विवेक के साथ बुद्धिपूर्वक जो त्याग किया जाता है वही व्रत कहलाता है, वही संकल्प कहलाता है। वही सच्चा आत्म त्याग ही दीक्षा कहलाती है। यह संसारी अपने शरीर को सजाता है, लेकिन जो दीक्षा लेता है, वह शरीर को सजा देता है। एक शरीर को सजाता है और एक शरीर को सजा देता है। शरीर को सजाने का अर्थ शरीर से मोह करना, राग करना शरीर को भोगों का साधन बनाना। लेकिन शरीर को सजा देने का अर्थ शरीर से मोह छोड़ देना, विरत हो जाना शरीर को आत्म साधना का साधन बना लेना। शरीर तो शरीर है, उसी शरीर को हम वासना का साधन बना लेते हैं और उसी शरीर को साधना का साधन भी बना सकते हैं। जो शरीर को साधना का साधन बना लेते हैं, वे शरीर को सजा देते हैं और जो शरीर को वासना का गुलाम बना देते हैं वे शरीर को सजाते हैं। अत: शरीर को साधना का साधन समझो वासना का नहीं।
यह उद्वार संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने ९ जुलाई को सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर में आयोजित भव्य दीक्षा समारोह में व्यक्त किए। मुनिश्री ने कहा कि धर्म की प्रभावना अपने उज्ज्वल भावों पर आधारित है। वस्तुत: अपने उज्ज्वल भावों का नाम ही तो धर्म है। हमें धर्म का पालन करने के लिए आत्म प्रकाश की आवश्यकता है क्योंकि प्रकाश के बिना पथ का दर्शन नहीं होता और दर्शन के अभाव में जीवन प्रदर्शन का केन्द्र बना रहता है, जब हमको अपने जीवन का पथ मिल जाता है तब हमें कठिनाइयों के रूप में अनुभूति नहीं होती। आत्म-पथ में कठिनाइयाँ ही तो सफलता का भवन बनाती हैं अत: हमको आत्म प्रकाश की खोज हमेशा करना चाहिए।
प्रकाश में नहीं प्रकाश को देखो, प्रकाश में नहीं प्रकाश को पढ़ो। हम प्रकाश में देखते रहते हैं इसलिए हम प्रकाश को नहीं देख पाते। प्रकाश को देखना और प्रकाश में देखना दोनों अलगअलग हैं। लोग सूर्य को नहीं, सूर्य के प्रकाश को देखते हैं। आप भले कहते हैं कि हमने सूर्य नारायण के दर्शन कर लिए, परन्तु आप सूर्य नारायण के दर्शन कहीं कर पाते हैं। आप तो मात्र धूप को देखकर ही यह समझ लेते हैं कि हमने सूर्य नारायण के दर्शन कर लिए धूप को देखकर सूर्य को देखने की बात कहना भूल है यह सत्य नहीं है सत्य तो यह है कि जिस दिन तुम सूर्य को देखोगे, उस दिन तुम्हें धूप नहीं दिखेगी। सारी दुनियाँ दिखाई नहीं देगी। मात्र वहाँ तुम ही तुम नजर आओगे, इसी प्रकार जब तुम प्रकाश को देखने लगोगे उस समय तुमको यह राग रंग की दुनियाँ दिखाई नहीं देगी। तुमको दिखेगी अकेली तुम्हारी आत्मा। बस उस आत्मा को देखना ही वस्तुत: प्रकाश को देखना है क्योंकि आत्मा से बढ़कर दूसरा प्रकाश नहीं। अब ये दीक्षार्थी आरंभ और परिग्रह का काम नहीं करेंगे क्योंकि आरंभ और परिग्रह के त्याग के लिए ही तो दीक्षा ग्रहण की जाती है। जिसके माध्यम से परिग्रह का उत्पाद होता है वह आरंभ कहलाता है और जिसने आरंभ का त्याग कर दिया वह परिग्रह का उत्पादन नहीं कर सकता, अब वह कपड़ों से भी अपनी आसक्ति घट लेता है, वस्त्रों का त्याग कर देता है क्योंकि वस्त्र भी साधना में बाधक हैं। इसीलिए वह इनको भी छोड़ देता है। वस्त्र भी परिग्रह है, वह कभी भी उपकरण नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो क्षुल्लक का भोजन पात्र कटोरा है, वह भी परिग्रह है, उपकरण नहीं। इसीलिए वस्त्र और बर्तन दोनों को वह दीक्षार्थी छोड़ देता है। इस विषम काल में जहाँ चारों ओर विलासिता का तूफान है कदम-कदम में उन्मार्ग है फिर भी इन लोगों ने जो सन्यास लेने का साहस किया, वह प्रशंसनीय है क्योंकि आप सब कालेज के विद्यार्थी हैं, कालेज में पढ़ने वाले हैं। सन्यास का चोला पहन रहे हैं। यह भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि है और वस्तुत: इससे बड़ा आत्म उत्थान का कोई मार्ग भी नहीं है। आत्मा का उत्थान, आत्मा की उपलब्धि आत्मा के संयम बिना संभव नहीं। जो आदमी आत्मा का उत्थान चाहता है। उसको इस दुनियाँ को भूल जाना चाहिए और मात्र अपनी आस्था को ही याद रखना चाहिए। आत्मा ही आनंद का स्रोत है। अत: आत्मा को सदा याद रखो।
जीवन का लक्ष्य आत्म शांति होना चाहिए। आत्म शांति इस रंग-बिरंगी मृग मारीचिका में नहीं मिल सकती। शांति भवनों में नहीं, शांति विषयों में नहीं, शांति तो अपने अन्दर है। इस शांति के लिए मात्र अपने अंदर जाना है। जब हम अपनी दृष्टि को पर पदार्थ से यानि विषय कषायों से हटा लेते हैं तो हमारे अन्दर ही शांति का झरना फूट पड़ता है। अपने भीतर देखो, अपने भीतर ही सब कुछ है, अपने भीतर जाना ही दुनियाँ को समझना है।
सन्यास कोई महोत्सव नहीं, दीक्षा कोई महोत्सव नहीं, आत्म शांति का संकल्प है, विचारों की शुद्धिकरण है। आत्मा की खोज है, आत्म संयम है, आत्म पुरुषार्थ है। जीवन नश्वर है, जीवन और मरण के अलावा इस दुनियाँ में कुछ है ही नहीं। वस्तुत: मृत्यु को जीतने का जो संकल्प है, वही दीक्षा है। जीवन को समझो, जीवन समझ में आ जाने पर दीक्षा के भाव हो ही जाते हैं।
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