म है, अहिंसा को छोड़कर कोई रास्ता नहीं हो सकता और अहिंसा को छोड़कर कोई धर्म नहीं हो सकता। गुरु हमको हिंसा से बचने का उपाय बता हमको अहिंसा का मार्ग बताते हैं। गुरु कहते हैं कि अहिंसा ही हमारा जीवन होना चाहिए। जिस दिन हमारा जीवन अहिंसामय हो जायेगा उस दिन हमारे पास परिग्रेह रहे नहीं सकता क्यों की जहा परिग्रेह रहेता है वहा हिंसा रहेती है परिग्रह और अहिंसा एक साथ नहीं रह सकते। यदि हमें गुरु की खोज करना है तो सबसे पहले हमको अभी से परिग्रह का त्याग शुरू कर देना चाहिए ताकि हम गुरु के चरणों में अहिंसा और अपरिग्रह की साधना कर सकें।

     

    परिग्रह छोड़कर व्यक्ति जब अपरिग्रही बन जाता है तब उसके दिल में दया का प्रस्फुटन हो जाता है क्योंकि दया के बिना सम्यग्दर्शन कैसे रह सकता है। जीवन में दया होना अनिवार्य है। दयालु बने बिना अहिंसक नहीं बन सकते और जब तक हम अहिंसक नहीं बनते तब तक हम अपने देश और समाज की रक्षा भी नहीं कर सकते। रक्षक बनने के लिए हिंसा छोड़ना अनिवार्य है और हिंसक कभी रक्षक नहीं बन सकता।


    आज हमारा जीवन भक्षक बन चुका है। आदमी ने आज जानवरों से भी गया बीता काम करना शुरू कर दिया है। यह जानवर हमसे अच्छे हैं जो बिना मतलब के किसी को सताते तक नहीं लेकिन यह आज का आदमी उन मूक जानवरों को मारकर उनका मांस बेचकर अपना पैसा कमाता है। आज हम आजादी की स्वर्ण जयंती मनाने की तैयारी कर रहे हैं लेकिन देश की प्राकृतिक सम्पत्ति को विनाश कर यह स्वर्ण जयंती का मनाना कैसे सार्थक होगा? जीने का अधिकार आदमी को ही नहीं जानवरों को भी है यह जानवर भी स्वतंत्र जीना चाहते हैं मरना नहीं चाहते। हमको चाहिए कि हम भारत में इस घिनौने पाप कार्य को जल्दी बन्द करवाएँ। भारत से मांस का निर्यात करना भारत के लिए कलंक की बात है यह भारत के लिए अभिशाप है। भारत की इसमें उन्नति नहीं हो सकती, पतन अवश्य होगा। हम अपने देश की पतन से बचाएँ यही हम सबका कर्तव्य होता है।

     

    आप एक स्वतंत्र राष्ट्र में जी रहे हैं, जरा आप अपनी उस स्वतंत्र शक्ति को पहचानिए। आपने चुना है आपके प्रतिनिधि को, अपनी सरकार को। जनता ही सरकार है आप ही सरकार हैं फिर आप इस पाप कार्य को रोकने का प्रयास क्यों नहीं कर रहे हैं? आज से आपको यह संकल्प लेना है कि भारत से हो रहे मांस निर्यात के विरोध में एक आदोलन प्रारंभ करना है और एक जन चेतना जागृत करना है ताकि इस पाप पर प्रतिबंध लग जावे। भारत से मांस निर्यात तुरन्त बंद हो इसी भावना के साथ -

     

    अहिंसा परमो धर्म की जय।


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    रतन लाल

       2 of 3 members found this review helpful 2 / 3 members

    गुरु गोविंद दोनों खड़े काके लागूं पाय बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए

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