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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सिद्धोदयसार 26 - प्रकति प्रेम सिखाती है घ्रणा नहीं

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    करुणा और दया सीखने के लिए न किसी कॉलेज जाने की आवश्यकता है और न कहीं विदेश की। भारत के कण-कण में करुणा और दया बिखरी हुई है क्योंकि यहाँ करुणा और दया के अवतार महापुरुषों का जन्म युग-युग में होता रहा है। उनका संदेश प्रकृति में आज भी ध्वनित है। महापुरुषों के महा संदेशों को प्रकृति ने आज भी नहीं भुलाया। लेकिन आदमी ने सब कुछ भुला दिया। घृणा करना आदमी ने कहाँ से सीखा? प्रकृति प्रेम करना सिखलाती है घृणा करना नहीं। जब हम दोषों की ओर दृष्टिपात करते हैं तो हमारा पतन होता है और जब हम गुणों को अपनाते हैं तो हमारा उत्थान होता है। जीवन पाया है, उसका उत्थान करो, पतन नहीं। पतित मत बनो। तुम्हारे पास पापी न बनने की शक्ति है। बस तुमको दोषों को छोड़ गुणों को ग्रहण करना सीखना है।

     

    मनुष्य होने के नाते हमको यह अवश्य सोचना चाहिए कि मैं कौन हूँ? मेरा गुण क्या है? मैं कहाँ से आ रहा हूँ? मुझे कहाँ जाना है? यदि हम यह चिंतन नहीं करेंगे तो हम जीवन में भटक जायेंगे। मैं कौन हूँ? मैं मनुष्य नहीं आत्मा हूँ, शाश्वत हूँ, मैं अकेला जन्मा हूँ, अकेला ही मरण करूंगा। यह परिवार धन दौलत सब यही छूट जाये, क्योंकि यह मेरा नहीं है यह सब संयोग है जिसका एक दिन अवश्य वियोग हो जाना है। अत: मैं तो मात्र आत्मा हूँ। आत्मा के अलावा इस संसार में मेरा कुछ है ही नहीं। मैं कहाँ से आ रहा हूँ। संसार से ही आ रहा हूँ किसी मुक्ति से नहीं। चार गति हैं कभी मनुष्य गति, कभी देव गति, कभी नरक गति और कभी पशु गति, इन चार गतियों और चौरासी लाख योनियों में से ही तो आ रहा हूँ। लेकिन अब ऐसी जगह जाना है जहाँ आज तक नहीं गया हूँ।

     

    जहाँ जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, बुढ़ापा नहीं, रोग नहीं, दुख-शोक-संताप कुछ भी नहीं ऐसे परम धाम को मुझे अब प्राप्त करना है और वहीं जाना है और इसके लिए मुझको संसार से मोह छोड़ना है। यह आदमी मोह क्यों करता है? मोह एक भ्रांति है। घर को घर माने उसको अपना न मानें क्योंकि घर तुम्हारा है ही नहीं। तुम चेतन हो, घर जड़ है। वह जड़ वस्तु तुम्हारी कैसे हो सकती है? यह हमारी भूल है कि हमने संसार की अचेतन वस्तुओं को अपना मान लिया है। संसार के दुख से बचने का एकमात्र यही उपाय है कि हम अपने को ही अपना मानें पर को अपना न मानें। स्व को समझना ही पर को भूलना है और जब हम संसार को भूल जाते हैं तो मुक्ति का दरवाजा खुल जाता है और हम अपने अन्दर के घर में हमेशा के लिए प्रविष्ट हो जाते हैं।

     

    जीवन की सबसे अनमोल धरोहर विवेक है, जिसके पास विवेक नहीं उसके पास कुछ भी नहीं और जिसके पास विवेक है, उसके पास सब कुछ है। ज्ञान तो सबके पास होता है, लेकिन विवेक सबके पास नहीं होता। आज के युग में ज्ञान का विकास तो हो रहा है लेकिन विवेक का नहीं, विवेक का विकास ही ज्ञान की उन्नति है।

     

    संसार का भला ज्ञान से नहीं विवेक से होता है। विवेक एक भीतरी भेद विज्ञान है जो विभाजन करता है विवेक का अर्थ ही विभाजन होता है। जैसा कि जब हम विवेक के द्वारा अपने मकान को देखते हैं तो उसमें एक सच्चाई नजर आती है क्योंकि विवेक उसको स्पष्ट कर देता है कि यह मकान तुम्हारा नहीं यह तो मिट्टी पत्थरों का है तुम इसके मालिक नहीं हो, यह तुम्हारा नहीं है तुम एक चेतन तत्व हो इस प्रकार विवेक के द्वारा हम एक सत्य को प्राप्त कर लेते हैं इसीलिए जीवन में विवेक का होना अनिवार्य है।

     

    सम्यक दर्शन हो जाने पर घर, परिवार गौण हो जाता है और मोक्षमार्ग प्रधान हो जाता है। सम्यक दर्शन का अर्थ ही यह होता है कि झूठी दुनियाँ का रहस्य खुलना और आत्मा पर सच्ची श्रद्धा होना। सच्चा विश्वास ही सच्चे मार्ग पर ले जा सकता है, झूठा नहीं। इसलिए जीवन में विश्वास की अपेक्षा सच्चे विश्वास की ही बड़ी मौलिकता होती है। मोक्षमार्ग का अर्थ मोह, माया, स्वार्थ को छोड़ने का मार्ग। मोक्षमार्ग कोई पत्थरों का मार्ग नहीं है, वह तो विश्वास का मार्ग है। आस्था का मार्ग है, संकल्प, त्याग, वैराग्य, ध्यान, तप का मार्ग है और जिसमें आस्था ही प्रधान होती है।

     

    आस्था के अभाव में ही हम कमजोर हैं। हमारी आस्था यदि मजबूत है तो हम कमजोर हो ही नहीं सकते। आस्था को मजबूत करिए। आस्था को मजबूत करने के लिए आपको कोई दवा खाने की आवश्यकता नहीं। दवा खाने से आस्था मजबूत नहीं हो सकती। दृढ़ संकल्प ही आस्था को मजबूत करता है। आत्म संयम, त्याग से ही आस्था मजबूत होती है। यदि आप अपनी आस्था को मजबूत करना चाहते हो तो आत्म संयम के मार्ग में अपने कदम आगे बढ़ाओ अन्यथा आस्था मजबूत नहीं हो सकती। आस्था की मजबूती ही जीवन की सफलता है, आस्था को कमजोर मत होने दो संकल्पों, व्रतों को कमजोर मत होने दो। जिन संकल्पों को लिया है, उनका पालन निर्दोष करो, निर्दोष व्रतों का पालन ही सही विरक्ति है, अन्यथा व्रत और विरक्ति का कोई मूल्य नहीं।

    Edited by admin


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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    पाप से घृणा करो पापी से नहीं

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