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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सिद्धोदयसार 13 - उघम करो ऊधम नहीं

       (1 review)

    यदि हम अपने देश की समृद्धि चाहते हैं तो वह समृद्धि उद्यम से ही हो सकती है, ऊधम से नहीं। लेकिन आज हम उद्यम कम ऊधम ज्यादा कर रहे हैं। ऊधम से दम घुटता है, हम उद्यम करें ऊधम नहीं। यदि हम उद्यम करेंगे तो हम एक सही आदमी बन सकते हैं और सही आदमी बनने के बाद ही हमारा कदम एक आचरण की कोटि में सकता है अत: हम उद्यम करें, ऊधम नहीं। मांस का निर्यात करना देश के साथ ऊधम करना है क्योंकि यह उद्यम नहीं कहलाता। आज हमारे सामने हमारा कोई उद्देश्य नहीं है, विश्व का कल्याण तभी हो सकता है जबकि उसके सामने अपना एक उद्देश्य हो, यदि उद्देश्य दृष्टि में नहीं रहता तो देश क्या प्रदेश में भी शान्ति नहीं हो सकती। पचास वर्ष के बाद भी हमने अपना कोई उद्देश्य नहीं बनाया। आज हम आजादी की स्वर्ण जयन्ती मना रहे हैं लेकिन स्वर्ण अवसर को खोकर ! आजादी प्राप्त की हमने अपने देश की उन्नति करने के लिए, देश का विकास करने के लिए। देश में सत्य, अहिंसा संस्कृति, संस्कार को पुन: प्रतिष्ठित करने का कितना अच्छा स्वर्ण अवसर पाया था लेकिन हमने उस स्वर्ण अवसर को भुला दिया क्योंकि हमने आजादी की गुणवत्ता को समझा ही नहीं।

     

    काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैले भारत को आज नजर लग गई है, सोचो वह कितनी बड़ी नजर होगी। आज तक किसी पशु की नजर आदमी को नहीं लगी मनुष्य की नजर बहुत विषैली है इतनी विषैली कि गाय के स्तनों में भरा दूध भी सूख जाता है, पत्थर कट जाता है, पिघल जाता है। आज आदमी की नजर पशुओं को लगी हुई है, आज आदमी विश्व भक्षी बन गया है उसने गाय, बैल, भैंस आदि मूक पशुओं को भी मारना प्रारम्भ कर दिया है। यह मनुष्य ही है जो खाता तो मीठा है लेकिन कहता है मुँह कड़वा हो गया, कितना कड़वा है यह आदमी। कितने सीधे साधे हैं ये जानवर, मूक हैं फिर भी मनुष्य ने इनको अपना शिकार बना लिया यह मनुष्य के लिए कलंक है।

     

    पशुओं के साथ दया का व्यवहार कीजिए, मानव का यह कर्तव्य है कि वह मूक जानवरों पर हमला करे, लेकिन मनुष्य ने आज इन मूक प्राणियों पर जो अत्याचार किया है वह बड़ा अमानुषिक है। स्वतंत्रता का यह विकराल रूप देखने को मिल रहा है कि आदमी ने कत्लखाने खोलकर पशुओं को काटना प्रारंभ कर दिया। आपको जन्म मिला है और जीने का जन्मसिद्ध अधिकार मिला है। स्वतंत्रता सबको प्रिय है, जानवर भी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। पशुओं को कत्ल करना यह स्वतंत्रता नहीं कहला सकती। स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ तो सबको जीवन जीने का समान अधिकार है। हम अपना जीवन जीना चाहतें हैं फिर पशुओं को वध क्यों करें? भारत सरकार को चाहिए कि वह भारत से मांस निर्यात बंद करे और पशु हत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाए।

     

    करुणा की तस्वीर यदि आपके हृदय पटल में छप जावे तो फिर कैलेंडर छपवाने की कोई आवश्यकता नहीं। लेकिन आज करुणा का तो अभाव हो गया आज आवश्यकता करुणा की है। करुणा के अभाव में ही भारत गायों का वध कर रहा है। क्या यह भारत है? ऐसी-ऐसी गायें पकड़ी गई हैं जो कत्लखाने कटने जा रही थीं जिन्होंने बछड़ों को जन्म दिया, वे आज दूध दे रही हैं। गर्भवती गायें भी कटने लगीं भारत में? यह भारतीय संस्कृति नहीं, भारतीय संस्कृति में प्रत्येक प्राणियों पर अभय का वरदान दिया जाता है। कोई भी पार्टी हो, सत्ता हो, हमको मतलब नहीं लेकिन देश में हिंसा नहीं होना चाहिए। मांस निर्यात रुकना चाहिए। हमको चाहिए वह व्यक्ति जो देश का पक्ष लेता है। आज कोई इस पक्ष का है कोई उस पक्ष का है एक दूसरे के लिए दोनों विपक्ष के हैं पक्ष के कोई नहीं, फिर भी आप किसी भी पक्ष के रहो लेकिन देश का पक्ष गौण नहीं होना चाहिए। आप देश का पक्ष मजबूत करो, पार्टी का नहीं।

     

    भारत की दशा आज क्या हो गई? अहिंसा का नाम लेने पर लोग हंसते हैं, संस्कृति तो मिटी प्रकृति भी मिट रही है। संस्कृति से भी अच्छी प्रकृति मानी जाती है क्योंकि संस्कृति सभ्यता है और प्रकृति स्वभाव है। अपने स्वभाव को पहचानो अपनी संस्कृति पर गौरव करो अपनी सभ्यता पर गर्व करो। हमारी संस्कृति, प्रकृति और सभ्यता ये तीनों अहिंसा प्रधान रही हैं। लेकिन आज हमने इन तीनों को हिंसक बना दिया। हिंसा ही राजधर्म बन गया। हमने गरीबी मिटाने के नाम पर गरीबों को मिटा दिया, धनी होने के वास्ते देश को कंगाल बना दिया, ठीक ही है हिंसा से हम कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते, यदि हम कुछ अच्छा चाहते हैं तो हमको देश से हिंसा को निकालना होगा, जब तक हिंसा नहीं निकलेगी देश अपना सुधार नहीं कर सकता।

     

    बन्धन किसी को भी स्वीकार नहीं होता मुझे भी नहीं है लेकिन धर्म के लिए बन्धन भी मैं स्वीकार कर सकता हूँ क्योंकि धर्म का बन्धन कोई बन्धन नहीं है। यदि अहिंसा के लिए हमें बन्धन भी स्वीकार करना पड़े तो कर लेना चाहिए लेकिन हिंसा के लिए स्वतंत्रता भी ठीक नहीं है। देश में आज अहिंसा की धारा बहना चाहिए थी, न्याय की धारा बहना चाहिए थी लेकिन यह कहाँ हुआ? सत्ता की भूख सत्य को नष्ट कर देती है। आज बहुमत के माध्यम से देश चल रहा है, बुद्धिमत्ता के बल पर नहीं। पचास वर्ष का इतिहास हमारे सामने है अब आप लोगों को सोचना है कि क्या करना है, क्या उचित है? अहिंसा को भूलकर आजादी की स्वर्ण जयन्ती का जश्न मनाना कोई मूल्य नहीं रखता। आज हमको अहिंसा की बड़ी महती आवश्यकता है अहिंसक बनना ही सही स्वर्ण जयन्ती की सार्थकता है।

    Edited by admin


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