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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सिद्धोदयसार 14 - पाप से घ्रणा करो पापी से नहीं

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    ओवर कॉन्फीडेन्स मात्र, मनुष्य में ही पाया जाता है, जानवरों में नहीं। जीवन के लिए कॉन्फीडेन्स चाहिए ओवर कॉन्फीडेन्स नहीं। पाप करने में मनुष्य जितना आगे बढ़ जाता है उतना जानवर नहीं। सबसे अधिक क्रोध करने में, सबसे अधिक अहंकार करने में, सबसे छल कपट करने में और सबसे अधिक लालच करने में मात्र मनुष्य ही आगे रहता है जानवर नहीं। मनुष्य क्या-क्या नहीं करता सभी कुछ तो करता है, इस मनुष्य ने सबको सुखा दिया और स्वयं ताजा रहना चाहता है, वह मनुष्य है जो हरी को समाप्त करके हरियाली की चाह करता है, स्वयं टमाटर की तरह लाल रहना चाहता है और दूसरों को काला करने की सोचता है। यह मनुष्य ही अतिक्रमण करता है प्रतिक्रमण करता है। यह अनुसंधान तो करता है अतिसंधान भी करता है इस प्रकार यह मनुष्य इस सृष्टि में नाश और विनाश के काम करता है। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य को अतीत के समस्त पापों का प्रायश्चित कर लेना चाहिए और अपनी आत्मा को पापों से दूर कर लेना चाहिए, और हमेशा पाप से घृणा करना चाहिए पापी से नहीं। स्टेण्डर्ड से पहले अन्डर स्टेण्डिंग (समझदारी) होना चाहिए। आज स्टेण्डर्ड के नाम पर मनुष्य बहुत कुछ करता जा रहा है लेकिन उसके पास जो स्टेण्डर्ड है उसकी अपनी कोई अंडर स्टेण्डिंग नहीं है। स्टेण्डर्ड का अर्थ तो आदर्श होता है हमारे जीवन में आस्था, विवेक और कर्तव्य का स्टेण्डर्ड होना चाहिए और वह आस्था अन्धी न हो अपितु विवेक के साथ हो और वह विवेक, कर्तव्य के साथ हो। यदि हमारे जीवन में आस्था, विवेक और कर्तव्य तीनों का एक साथ गठबन्धन हो जाये तो हमारा जीवन महक उठे, सुगन्धित हो जाये। जीवन महान् बन सकता है हम दूसरों के लिए आदर्श बन सकते हैं, उदाहरण बन सकते हैं, शर्त है कि हम अपनी आत्म प्रशंसा न करें। आत्म प्रशंसा हमको अपने कर्तव्यों से चलित करती है, विमुख करती है, आत्म प्रशंसा हमको कमजोर करती है और अहंकार को पुष्ट करती है। अत: हम अपनी आत्म प्रशंसा कभी न करें क्योंकि जो प्रशंसनीय होता है उसकी प्रशंसा स्वयं होती है करने की आवश्यकता नहीं।

     

    जीवन को उन्नत बनाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम अपने द्वारा किये गये अतीत के अनर्थ की ओर देखें और उनका संशोधन करें उनका परिमार्जन करें और आगामी काल में उन अनर्थ को नहीं करने का संकल्प करें, इस शरीर को अहिंसा के लिए काम में लायें और मन को भविष्य के उज्ज्वल के लिए लगायें, दूसरों की अच्छाई करने में अपनी बुद्धि लगायें और कर्तव्य की ओर आगे बढ़ें तभी हमारा जीवन सार्थक हो सकता है अन्यथा नहीं। अनर्थ वही करता है जो परमार्थ को भूल जाता है जो परमार्थ को याद रखता है वह व्यक्ति अनर्थ नहीं कर सकता, अपने स्वभाव को याद रखना ही परमार्थ को नहीं भूलना है क्योंकि स्वभाव ही तो परमार्थ है, अपनी आत्मा का ख्याल ही तो सही परमार्थ है, अनर्थ से बचना ही तो परमार्थ है, पापों को तोड़ना ही तो परमार्थ है, और अहिंसा ही सही परमार्थ है। हम अहिंसा को जीवन में उतारें तभी सही मायने में हमारा जीवन उन्नत हो सकता है अन्यथा अवनति ही होगी।

     

    आचार्य श्री जी ने अपने गुरु आचार्य ज्ञानसागर जी की राष्ट्रीयता के बारे में बताया कि आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज कहा करते थे कि- "यह मेरा तन भी वतन की सम्पदा है, यह शरीर भी राष्ट्रीय संपत्ति है इसका दुरुपयोग मत करो" इससे बड़ी राष्ट्र प्रेम, राष्ट्र भक्ति और  राष्ट्रीयता की मिसाल और क्या हो सकती है। यह राष्ट्रीयता का जीवन आदर्श है। आज हम अपने राष्ट्र को भी अपना राष्ट्र नहीं समझ रहे हैं तो फिर इस शरीर की तो बहुत दूर की बात है। वस्तुत: हमारा यह तन राष्ट्रीय संपत्ति ही है और समझना चाहिए। प्रत्येक का तन राष्ट्रीय संपत्ति है इतना ही नहीं चाहे वह मनुष्य हो या जानवर वे सब राष्ट्रीय धरोहर हैं, राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होता है कि वह अपने देश की रक्षा में अपना सहयोग दे। दूसरे के तन को खाकर वतन की रक्षा नहीं हो सकती, जब जानवर भी राष्ट्रीय संपदा हैं फिर उनका कत्ल क्यों किया जाये? राष्ट्र की उन्नति का यह अर्थ कतई नहीं हो सकता कि हम अपने अर्थ के लिए उनको समाप्त करें और विदेश से मुद्रा कमायें। मनुष्य को चाहिए कि वह जानवरों के लिए आदर्श बनें।

     

    याद रखो। पशुबलि भी नर बलि की ओर ले जा सकती है। देवता बलि नहीं चाहता क्योंकि देवता तो अहिंसा की ओर ले जाता है हिंसा की ओर नहीं। राष्ट्र का कर्तव्य है कि वह देश में हो रही पशुबलि (कत्लखाने, मांस निर्यात) को बन्द करवायें। राजा पालक होता है मारक नहीं, लेकिन जब राजा अपनी मनमानी करने लगता है तब प्रजा दरिद्र बन जाती है। आज यही तो हो रहा है नेतृत्व हीनता के कारण प्रजा अन्धी हो गई है घर-घर राजा बन गये हैं इसलिए कोई किसी की नहीं सुन रहा है। स्व-राज्य उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना कि उसको अपने लक्ष्य तक पहुँचा देना महत्वपूर्ण है। हम अपने लक्ष्य तक पहुँचें सबसे पहले हम अपने लक्ष्य को निर्धारित करें इसके बाद अपना कदम बढ़ाएँ देश की उन्नति अवश्य होगी।

     

    जो व्यक्ति बड़े पद को पाकर अयोग्य काम करता है वह अपने देश को बहुत नुकसान पहुँचाता है। और अपनी भी अवनति करता है। योग्यता का मूल्यांकन करना चाहिए, जिस व्यक्ति के पास जैसी क्षमता है, योग्यता है उसको वैसा ही पद देना चाहिए। यदि व्यक्ति को योग्यता के अनुसार पद दिया जाता है तो वह अपनी एवं अपने राष्ट्र की उन्नति ही करता है। यदि आप कुछ भी नहीं करना चाहते हो तो न सही लेकिन दो काम अवश्य करो पहला निर्बलों को मत सताओ और दूसरा संग्रह वृत्ति मत रखो। संग्रह वृत्ति मात्र मनुष्य ही करता है, जानवर नहीं। वह जंगल का राजा शेर भी किसी का संग्रह नहीं करता, शेर कभी भी मार करके अपने शिकार को कल के लिए नहीं रखता। लेकिन नृसिंह जंगल के शेर से भी अधिक खतरनाक है। पशु तो आज भी अपनी मर्यादाओं में रहते हैं लेकिन इस मनुष्य ने सारी मर्यादाओं को छोड़ दिया। मनुष्य को अपनी जीवन शैली शुद्ध कर लेना चाहिए। यदि मनुष्य सुधर जायेगा तो सारी दुनियाँ सुधर जायेगी, खतरा प्रकृति से नहीं खतरा मनुष्य से है प्रकृति ने मनुष्य को खराब नहीं किया लेकिन इस मनुष्य ने प्रकृति को तबाह कर दिया आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य प्रकृति के अनुरूप चले।

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