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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सिद्धोदयसार 22 - राग का त्याग ही उत्तम त्याग है

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    संसार की पराई वस्तुओं में अधिकार नहीं करना ही सच्चा त्याग है। हमारी यह झूठी मान्यता है कि ‘यह मेरा है।' 'यह मेरा है', मेरा-तेरा का त्याग करना ही सच्चा त्याग है। संसार में किसी भी वस्तु में अपना अधिकार जमाने की कोशिश मत करो, वस्तुत: त्याग होता ही नहीं क्योंकि जब संसार में हमारा कुछ है ही नहीं तो फिर किसका त्याग? हमारा संसार में यदि कोई है तो वह है एक आत्मा।आत्मा के अलावा हमारा कुछ नहीं और उस आत्मा का त्याग नहीं किया जाता। त्याग तो राग, द्वेष, मोह का किया जाता है। हम दुनियाँ में सब कुछ खरीद सकते हैं लेकिन भगवान् को नहीं खरीद सकते। भगवान् की उपासना करो, प्रार्थना करो, भगवान् की उपासना करना ही त्याग के मार्ग पर बढ़ना है क्योंकि भगवान् का उपदेश यह है कि पर द्रव्यों का त्याग करो और आत्म पुण्य का सम्मान करो।

     

    त्याग के बिना तपस्या निष्फल है, तपस्या में लगें, लेकिन त्याग के साथ लगें। परिग्रह के त्याग के बिना तपस्या नहीं हो सकती, तपस्या त्याग के साथ होना चाहिए। त्याग करो, किसका त्याग? ममत्व का त्याग, शरीर के प्रति जो मोह है, ममत्व है, उसी का त्याग करना। कायोत्सर्ग का अर्थ ध्यान नहीं, अपितु काय अर्थात् शरीर और उत्सर्ग का अर्थ त्याग। अर्थ यह हुआ कि शरीर के प्रति ममत्व का त्याग ही कायोत्सर्ग है। जो फूल जाता है वह रागी माना जाता है, जो फूलता है वह गिरता है। वृक्ष में फूल लगा है, लेकिन वह फूल एक दिन मुरझा जाता है और वृक्ष के नीचे धूल में गिर जाता है लेकिन काँटा कभी धूल में नहीं गिरता। फूल धूल में धूमिल हो जाता है लेकिन काँटा वृक्ष के नीचे नहीं गिरता वह तो वृक्ष पर ही लगा रहता है। काँटा वैराग्य का प्रतीक है जबकि फूल राग है। राग भले आपको अच्छा लगे लेकिन वह आपके लिए घातक है। जीवन में त्याग की आवश्यकता है राग की नहीं।

     

    मरने के बाद तुम्हारा कुछ भी नहीं है इसलिए जीते जी कुछ त्याग कर लो, चाहे वह सोना हो, चाँदी हो, हीरा हो, मोती हो कुछ भी हो वह आखिर पत्थर ही तो है। आप अपने गले में पत्थर पहने हैं। आत्मा का स्वरूप समझो, आत्मा न गरीब है न अमीर, आत्मा न छोटा है और न बड़ा। इसलिए गरीबों को हीन दृष्टि से मत देखो, तुम्हारी आत्मा और गरीब की आत्मा में कोई अन्तर नहीं है। आत्मा सबकी एक है। सारी विषमताओं को छोड़ दो। यह संसार तुम्हारा नहीं है और न तुम इसके हो। तुम तो मात्र आत्मा हो उसी मात्र एक आत्मा का ध्यान करो उसका कल्याण करो।

     

    शरीर को वासना का साधन मत बनाओ उसको उपासना का साधन बनाओ । यह आदमी अपने शरीर को वासना का साधन बना लेता है और भोग विलासों में लिप्त रहता है। लेकिन जिस व्यक्ति को अपनी आत्मा का परिचय मिल जाता है वह व्यक्ति अपने शरीर से अपनी आत्मा की उपासना करता है। शरीर को वह आत्मसाधना का साधन समझता है। इस शरीर से साधना करो, इससे उपासना करो, इस संसार को धर्म करने का उपकरण समझो। अन्यथा इससे राग करने से कोई भी प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। भोग्य सामग्री का मूल्य तभी तक है जब तक कि भोक्ता उपस्थित है, उपभोक्ता के अभाव में भोग्य सामग्री का क्या मूल्य? यह शरीर भी इसी प्रकार का है। जब तक आपकी सांसें चल रही हैं शरीर में स्पन्दन चल रहा है, जीते जी इससे कुछ काम ले लो अन्यथा मरने के बाद तो इसको जला दिया जाना है फिर इसकी कोई कीमत नहीं होती।

     

    किसी के प्रति राग नहीं करना ही उत्तम त्याग है। जो वस्तु जिस प्रकार है उसको उसी रूप में जानो, उसमें अपनी ओर से कुछ भी लाग लपेट मत लगाओ। मेरा मकान है, मेरी दुकान है, मेरे बच्चे हैं, मैं इसका मालिक हूँ, ये मेरे नौकर हैं इस प्रकार जो दूसरी वस्तुओं में अहं भावना है यही तो मोह है, मायाजाल है, संसार है। इसी को छोड़ना है। मकान को मकान समझो, उसमें ममत्व की बुद्धि मत करो। उस मकान को एक पक्षी के घोंसले के समान समझो, जिस प्रकार पक्षी किसी वृक्ष के ऊपर बैठकर रात काट लेते हैं और प्रात: काल उड़ जाते हैं उसी प्रकार हमको भी एक दिन यहाँ से उड़ना है, यहाँ स्थाई कोई नहीं है। फिर उसमें मोह क्यों? राग क्यों? अहंकार क्यों? अधिकार क्यों?

     

    राग का त्याग ही अध्यात्म है। राग, द्वेष माया को छोड़ना ही त्याग है। यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो सबसे पहले अध्यात्म को समझो। अपनी आत्मा के स्वरूप को समझो। तुम्हारा यहाँ कुछ भी नहीं है, तुम व्यर्थ में दुनियाँ को अपनी मान रहे हो, तुम्हारा तो मात्र आत्मा है, उसी आत्मा को समझने का प्रयास करो। मोह को कम करो, किसी से राग मत करो द्वेष मत करो, राग करने से कर्म का बन्ध होता है। दुनियाँ में रहो लेकिन वैराग्य के साथ रहो, जगत् में रहो लेकिन जागते रहो गफलत मत होओ। तुम्हारी आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति है। तुम परमात्मा बन सकते हो। परमात्मा बनने की प्रक्रिया यही है कि तुम किसी को अपना मत समझो।'पर' को छोड़ो और 'स्व” को समझो। स्व यानि आत्मा, उस आत्मा को समझकर उसके स्वरूप में आचरण करना ही आत्म कल्याण का मार्ग है। और वस्तुत: यही मनुष्य जीवन का सार है, बाकी सब बेकार है।

    Edited by admin


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