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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सिद्धोदयसार 21 - अश्लीलता को रोकना ही शील है

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    यह संसारी प्राणी आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं से पीड़ित है। आहार से पीड़ित है यह प्राणी मैथुन (वासना) से पीड़ित है परिग्रह मूच्छा से पीड़ित है और भय से पीड़ित है यह आदमी। मानव जीवन पाया है तो इन पर विजय प्राप्त करें, आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं (इच्छाओं) में सबसे प्रबल संज्ञा मैथुन (वासना) है। वासना को जीतना बहुत मुश्किल है, वासना पर विजय प्राप्त करना बहुत कठिन है। दुनियाँ के तमाम जीव इस वासना के चक्कर में लगे हुए हैं वीर वही होता है जो वासना के काबू में नहीं होता। यह संसारी प्राणी शील (ब्रह्मचर्य) से रहित है जबकि भगवान् शील के शिखर हैं। वासना को जीतने के लिए साहस की आवश्यकता पड़ती है लेकिन श्रद्धान के बिना साहस कमजोर ही रहता है। सबसे पहले अपने में अपना विश्वास कीजिए अपना विश्वास मजबूत कीजिए, यदि आप अपना विश्वास मजबूत कर लोगे तो आपको वासना पर विजय प्राप्त करने के लिए कुछ भी कठिनाई का अहसास नहीं होगा। जीवन में शील (ब्रह्मचर्य) की बहुत महत्ता है, ब्रह्मचर्य के अभाव में साधना नहीं हो सकती, ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। शील का श्रृंगार जीवन की शोभा है, शील के अभाव में जीवन का कोई मूल्य नहीं है। हम वासना में जकड़े हुए हैं वासना के चक्कर में लगे हम अपनी शक्ति की खोज नहीं कर पा रहे हैं। ब्रह्मचर्य शक्ति है जबकि वासना कमजोरी है। वासना का अर्थ ही यह है कि वेदना का प्रतिकार करना। वासना एक वेदना है, एक पीड़ा है, यह संसारी जीव उसी वासना की वेदना को सहन करने में असमर्थ रहता है इसीलिए उसके प्रतिकार के लिए लगा रहता है।

     

    वासना की उत्पत्ति क्यों होती है? वासना की जागृति इसीलिए होती है कि हम जड़ तत्व में हाईलाइट देते हैं। यदि हम अपनी आत्मा में हाईलाइट देना प्रारम्भ कर दें तो हमारा जीवन सफल हो सकता है। हम वासना को हाईलाइट देते हैं इसीलिए पीड़ित रहते हैं। हाईलाइट का अर्थ विशेष रेखांकन यानि अण्डर लाइन, अपने जीवन में अक्षर लाइन लगाओ, तुम्हारी दूसरों के अण्डर रहने की कमजोरी समाप्त हो जायेगी। अपने अन्दर चले जाओ बाहरी चमक-दमक से बचो। अपनी आत्मा को समझो आत्मा के स्वरूप को समझो और अपनी आत्मा का कल्याण करो, कल्याण करना ही सही ब्रह्मचर्य है।

     

    शील (ब्रह्मचर्य) का पालन गृहस्थों को भी करना चाहिए। गृहस्थ जीवन में श्रावक का एक ‘स्वदारसंतोष' नामक ब्रह्मचर्य व्रत होता है जिसका अर्थ होता है अपनी धर्मपत्नी में ही सन्तोष रखना और बाकी की समस्त नारी जगत् में माँ बहन और बेटी की दृष्टि रखना। यह एक पत्नीव्रत विवाहित जीवन व्यतीत करने वालों के पास होना चाहिए। ऐसी ही साधना करना चाहिए यह गृहस्थ जीवन का आदर्श है शील की रक्षा आज होना चाहिए। आज दिनों दिन शील का अभाव होता जा रहा है तो चिन्तनीय है।

     

    आज गर्भपात की हवा ने शील को तबाह कर दिया। इस गर्भपात के पाप को रोकना चाहिए, यह गर्भपात महापाप है, इससे समाज को बचाइए। अश्लील साहित्य, पिक्चर, गाने से अपने बच्चों को बचाइए, अपने बच्चों पर अच्छे संस्कार डालिए। अपने बच्चों को शीलवान बनाइए। शील के बिना विवेक भ्रष्ट हो जायेगा, नैतिकता मर जायेगी, सदाचार का लोप हो जायेगा । जब से शील का पालन समाप्त हुआ तभी से गर्भपात का पाप तेजी से फैल रहा है, इस पाप को रोकिए, गर्भपात महा हिंसा है। गर्भपात मानव जाति में कलंक है। मानव जाति पर गर्भपात के पाप का कलंक मत लगाओ। शील के संस्कार आप अपने बच्चों पर डालें ताकि आपके बच्चों पर धार्मिक संस्कार पड़े। धर्म का विकास संस्कारित जीवन में ही होता है अत: अपने बच्चों पर धार्मिक संस्कारों का बीजारोपण करें।

     

    भारतीय संस्कृति के अनुसार पहले बन्धन होता है बाद में प्यार लेकिन आज तो पहले प्यार होता है बाद में बन्धन इसीलिए आज तलाक की रफ्तार तेजी से फैल रही है। 'लव मैरिज' भारतीय संस्कृति के अनुसार ठीक नहीं। भारत में माता-पिता के द्वारा ही विवाह तय किया जाता है, मातापिता की आज्ञा, आशीर्वाद के बिना विवाह सामाजिक दृष्टि से एवं नैतिक दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता। प्रेम विवाह सामाजिक दृष्टि से एवं नैतिक दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता। विवाह भी एक संस्कार है जिसको धार्मिक संस्कारों द्वारा होना चाहिए। समाज का भी कर्तव्य है कि वह अपनी समाज में एक ऐसी आचार संहिता का निर्माण करें जो युवा युवतियों में आज पाश्चात्य संस्कृति का

    नशा चढ़ रहा है वह रुके और वे अपनी सामाजिक एवं पारिवारिक मान मर्यादाओं में रहकर अपने जीवन का निर्माण करें।

     

    निराश्रित परिवारों के बारे में सोची। निराश्रित परिवारों को आजीविका देना धन का सही सदुपयोग है, समाज में ऐसे कितने लोग हैं जो निर्धन हैं, उनके पास आजीविका का साधन नहीं हैं वो आजीविका के अभाव में दर-दर भटकते रहते हैं और अनेकों संकट उठाते हैं। यदि हमारे पास धन है तो अवश्य हमको यह कार्य करना चाहिए कि आजीविका विहीन परिवारों को आजीविका देना चाहिए। यह भी एक धर्म है हमारे धन से यदि किसी का परिवार सुखी रहता है, उसका पालनपोषण होता है तो यह कितना अच्छा होगा। हमारा कितना पैसा यूँ ही बर्बाद हो जाता है। शादीविवाह में, आतिशबाजी में लाखों रुपये खाक हो जाते हैं मात्र आवाज के लिए जिससे कुछ भी लाभ नहीं होता, मात्र जीवों की हिंसा और पैसों की बर्बादी। अत: सम्पन्न परिवारों को चाहिए कि वे निराश्रित परिवारों को आजीविका में लगायें। धन की पूजा करने से धन का विकास नहीं होता, धन को तिलक लगाने से धन की उन्नति नहीं होती। धन का सदुपयोग ही धन का विकास है।

     

    अभयदान देना आज की पहली आवश्यकता है, जो भयभीत हैं, उनको भय से मुक्त करें, उनकी पीड़ा को दूर करें, उनकी वेदना को समझे। आप यदि एक-एक गाय भैंस आदि अनाथ, निराश्रित जानवरों को अपनी गोद लेते हैं तो भी आप बड़े सौभाग्यशाली हैं। इन जानवरों के लिए ए.सी. की कोई आवश्यकता नहीं, इनके लिए संगमरमर वाले मकानों की कोई आवश्यकता नहीं, उनको तो रूखा-सूखा घास भूसा चाहिए। वे तो बिना खप्पर वाले मकानों में भी रात काट लेते हैं। उनको विशेष व्यवस्था नहीं चाहिए। ऐसे मूक अनाथ निराश्रित जानवरों की रक्षा करना हमारा पहला कर्तव्य है। अब जीवन को ज्ञान नहीं दया चाहिए, अब दया का प्रयोग करिये, हमारे पास ज्ञान की कमी नहीं है दया की कमी है। जीवन में ज्ञान की कमी इतनी खतरनाक नहीं जितनी कि दया की कमी खतरनाक है। हमारे जीवन में दया हो हम दूसरों की पीड़ा को, वेदना को समझने का प्रयास करें। परोपकार करना जीवन का कर्तव्य बनायें और दूसरों का परोपकार करें और मनुष्य जीवन को सफल बनाएँ।

    Edited by admin


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    रतन लाल

      

    पाश्चात्य संस्कृति की काली छाया समाज को विकृत कर रही है

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