Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    896

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. मैं ऐसा चिकित्सक हूँ जो आपकी नाडी देखकर आपकी सही इलाज बता सकता हूँ। आप युवा पीढ़ी के सही चिकित्सक बनो, उसे सही प्रशिक्षण दो, उसे अच्छे-बुरे का भेद ज्ञान कराओ। युवाओं को पहले नागरिक बनाओ फिर जिम्मेदारी का बोझ कन्धों पर डाली। बौद्धिक ज्ञान के साथ आध्यात्मिक ज्ञान भी जरूरी है एवं बेहतर भविष्य के लिए सर्वागीण और क्रमिक विकास होना जरूरी है। बोझ डालने के कारण वो देश के बारे में चिंतन नहीं कर पाता है। न तो भारत के अतीत का ज्ञान है, न भारत की वर्तमान दशा का ज्ञान है। आप निर्देशक तो बन जाते हो, आप उपदेशक और उद्देशक नहीं बन पाते हो। आप युवाओं को जीवन के उद्देश्यों के बारे में चिंतन करना सिखाइये, उन्हें भी चिंतन की धारा से जोड़ने का प्रयास कीजिए। अर्थ के पीछे दौड़ने से अनर्थ ही होता है बल्कि युवा को अर्थ नहीं, समर्थ होने की आवश्यकता है। अर्थ, व्यर्थ और अनर्थ के बारे में किशोर अवस्था से ही प्रशिक्षण देने की जरूरत है। धर्म का संरक्षण करना है तो बच्चों में संस्कार का बीजारोपण करना प्रारम्भ कर दी। -२२ अक्टूबर २०१६, भोपाल
  2. धर्म के अभाव में भारत को भारत नहीं कहा जा सकता, भारत बिल्डिगों, भवनों का राष्ट्र नहीं, भारत मशीनों का राष्ट्र नहीं, भारत बाँधों का राष्ट्र नहीं, भारत धर्म का राष्ट्र है। क्या मशीनों का नाम राष्ट्र है? क्या बिलिंडगों का नाम राष्ट्र है? क्या बांधों का नाम राष्ट्र है? यदि सात्विक जीवन जीने वालों का अभाव हो जायेगा तो राष्ट्र का कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा क्योंकि सात्विकता के अभाव में राष्ट्रीयता कैसे जिन्दा रह सकती है और जब राष्ट्रीयता का ही अभाव हो जायेगा तब क्या ये मशीन, ये भवन, ये बाँध राष्ट्र को सुरक्षित रख सकते हैं? नहीं, हमें भवनों की नहीं, सात्विकता की सुरक्षा करना है और वह सात्विकता मशीनों से सुरक्षित नहीं रह सकती, उस सात्विकता को सुरक्षित रखने के लिए अहिंसा चाहिए, संवेदना, सहानुभूति, विवेक चाहिए, करुणा चाहिए तभी राष्ट्र उन्नत हो सकता है। अत: आज हमको सात्विकता की आवश्यकता है, भवनों और मशीनों की नहीं। हमारे पास मशीन तो बहुत हैं, बिलिंडग भी बहुत हैं लेकिन सात्विकता की कमी है, संवेदना की कमी है, अहिंसा की कमी है। -१९९७, नेमावर
  3. याद रखो! पशु बलि भी नर बलि की ओर ले जा सकती है। देवता बलि नहीं चाहता क्योंकि देवता तो अहिंसा की ओर ले जाता है हिंसा की ओर नहीं। राष्ट्र का कर्तव्य है कि वह देश में हो रही पशु बलि (कत्ल खाने, मांस निर्यात) को बन्द करवायें। राजा पालक होता है मारक नहीं लेकिन जब राजा अपनी मनमानी करने लगता है तब प्रजा दरिद्र बन जाती है। आज यही तो हो रहा है नेतृत्व हीनता के कारण प्रजा अन्धी हो गई है, घर-घर राजा बन गये हैं इसलिए कोई किसी की नहीं सुन रहा है। स्वराज्य उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना कि उसको अपने लक्ष्य तक पहुँचा देना महत्वपूर्ण है। हम अपने लक्ष्य तक पहुँचें, सबसे पहले हम अपने लक्ष्य को निर्धारित करें, इसके बाद अपना कदम बढ़ाएँ, देश की उन्नति अवश्य होगी। जो व्यक्ति बड़े पद को पाकर अयोग्य काम करता है, वह अपने देश को बहुत नुकसान पहुँचाता है और अपनी भी अवनति करता है। योग्यता का मूल्यांकन करना चाहिए, जिस व्यक्ति के पास जैसी क्षमता है, योग्यता है उसको वैसा ही पद देना चाहिए। यदि व्यक्ति को योग्यता के अनुसार पद दिया जाता है तो वह अपनी एवं अपने राष्ट्र की उन्नति ही करता है। यदि आप कुछ भी नहीं करना चाहते हो तो नहीं सही लेकिन दो काम अवश्य करो पहला निर्बलों को मत सताओ और दूसरा संग्रहवृत्ति मत रखो। संग्रहवृत्ति मात्र मनुष्य ही करता है, जानवर नहीं। वह जंगल का राजा शेर भी किसी का संग्रह नहीं करता, शेर कभी भी मार करके अपने शिकार को कल के लिए नहीं रखता लेकिन नृसिंह जंगल के शेर से भी अधिक खतरनाक है। पशु तो आज भी अपनी मर्यादाओं में रहते हैं लेकिन इस मनुष्य ने सारी मर्यादाओं को छोड़ दिया। मनुष्य को अपनी जीवन शैली शुद्ध कर लेना चाहिए यदि मनुष्य सुधर जाएगा तो सारी दुनिया सुधर जाएगी, खतरा प्रकृति से नहीं, खतरा मनुष्य से है। प्रकृति ने मनुष्य को खराब नहीं किया लेकिन इस मनुष्य ने प्रकृति को तबाह कर दिया। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य प्रकृति के अनुरूप चले। -१९९७, नेमावर
  4. भोपाल। मूकमाटी संगोष्ठी का समापन सत्र सुभाष स्कूल मैदान में प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम प्रो. अमिता मोदी और प्रो. रश्मि जैन ने मूकमाटी के सन्दर्भ में विचार व्यक्त किए। प्रो. उमाशंकर शुक्ल ने कहा कि मानव मंगल की अनेक बातें इसमें कही गई हैं। प्रो. जे. के. जैन सागर ने कहा कि ये वैज्ञानिक तथ्यों से परिपूर्ण है। छत्तीसगढ़ राज्य शिखर सम्मान से विभूषित प्रो. चंद्रकुमार जैन राजनांदगाँव ने संचालन का कठिन और साहसपूर्ण कार्य अपने कन्धों पर दायित्व के रूप में सम्भाल रखा था। अगले वक्ता के रूप में डॉ. बारेलाल जैन ने आतंकवाद का जो सन्दर्भ मूकमाटी में दिया है वो दूरदर्शिता का परिणाम है। डॉ. सरोज गुप्ता ने भी अपने विचार रखे। डॉ. सुरेश सरल जी ने कहा कि गुरुवर ने इसमें धरती की तुलना माता की मार्दव गोद से की है। डॉ. शैलेन्द्र जैन ने कहा कि मूकमाटी में शैक्षणिक विचारों का समागम है। मूकमाटी गुजराती संस्करण के अनुवादक डॉ. भारत कपाड़िया ने भी विचार रखे। डॉ. सुदर्शनलाल जी बनारस ने इसमें धार्मिक तत्वों के समावेश की बात कही। वरिष्ठ समाजसेवी दिलीप मेहता की धर्मपत्नी डॉ. संगीता मेहता इन्दौर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि मूकमाटी में जीवन का सम्पूर्ण सार है। अनुराधा शंकर ने कहा कि कवि सूर्य के समान होता है और निग्रन्थ, सत्य द्रष्टा के समान कवि हो तो वो महासूर्य के समान है। मूक भाषा का संगीत अद्भुत, अप्रतिम है, कुम्भ में प्रकृति, और समग्र सृष्टि है। साहित्यकार उज्ज्वल पाटनी ने इस अवसर पर कहा कि कुछ यक्ष प्रश्नों का सटीक उत्तर सिर्फ गुरुवर के ही पास है। ज्ञान के पथ पर आप से सभी आलोकित हैं फिर भी आप अभी भी प्रकाश की खोज में रहते हैं ये आपका बड़प्पन है। मूकमाटी महाकाव्य से परे है, काल खंड है। ऐसे महाकाव्य को पाने के लिए पात्रता होना जरूरी है। इस अवसर पर गुरुवर ने प्रवचनों में कहा कि इस गोष्ठी में विद्वानों ने तत्वों का उद्घाटन किया। जिह्वा लोभ के कारण रोग को निमंत्रण दिया जा रहा है और फिर चिकित्सकों को निमंत्रण दिया जा रहा है। जानबूझकर रोग को निमंत्रण देने से बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि गुणों के प्रति श्रद्धा भाव होना चाहिए, जो दुखित हैं, द्रवित हैं उनके प्रति आँखों में पानी आना चाहिए। पानी विज्ञान की देन नहीं है वो तो भीतर से प्रकट होता है। वो पानी एक सात्विक जल है जिसमें दया का प्रतिष्ठापन हुआ है। सब अपने अपने ढंग से रोते हैं, दूसरों को देखकर रोना प्रारम्भ कर देते हैं। ये मानसिक गतिविधियाँ कष्ट में हुए व्यक्ति को देखकर होनी चाहिए। अर्थ को कोशकारों ने द्रव्य कहा है, व्याकरणकारों ने उसे द्रवण शील बताया है। दूसरे दुखी व्यक्ति को देखकर भी द्रवित न होकर केवल अपने बारे में सोच रहा है। उन्होंने कहा कि पहले नामकरण भविष्य को उज्ज्वलता के हिसाब से किया जाता था। हमने भारत का नामकरण इण्डिया कर दिया। इण्डिया का अर्थ है अपराधी, क्रूर, लड़ाकू, पुराने ढर्रे का व्यक्ति, ये इसलिए जानबूझकर अंग्रेजों ने किया है। भरत चक्रवर्ती के नाम से ये भरत भूमि थी जिसे विदेशी प्रभावों ने गुलामी की मानसिकता वाला इण्डिया बना दिया। हम अपने नामकरण को, अपने प्राचीन इतिहास को स्वयं भुला रहे हैं। अंग्रेजियत मानसिकता के कारण प्रतिभा को दबा रहे हैं जो कार्य बुद्धि से करना चाहिए आज इंटरनेट के आदि बनकर कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि पश्चाताप के पूर्व ही जागृत होना आवश्यक है। हम पूरब वाले हैं, ये पश्चिम वाले हैं, ये दक्षिण वाले हैं, सही दिशा का बोध हो जाए, सोई चेतना जग जाए, ये पुरुषार्थ तो करना ही पड़ेगा। स्वाभिमान के सूत्र, संस्कार की तरफ कदम बढ़ाने की जरूरत है। आस्था साहस की जननी होती है, परन्तु विदेशी शिक्षा की वजह से हम खान-पान, शुद्ध आहार से भी दूर हो रहे हैं। आपका तो संध्याकाल पूर्ण हो रहा है किन्तु नई पीढ़ी का प्रभातकाल प्रारम्भ हुआ है। आपकी यात्रा पूर्ण होने से आने वाली पीढ़ी की यात्रा पूर्ण नहीं होती। संध्या की लाली सुलाने वाली होती है और सुबह की लाली जगाने वाली होती है। मूकमाटी ने सबको बोलना सिखाया है खुद मौन रहकर। उसने रक्त का संचार चलायमान रखने के सूत्र दिए हैं। पेट ने पीठ से जब से मैत्री की है जिह्वा दु:खी हो गई है अर्थात् ज्यादा पेट हो जाए तो पीठ की तरफ देख नहीं पाते, बीमार हो जाते हैं, फिर जिह्वा भूखी रह जाती है। उन्होंने आगे कहा कि आज जो परिग्रह की होड़ लगी है, जो विदेशी बैंकों में धन जमा किया जा रहा है वो अन्धकार की ओर ले जाने वाला है। लज्जाजनक कार्य है काला धन जमा करना। आज हम लोगों के प्रमाद के कारण ही शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी का थोपा जाना भी लज्जाजनक है, पहले सारे शोध हिन्दी में किये जाते थे, आज अंग्रेजी में किये जा रहे हैं। वेद प्रताप वैदिक एक साहित्यकार हैं जिन्होंने विदेश में हिन्दी भाषा में शोध प्रबंध किया है क्योंकि अभिव्यक्ति, जो हिन्दी में हो सकती है वो दूसरी विदेशी भाषा में नहीं हो सकती है। पिता की भाषा नहीं होती मातृभाषा होती है क्योंकि माता द्वारा जो ९ माह गर्भ में रखकर संस्कार दिए जाते हैं वो पिता से नहीं मिल पाते। सभी को अपनी मातृभाषा के प्रति अडिग रहना चाहिए। गवेषणा का अर्थ है चिंतन की धारा, गहराई तक पहुँचना। जो देशभक्त होता है वो चिंतन को मातृभाषा में ही प्रस्तुत करता है। हजारों ग्रन्थ जिस भाषा में लिखे गए हैं उस भाषा को लोप कर दोगे तो अपनी संस्कृति से युवा पीढ़ी को विमुख कर दोगे। -१६ अक्टूबर २०१६, भोपाल
  5. जीवन को उन्नत बनाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम अपने द्वारा किये गये अतीत के अनर्थों की ओर देखें और उनका संशोधन करें, उनका परिमार्जन करें और आगामी काल में उन अनर्थों को नहीं करने का संकल्प करें। इस शरीर को अहिंसा के लिए काम में लायें और मन को भविष्य की उज्ज्वलता के लिए लगायें, दूसरों की अच्छाई करने में अपनी बुद्धि लगायें और कर्तव्य की ओर आगे बढ़ें, तभी हमारा जीवन सार्थक हो सकता है अन्यथा नहीं। अनर्थ वही करता है, जो परमार्थ को भूल जाता है जो परमार्थ को याद रखता है वह व्यक्ति अनर्थ नहीं कर सकता। अपने स्वभाव को याद रखना ही परमार्थ को नहीं भूलना है क्योंकि स्वभाव ही तो परमार्थ है, अपनी आत्मा का ख्याल ही तो सही परमार्थ है, अनर्थों से बचना ही तो परमार्थ है, पापों को छोड़ना ही तो परमार्थ है और अहिंसा ही सही परमार्थ है। हम अहिंसा को जीवन में उतारें तभी सही मायने में हमारा जीवन उन्नत हो सकता है अन्यथा अवनति ही होगी। -१९९७, नेमावर
  6. स्टेन्डर्ड से पहले अन्डर स्टेन्डिंग (समझदारी) होना चाहिए। आज स्टेन्डर्ड के नाम पर मनुष्य बहुत कुछ करता जा रहा है, लेकिन उसके पास जो स्टेन्डर्ड है उसकी अपनी कोई अंडर स्टेन्डिंग नहीं है। स्टेन्डर्ड का अर्थ तो आदर्श होता है। हमारे जीवन में आस्था, विवेक और कर्तव्य का स्टेन्डर्ड होना चाहिए और वह आस्था! अन्धी न हो अपितु विवेक के साथ हो और वह विवेक! कर्तव्य के साथ हो। यदि हमारे जीवन में आस्था, विवेक और कर्तव्य तीनों का एक साथ गठबन्धन हो जाए तो हमारा जीवन महक उठे, सुगन्धित हो जाए। जीवन महान बन सकता है, हम दूसरों के लिए आदर्श बन सकते हैं, उदाहरण बन सकते हैं, शर्त है कि हम अपनी आत्म प्रशंसा न करें। आत्म प्रशंसा हमको अपने कर्तव्यों से चलित करती है, विमुख करती है। आत्म प्रशंसा हमको कमजोर करती है और अहंकार को पुष्ट करती है। अतः हम अपनी आत्म प्रशंसा कभी न करें क्योंकि जो प्रशंसनीय होता है उसकी प्रशंसा स्वयं होती है करने की आवश्यकता नहीं। -१९९७, नेमावर
  7. भोपाल। आज हबीबगंज मंदिर परिसर में कुम्भ के मेले की तरह अपार भीड़ थी और ऐसी भीड़ में मूकमाटी के कुम्भ से अमृत की बूंदें विद्वानों के शब्दों की अभिव्यक्ति के रूप में छलक रहीं थीं। आज मूकमाटी राष्ट्रीय अधिवेशन के चौथे सत्र में ज्ञान की ज्योत माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति वी.के. कुटियाला, संतोष सिंघई कुण्डलपुर, उपस्थित विद्वतजनों ने प्रज्ज्वलित कर सत्र का शुभारम्भ किया। इस अवसर पर श्री कुटियाला ने कहा की मूकमाटी में पिरोया एक माला का रूप ले लेती है। आज के जो पत्रकारिता क्षेत्र के विद्याथीं हैं उन्हें इसके अध्ययन से बहुत ही सशक्त ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है। महात्मा गांधी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति गिरीश्वर मिश्र ने कहा कि प्रत्येक पंक्ति अपने आप में जीवन के यथार्थ को सहेजे हुए लगती हैं, ये एक महाकाव्य न होकर सम्पूर्ण जीवन दर्शन परिलक्षित होता है। प्रो. श्रीराम परिहार खंडवा ने कहा कि प्रत्येक पंक्ति से ऊर्जा का संचार करने वाली तरंगें प्रवाहित होती हैं। मूकमाटी काव्य न होकर एक धर्म ग्रन्थ जैसा है जो आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। वरिष्ट साहित्यकार और कवि कैलाश मड़बैया ने अपनी कविता के माध्यम से अपनी भावांजलि प्रस्तुत की। इस अवसर पर जैन विद्वान् डॉ. सुरेन्द्र भारती, बुरहानपुर ने मूकमाटी के धार्मिक पक्ष पर अपने मार्मिक विचार व्यक्त किए। डॉ. नीलम जैन पुणे, प्रो. सुकमाल जैन मुम्बई ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए। कार्यक्रम का संचालन प्रो. चन्द्रकुमार जैन और डिप्टी कमिश्नर सुधीर जैन ने किया। इस अवसर पर पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने आशीर्वचनों में कहा कि आजकल चित्र का जमाना चल रहा है, सभी लोग चित्र में अपना चित्त लगाकर बैठे हैं परन्तु ये चित्र आपके चरित्र को कमजोर कर रहा है। बाहर का चित्र हमेशा आकर्षित करता है जिसके मोह में आप सभी पराश्रित हो जाते हैं। जब हम अंतरंग के चित्र को निहारते हैं तो यथार्थ का बोध होता है और यहीं से चारित्र निर्माण की यात्रा प्रारम्भ होती है। उन्होंने कहा कि कोई भी काव्य शब्दों की अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का सशक्त साधन होता है। आज विद्यार्थियों को यदि शिक्षा के साथ सार्थक ज्ञान का भी बोध कराया जाए तो शोध की दिशा उन्हें सही दशा तक ले जा सकती है। -१६ अक्टूबर २०१६, भोपाल
  8. बन्धन किसी को भी स्वीकार नहीं होता मुझे भी नहीं है लेकिन धर्म के लिए बन्धन भी मैं स्वीकार कर सकता हूँ क्योंकि धर्म का बन्धन कोई बन्धन नहीं है। यदि अहिंसा के लिए हमें बन्धन भी स्वीकार करना पड़े तो कर लेना चाहिए लेकिन हिंसा के लिए स्वतंत्रता भी ठीक नहीं है। देश में आज अहिंसा की धारा बहनी चाहिए थी, न्याय की धारा बहनी चाहिए थी लेकिन यह कहाँ हुआ? सत्ता की भूख सत्य को नष्ट कर देती है। आज बहुमत के माध्यम से देश चल रहा है, बुद्धिमत्ता के बल पर नहीं। पचास वर्ष का इतिहास हमारे सामने है अब आप लोगों को सोचना है कि क्या करना है, क्या उचित है? अहिंसा को भूलकर आजादी की स्वर्ण जयन्ती का जश्न मनाना कोई मूल्य नहीं रखता। आज स्वर्ण जयन्ती की सार्थकता है। -१९९७, नेमावर
  9. करुणा की तस्वीर यदि आपके हृदय पटल में छप जावे तो फिर कलेण्डर छपवाने की कोई आवश्यकता नहीं। लेकिन आज करुणा का तो अभाव हो गया, करुणा के अभाव में ही भारत गायों का वध कर रहा है। क्या यह भारत है? ऐसी-ऐसी गायें पकड़ी गई हैं जो कत्लखाने कटने जा रही थीं, जिन्होंने बाद में बछड़ों को जन्म दिया, वे आज दूध दे रही हैं। गर्भवती गायें भी कटने लगी भारत में!!! यह भारतीय संस्कृति नहीं, भारतीय संस्कृति में प्रत्येक प्राणियों पर अभय का वरदान दिया जाता है। कोई भी पार्टी हो, सत्ता हो, हमको मतलब नहीं लेकिन देश में हिंसा नहीं होना चाहिए। मांस निर्यात रुकना चाहिए। हमको चाहिए वह व्यक्ति जो देश का पक्ष लेता है। आज कोई इस पक्ष का है, कोई उस पक्ष का है, एक-दूसरे के लिए दोनों विपक्ष के हैं, पक्ष के कोई नहीं फिर भी आप किसी भी पक्ष के रहो लेकिन देश का पक्ष गौण नहीं होना चाहिए। आप देश का पक्ष मजबूत करो, पार्टी का नहीं। भारत की दशा आज क्या हो गई? अहिंसा का नाम लेने पर लोग हँसते हैं, संस्कृति तो मिटी प्रकृति भी मिट रही है। संस्कृति से भी अच्छी प्रकृति मानी जाती है क्योंकि संस्कृति सभ्यता है और प्रकृति स्वभाव है। अपने स्वभाव को पहचानो, अपनी संस्कृति पर गौरव करो, अपनी सभ्यता पर गर्व करो। हमारी संस्कृति, प्रकृति और सभ्यता ये तीनों अहिंसा प्रधान रही हैं लेकिन आज हमने इन तीनों को हिंसक बना दिया है। हिंसा ही राजधर्म बन गया है। हम गरीबी मिटाने के नाम पर गरीबों को मिटा रहे हैं, धनी होने के वास्ते देश को कंगाल बना रहे हैं ठीक ही है हिंसा से हम कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते, यदि हम कुछ अच्छा चाहते हैं तो हमको देश से हिंसा को निकालना होगा, जब तक हिंसा नहीं निकलेगी देश अपना सुधार नहीं कर सकता। -१९९७, नेमावर
  10. (श्री अटल बिहारी बाजपेई राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय भोपाल एवं श्री दिगम्बर जैन पंचायत कमेटी ट्रस्ट (रजि.) भोपाल के आयोजकत्व में १५ एवं १६ अक्टूबर २०१६ को दो दिवसीय मूकमाटी राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारम्भ परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के सान्निध्य में भगवान आदिनाथ के चित्र के समक्ष आलोक संजर, अटल बिहारी वाजपेई राष्ट्रिय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति मोहनलाल छीपा एवं पूर्व कुलपति मिथलाप्रसाद जी तथा दिगम्बर जैन पंचायत के अध्यक्ष प्रमोद हिमांसु आदि ने दीप प्रज्ज्वलित कर किया।) इस अवसर पर उपस्थित अनेक कुलपतियों का स्वागत आयोजन समिति की ओर से किया गया। इस अवसर पर सांसद आलोक संजर ने आचार्य श्री को श्रीफल भेंट कर आशीष ग्रहण किया। उन्होंने कहा कि भारतीय साहित्य में हिन्दी का योगदान सर्वोच्च है क्योंकि हिन्दी में भावों की स्पष्टता दिखाई देती है। मूकमाटी एक ऐसा महाकाव्य है जिसमें जीवन का यथार्थ है। इस अवसर पर पाणिनि संस्कृत विश्वविद्यालय,उज्जैन के पूर्व कुलपति श्री मिथिलाप्रसाद जी ने कहा कि माटी तो मूक थी परन्तु गुरुवर की कलम ने उसे शब्दातीत बना दिया है। श्री प्रसाद जी ने एक कविता के माध्यम से सम्पूर्ण मूकमाटी को अपने विचारों के माध्यम से सशक्त ढंग से प्रस्तुत किया। प्रमुख सचिव संस्कृति, वाणिज्य, पुरातत्व मनोज श्रीवास्तव ने गुरुवर का आशीष प्राप्त किया। इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ हस्तीमल जैन ने कहा कि पीड़ा भी आनंद का विषय होता है जब उसमें से कुछ अनूठा निकलता है गुरुवर ने माटी में से अमृत निचोड़ा है। श्री मनोज श्रीवास्तव ने कहा कि जितनी रचनाधर्मिता गुरुवर की कलम में है भारतीय साहित्य समाज में विरल ही है। आजकल अनेक गुरु सर्जन की बजाए अर्जन में लगे हैं परन्तु कैवल्य के मार्ग को प्रशस्त करने वाले गुरुवर ने साहित्य का जो सर्जन किया है वो अंतरंग के निर्माल्य का परिणाम है। इस महाकाव्य के तारतम्य में स्पष्ट है माटी को अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है और उसमें स्वर्णमयी निखार आ जाता है। आतंकवाद के बारे में लिखी पंक्तियाँ ऐसी लगती हैं मानो अभी २९ सितम्बर २00१६ के सन्दर्भ में १९८८ में ही लिख दिया हो, ये उनकी दूरदर्शिता का परिचायक है। जिसका जीवन कविता हो गया हो उसकी कविता तो जीवनदायिनी हो ही जाएगी। राजा भोज विश्वविद्यालय के कुलपति तारिक अनवर ने घोषणा की कि मूकमाटी को अपने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने की घोषणा की। साँची विश्वविद्यालय के कुलपति श्री यग्नेश्वर शास्त्री ने भी अपने विचार व्यक्त किये और कहा कि अनेक शताब्दियों में ऐसे विरले महाकवि होते हैं जैसे कि आचार्य श्री विद्यासागर जी हैं। आप लोग वक्ताओं को एकाग्रता से सुन रहे थे। मैं भी एक श्रोता बनकर सुन रहा था। मंथन में ही जो देखते हैं वो गायब हो जाता है, जो नहीं दिखता वो उभर कर सामने आता है। भावों की कोई भाषा नहीं होती है वो तो तैरते हुए ही दिखाई देती हैं। अपने भावों की तरंगें व्यक्त करते रहना चाहिए। कल प्रधानमंत्री जी आये थे तो भारत की बात हुई। कोई कितना भी बड़ा कलाकार हो यदि पूर्ण निष्ठा से कला की अभिव्यक्ति नहीं करेगा तो सार्थकता दिखाई नहीं देगी। भाषा में उलझकर कभी-कभी भाव पिछड़ जाते हैं। केन्द्र बिन्दु की स्थापना करके एक रेखा खींची जाती है चारों तरफ से तो हरेक दिशा में केन्द्र को छूते हुए चतुर्भुज बनता है। केन्द्र से विचलित न हों तो सम्पूर्ण व्यास परिलक्षित होता है। दृष्टिकोण से ही व्यवहार में सरलता आती है। जीवन को सम्पूर्ण बनाना चाहते हो तो उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश से ऊपर उठकर केन्द्र तक दृष्टि जाना चाहिए। परिधि में सूर्य का बिम्ब तभी दिखाई देता है जब सभी दिशाओं में एकरूपता होती है। शब्दों से ही उपजती हैं जीवन की विविध रूपताएँ। आज भारत के प्राचीन दृष्टिकोण को समझने और समझाने की जरूरत है। जो वीणा का संगीत होता था आज लुप्त हो गया है। शुभ यानि सरस्वती और लाभ यानि लक्ष्मी, ये दोनों एक दूसरे की पर्याय हैं परन्तु आज सरस्वती का लोप करके लक्ष्मी के पीछे दौड़ रहे हैं। सरस्वती को मन्त्र बनाकर ही महामंत्र का रूप दिया जाता है। यंत्र और तंत्र सब बेकार हैं महामन्त्र के सामने। पीछे भी देखो मगर पश्चिम के पिछलग्गू मत बनो। परदेश की यात्रा छोड़कर अपने देश में लौटने पर ही भारत देश का नवनिर्माण हो सकता है। लाभ के पीछे दौड़कर भला नहीं हो सकता। अंतरंग की लक्ष्मी को पाना है तो बाहर देखना बंद करो, भीतर जाओ और आप भी तर जाओ। जिस रंग का चश्मा लगाओ तो वैसा ही दृश्य दिखाई देता है। आज अंतरराष्ट्रीय होने की जरूरत नहीं है बल्कि अन्तर में राष्ट्रीय भावनाओं को जागृत करने की जरूरत है। मंथन से चिंतन उपजता है और फिर नवनीत की तरह मुलायम परिणाम निकलते हैं। प्राचीन भारत की संस्कृति का मंथन करें तभी शुभ परिणाम दिखाई देंगे। विदेशी संस्कृति से भारत की प्रतिभाओं का दोहन हो रहा है, हमारी संस्कृति का ज्ञान कराने पर ही प्रतिभाएँ उभर कर आएँगी। -१५ अक्टूबर २०१६, शनिवार, भोपाल
  11. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैले भारत को आज नजर लग गई है, सोचो वह कितनी बड़ी नजर होगी। आज तक किसी पशु की नजर आदमी को नहीं लगी, मनुष्य की नजर बहुत विषैली है, इतनी विषैली कि गाय के स्तनों में भरा दूध भी सूख जाता है, पत्थर कट जाता है-पिघल जाता है। आज आदमी की नजर पशुओं को लगी हुई है, आज आदमी विश्व भक्षी बन गया है। उसने गाय, बैल, भैंस आदि मूक पशुओं को भी मारना प्रारम्भ कर दिया है। यह मनुष्य ही है जो खाता तो मीठा है लेकिन कहता है मुँह कड़वा हो गया, कितना कड़वा है यह आदमी। कितने सीधे साधे हैं ये जानवर, मूक हैं फिर भी मनुष्य ने इनको अपना शिकार बना लिया, यह मनुष्य के लिए कलंक है। पशुओं के साथ दया का व्यवहार कीजिए, मानव का यह कर्तव्य है कि वह मूक जानवरों पर हमला न करे, लेकिन मनुष्य ने आज इन मूकों पर जो अत्याचार किया है वह बड़ा अमानुषिक है। स्वतंत्रता का यह विकराल रूप देखने को मिल रहा है कि आदमी ने कत्लखाने खोलकर पशुओं को काटना प्रारम्भ कर दिया। आपको जन्म मिला है और यह जन्मसिद्ध अधिकार मिला है, स्वतंत्रता सबको प्रिय है। जानवर भी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। पशुओं को कत्ल करना, यह स्वतंत्रता नहीं कहला सकती। स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ तो सबको जीवन जीने का समान अधिकार है। हम अपना जीवन जीना चाहते हैं फिर पशुओं को क्यों वध करें? भारत सरकार को चाहिए कि वह भारत से मांस निर्यात बंद करे और पशु हत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाये। -१९९७, नेमावर
  12. स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? आज हम स्वतंत्र होकर भी समझ नहीं पाए हैं और न जाने कब समझेंगे? आज हमको पचास वर्ष हो रहे हैं स्वतंत्रता प्राप्त किए लेकिन हम कहाँ देख रहे हैं और क्या समझ रहे हैं? पचास वर्ष के उपरान्त भी हम यह समझ नहीं पाए कि अहिंसा क्या है? यदि अहिंसा को समझ लेते तो मांस का निर्यात क्यों करते, कत्लखाने क्यों खोलते? यदि आपको अपने देश की रक्षा करना है, देश को बचाना है तो अपने अन्दर स्वाभिमान जागृत करो, अपने कर्तव्यों को समझो, अपने दायित्वों का पालन करो, अपने आपका बोध प्राप्त करो। निश्चित ही हमारे देश में एक ऐसा वातावरण तैयार होगा जो हिंसा के तूफान को रोक देगा। हिंसा को रोकने के लिए हमें किसी धन की आवश्यकता नहीं, हिंसा धन से रुकने वाली भी नहीं है क्योंकि हिंसा का स्रोत तो हमारा स्वार्थी मन ही है, झूठी प्रतिष्ठा है, सत्ता की लोलुपता है। हम अपने मन से स्वार्थ को निकाल दें, सत्ता की लम्पटता को छोड़ दें, अपने विचारों को पवित्र बना लें तो हिंसा रुक जाएगी। विचारों में पवित्रता अहिंसा से ही आ सकती है, हिंसा से नहीं क्योंकि अहिंसा पवित्र है और हिंसा अपवित्र है। यदि भारत की पवित्र संस्कृति और सभ्यता को पवित्र रखना चाहते हो तो भारत से मांस का निर्यात बंद कर दी। मांस बेचना भारतीय संस्कृति नहीं, बस! यही स्वर्ण जयन्ती की सार्थकता है। -१९९७, नेमावर
  13. शून्य का आविष्कार हमारे आचार्यों ने किया है, शून्य की कीमत तभी होती है जब उसके साथ कोई अंक लगाया जाता है। हमारे जीवन में शून्य के साथ अंक शील की तरह हैं। जीवन में यदि शील सदाचार, नीति-न्याय नहीं है तो वह जीवन कागज के फूल की तरह होता है जिसमें सुगंध नहीं होती। -११ अक्टूबर २०१६, मगलवार, भोपाल
  14. अग्रेजों के जमाने में मांस का निर्यात नहीं होता था लेकिन आज स्वतंत्र भारत में मांस का निर्यात हो रहा है, अंग्रेज विदेशी थे लेकिन हम तो देशी हैं। फिर भी अपने देश की स्थिति खराब कर डाली। मांस निर्यात भारत के लिए बहुत बड़ा कलंक है। स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर इस कलंक को धोने का संकल्प ले लेना चाहिए, यही भारत को सुधारने का सही संकल्प है। भारत इतना क्रूर बन गया है, भारत के पास आज दया का अभाव हो चुका है, दया के अभाव में ही यहाँ प्रलय का वातावरण तैयार हो रहा है। हम अपने देश की तरक्की दया के रहते ही कर सकते हैं, दया के अभाव में क्रूरता से किसी का भला नहीं होता, दया जीवन है, क्रूरता मौत है, क्रूरता को छोड़ो, दया को अपनाओ। देश में सुभिक्ष हो ऐसी कामना करो, भावना करो। दुनिया में सुभिक्ष हो, मंगल हो लेकिन उसके पहले यह बात ध्यान रखो कि सुभिक्ष के लिए किसी की हत्या न करना पड़े, किसी का वध न करना पड़े, किसी को कष्ट-दु:ख देना न पड़े। आज हम अपने देश में सुभिक्ष लाना चाहते हैं, आदमी का जीवन सुरक्षित रखना चाहते हैं लेकिन यह होगा कैसे क्योंकि हमारे पास मानवता नहीं है। दूसरों की हत्या करके, दूसरों का खून करके हम अपने देश की उन्नति कैसे कर सकते हैं। क्या यही मानवता है, यही अहिंसा है, यही सत्य है। मांस निर्यात करने वाला देश अहिंसा का सन्देश कैसे दे सकता है? यदि हम अहिंसा, सत्य, करुणा का सन्देश देना चाहते हैं एवं मानवीय चेतना जागृत करना चाहते हैं, राष्ट्र को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो इसके लिए हमको एक मानवीय क्रान्ति लाना होगा। वह मानवीय क्रान्ति सभासमारोहों में नहीं, उसके लिए जीवन परिवर्तित करना होगा, देश में हिंसा के सारे कार्य रोकने होंगे। जो देश अहिंसा के सहारे आजाद हुआ, वही देश आज हिंसा प्रधान हो रहा है। हिंसा से हमारी स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं रह सकती। देश को सुरक्षित रखने के लिए भारत को हिंसा से मुक्त करना होगा और मांस निर्यात वर्तमान की सबसे बड़ी हिंसा है, इसको रोकना होगा। -१९९७, नेमावर
  15. सत्य कटु है, सुनने में अच्छा नहीं लगता। आँखें सत्य को देखना नहीं चाहती परन्तु उसे सुनना, देखना और सहन करना पढ़ता है, ये सत्य है। पाठ्यक्रम को सरसरी निगाह से नहीं देख पाते परन्तु उसका चिंतन करना पढ़ता है। पाठ्यक्रम में जो आया है उसे स्वीकार करना पड़ता है। आज के विद्यार्थी कमजोर इसलिए हो रहे हैं क्योंकि वो ऐसे पाठ्यक्रम से दूर हो रहे हैं। जब पुराण पुरुष हो या उसकी पत्नी हो वो पुरुषार्थ उससे भी जुड़ा होता है, वो भी इतिहास की महानायिका होती है। जब भाषा समझ में नहीं आती तो चित्रों से भाव को पकड़ लिया जाता है। ये ही भारतीय संस्कृति है। जब गलतियों पर गलतियाँ होती जाएँगी। तब ही स्वीकारने की क्रिया होती है और जो स्वीकारता है वही जीवन को सुधारता है। इस भारत भूमि पर मुस्लिम शासिका ने अपने सर पर पुराण ग्रन्थ को उठाया है क्योंकि यही संस्कृति की ताकत है। इस भारत में राजा की आज्ञा का प्रतिकार नहीं किया जाता; भले ही उसकी रानी हो उसे भी स्वीकार करना पड़ता है। भारत की प्राचीन विधियों का नया रूप देकर विदेशों में नए-नए प्रयोग किये जा रहे हैं जिसे दुनिया स्वीकार कर रही है। क्षत्रिय राजा क्षत्राणी को आज्ञा देता है, किसी नौकरानी को नहीं देता। हम पुराण को पढ़कर और समझकर ही भारतीय संस्कृति को जान सकते हैं, बड़े-बड़े लेखकों ने इन इतिहास की सत्य घटनाओं को बड़े ही तरीके से संजोया है, संवारा है, जिसमें भावों की अभिव्यक्ति परिलक्षित होती है। जब देवताओं की आँखों में भी इतिहास की उस घटना को देखकर आँसू की धारा बह निकली हो; वह दृश्य कैसा होगा? सहज रूप से कुंड के सामने स्थान बनाया गया था उस सती को ये अग्नि परीक्षा देनी थी, कूदना था उस अग्निकुंड में, जिसमें भीषण लपटें उठ रही थीं और वो सती भी परीक्षा देने को तत्पर थी। मर्यादा पुरुषोत्तम भी परीक्षा लेने अडिग थे क्योंकि वो राजधर्म की मर्यादा से बँधे थे। जब किसी बात पर प्रश्न चिह्न लगाया जाता है तो उसका उत्तर सही तभी दे सकते हो जब प्रश्न के भाव को समझ जाओ। जब सीता तत्पर हो गई अग्नि में कूदने को तो लोग जल देवता की तरफ टकटकी लगाकर देखने लगे। जिसके भीतर आत्मविश्वास होता है वो परीक्षा से भयभीत नहीं होता है। इसलिए सीता कूद पड़ी और चमत्कार हो गया। अग्नि लुप्त हो गई, कमलासन प्रकट हुआ, सीता उस पर विराजमान थीं। जल और अग्नि का चोली दामन का साथ होता है। जब बिजली अग्नि के रूप में कड़कती है तब ही बारिश होती है। इस दृश्य को देखकर सभी उपस्थित लोग जय-जयकार करने लगे। इसी प्रकार आज के विद्यार्थी आत्मविश्वास के साथ परीक्षा दें, श्रम और पुरुषार्थ को प्राथमिकता दें। खोदने का पुरुषार्थ करें तो सूखी धरती में से भी जल की धारा बह सकती है। सीता की इस परीक्षा को देखकर सबकी आँखों में पानी आ गया। सीता की परीक्षा तो हो गई,अब राम की परीक्षा का समय आ गया था। -९ अक्टूबर २०१६, रविवार, भोपाल
  16. आप लोग कहते हो कि इतिहास में क्या रखा है? ये किस काम का है? जबकि इतिहास ही हमें जीवन की सही दिशा का बोध कराता है क्योंकि इतिहास के यथार्थ को जानकर ही भविष्य का सही निर्धारण होता है। -७ अक्टूबर २०१६, शुक्रवार, भोपाल
  17. अपने राष्ट्र के भविष्य के निर्माता बच्चे हैं उन्हें प्रदूषित वातावरण से मुक्त कर अच्छी दिशा का बोध कराना, आप सभी का कर्तव्य है। आज डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ खिलाकर आप बच्चों के मानसिक और बौद्धिक विकास पर कुठाराघात कर रहे हैं। उनकी बुद्धि को खराब किया जा रहा है फिर स्वयं आप लोग शिकायत करते हैं कि ये बहुत क्रोधी है, बहुत झगड़ालू है, बहुत सुस्त है, पढ़ता नहीं है, इसे याद तो होता नहीं है, ये बीमार बना रहता है, ये आज्ञा नहीं मानता है आदि और फिर ये ही बच्चे आपको निगलेट करते हैं। जब तक शुद्ध और पौष्टिक आहार अपने बच्चों को देना प्रारम्भ नहीं करोगे तब तक उनकी बुद्धि का विकास रुका रहेगा। बाजार पर भरोसा छोड़ना होगा। -६ अक्टूबर २०१६, गुरुवार, भोपाल
  18. पहले की शिक्षा में तीन चरणों में परीक्षा के माध्यम से विद्यार्थी की योग्यता का मापन किया जाता था; फिर अगली कक्षा में जाने के लिए भी एक परीक्षा होती थी ताकि सरलता से उसे प्रवेश की पात्रता मिल जाए। आज सेमेस्टर सिस्टम के माध्यम से हर ६ माह में पाठ्यक्रम की परीक्षा होती है। ये अव्यावहारिक तरीका है क्योंकि वह ६ माह में पुनरावलोकन उस पाठ्यक्रम का नहीं कर पाता है और उसकी पढ़ाई की धारा भी टूट जाती है। जिससे उसका मनोबल टूटता है। इस शिक्षा नीति का कुछ लोग विरोध भी करते हैं क्योंकि ये प्रणाली प्रासंगिक नहीं है। इसमें अभिभावक और विद्यार्थी भी संतुष्ट नहीं है, परन्तु उनकी आवाज सुनने वाला कोई नहीं है क्योंकि शिक्षा का व्यवसायीकरण होता जा रहा है। आज शिक्षा के नाम पर जो छल किये जा रहे हैं वो हमारी संस्कृति पर कुठाराघात है और ये सब सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है। गोधूलि बेला में गाय-भैंस लौटकर आ जाते हैं फिर वो जुगाली करते हैं जिससे अंदर सार-तत्व बनते हैं जिससे दूध बनता है। आपके लिए भी कुछ सिद्धान्त बनाए गए हैं जो आपके ज्ञान को विकसित करने में सहायक सिद्ध होते हैं, आप जिनवाणी बगल में नहीं सामने रखोगे तभी ज्ञान की प्राप्ति हो सकेगी। आप बच्चों को भी यदि संस्कारित करना चाहते हो तो उन्हें ज्ञान का सही मार्ग दिखाने का उपक्रम करें। -४ अक्टूबर २०१६, भोपाल
  19. पहले की शिक्षा में तीन चरणों में परीक्षा के माध्यम से विद्यार्थी की योग्यता का मापन किया जाता था; फिर अगली कक्षा में जाने के लिए भी एक परीक्षा होती थी ताकि सरलता से उसे प्रवेश की पात्रता मिल जाए। आज सेमेस्टर सिस्टम के माध्यम से हर ६ माह में पाठ्यक्रम की परीक्षा होती है। ये अव्यावहारिक तरीका है क्योंकि वह ६ माह में पुनरावलोकन उस पाठ्यक्रम का नहीं कर पाता है और उसकी पढ़ाई की धारा भी टूट जाती है। जिससे उसका मनोबल टूटता है। इस शिक्षा नीति का कुछ लोग विरोध भी करते हैं क्योंकि ये प्रणाली प्रासंगिक नहीं है। इसमें अभिभावक और विद्यार्थी भी संतुष्ट नहीं है, परन्तु उनकी आवाज सुनने वाला कोई नहीं है क्योंकि शिक्षा का व्यवसायीकरण होता जा रहा है। आज शिक्षा के नाम पर जो छल किये जा रहे हैं वो हमारी संस्कृति पर कुठाराघात है और ये सब सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है। गोधूलि बेला में गाय-भैंस लौटकर आ जाते हैं फिर वो जुगाली करते हैं जिससे अंदर सार-तत्व बनते हैं जिससे दूध बनता है। आपके लिए भी कुछ सिद्धान्त बनाए गए हैं जो आपके ज्ञान को विकसित करने में सहायक सिद्ध होते हैं, आप जिनवाणी बगल में नहीं सामने रखोगे तभी ज्ञान की प्राप्ति हो सकेगी। आप बच्चों को भी यदि संस्कारित करना चाहते हो तो उन्हें ज्ञान का सही मार्ग दिखाने का उपक्रम करें। -४ अक्टूबर २०१६, भोपाल
  20. आज विदेशी भाषा हावी होती जा रही है अपनी राष्ट्रभाषा को पीछे धकेल दिया है। अंग्रेजी को जानने वाले गिनती के हैं परन्तु उसे ही हर काम में इस्तेमाल किया जा रहा है। न्याय के क्षेत्र में भी इस भाषा के कारण जनता को परेशानी हो रही है। भारत को अपनी भाषा के प्रति गंभीर होना पड़ेगा तभी हम सही न्याय कर पाएँगे। राष्ट्र की सभी स्थानीय भाषाओं का उपयोग अंग्रेजी के स्थान पर होना चाहिए। मध्यप्रदेश हिन्दी को मजबूत करने के लिए तत्पर है परन्तु सम्पूर्ण भारत में इसके लिए अभियान चलाना चाहिए। -२ अक्टूबर २०१६, भोपाल
  21. शिक्षा हमेशा कर्म की होती है जबकि आज शिक्षाकर्मी की शिक्षा चल रही है। भारत की मर्यादा खेती बाडी, साड़ी है। शिक्षा ऐसी हो जो भारतीय संस्कृति के आधार पर होना चाहिए परन्तु बिना सींग और पूँछ की शिक्षा चल रही है। बड़े-बड़े स्नातक आज बेरोजगार घूम रहे हैं, अनेक इंजीनियर कर्जे से दबे हुए हैं, उन्हें ऋणी बना दिया है। विश्व बैंक के कर्जे से भारत की बैंक भी दब रही है। आर्थिक गुलामी के दौर से भारत गुजर रहा है। शिक्षा लेकर-आप अपना अच्छा कर्म करें/ पुरुषार्थ करें। सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी माँ को पत्र लिखा था कि माँ मुझे बाबू नहीं बनना बल्कि अपने पैरों पर स्वाभिमान से खड़े होना है। भारत के बिना विश्व भी खड़ा नहीं रह सकता है। इस पर जरा विचार करो और भारत की नब्ज पहचानो। बाबू बनने के चक्कर में कर्म से दूर हो रहे हैं देश के युवा। श्रम रहित समाज गुलामी की मानसिकता का प्रतीक बन जाता है। -२ अक्टूबर २०१६, भोपाल
  22. शिक्षा हमेशा कर्म की होती है जबकि आज शिक्षाकर्मी की शिक्षा चल रही है। भारत की मर्यादा खेती बाडी, साड़ी है। शिक्षा ऐसी हो जो भारतीय संस्कृति के आधार पर होना चाहिए परन्तु बिना सींग और पूँछ की शिक्षा चल रही है। बड़े-बड़े स्नातक आज बेरोजगार घूम रहे हैं, अनेक इंजीनियर कर्जे से दबे हुए हैं, उन्हें ऋणी बना दिया है। विश्व बैंक के कर्जे से भारत की बैंक भी दब रही है। आर्थिक गुलामी के दौर से भारत गुजर रहा है। शिक्षा लेकर-आप अपना अच्छा कर्म करें/ पुरुषार्थ करें। सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी माँ को पत्र लिखा था कि माँ मुझे बाबू नहीं बनना बल्कि अपने पैरों पर स्वाभिमान से खड़े होना है। भारत के बिना विश्व भी खड़ा नहीं रह सकता है। इस पर जरा विचार करो और भारत की नब्ज पहचानो। बाबू बनने के चक्कर में कर्म से दूर हो रहे हैं देश के युवा। श्रम रहित समाज गुलामी की मानसिकता का प्रतीक बन जाता है। -२ अक्टूबर २०१६, भोपाल
  23. आज उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हम दुनिया में बहुत पिछड़ गए हैं क्योंकि उन्नति के लिए शिक्षा में जिन नीतियों की जरूरत है हमने उन्हें गौण कर दिया है। भारत में पहले जो विश्वविद्यालय थे आज उनका नितांत अभाव हो गया है। आज अविभावकों को ये गलत धारणा हो गई है कि इतिहास पढ़ने से विकास नहीं होगा, लेकिन विद्वान् वर्ग का कहना है कि इतिहास पढ़ने से ही विद्यार्थी को सही ज्ञान मिलता है। संकेतों के पालन में केवल आँख और कान ही प्रभावी नहीं होते बल्कि विवेक भी महत्वपूर्ण होता है। परीक्षा के द्वारा ही मूल्यांकन नहीं होता, बल्कि गुणवत्ता के आधार पर भी मूल्यांकन होता है। आँखों से हर कार्य पूर्ण नहीं होता, बल्कि ज्ञान चक्षु भी जरूरी है। आज बच्चों की शिक्षा के साथ-साथ खानपान का भी बहुत महत्व है। शुद्ध आहार, शुद्ध पेय उनकी बुद्धि के विकास के लिए आवश्यक है। सत्य कभी-कभी कटु लगता है और सफेद झूठ हो सकता है तो भी सत्य तो बोलना परम आवश्यक है। आज मार्क (अंक) की तरफ ध्यान न दें बल्कि ज्ञान की तरफ ध्यान दें। पूरक परीक्षा ने विद्यार्थियों को कमजोर बना दिया है इसलिए पूरक की नीति बदलना चाहिए। आज किसी बात को जैसे से नहीं बल्कि जो है; वही सत्य है कहकर पुख्ता करना चाहिए। क्रमिक विकास की शिक्षा नीति चल रही है। लघु शोध प्रबंध का कार्य किया जा रहा है। लघु से गुरु बनने के लिए अपनी योग्यता और अनुभव को सुदृढ़ बनाना होगा। चिंता माथे पर रखोगे तो कैसर होगा और छाती पर रखोगे तो गर्व से छाती फूल जाएगी। आज पराश्रित शिक्षा हो गई है जो स्वाश्रित होना चाहिए। नव सृजन कर्ता बनाने की जरूरत है। श्रम रहित शिक्षा नहीं बल्कि श्रम सहित शिक्षा होनी चाहिए। नीति-न्याय का अभाव शिक्षा में नहीं होना चाहिए। जैसे परखी से गेंहू की जाँच सब तरफ से की जाती है वैसे ही शिक्षा में भी ज्ञान की परखी की जरूरत है, तभी भारत को शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी बनाया जा सकता है। शब्दों में ध्वनि हो सकती है, वजन हो सकता है, परन्तु 'विजन' तो ज्ञान में होना चाहिए। आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ आत्म-तत्व को जानने की जो शिक्षा महापुरुषों ने दी है वो भी अनिवार्य होना चाहिए। भारतीय दर्शन को जानना भी नितांत आवश्यक होना चाहिए। जलप्रबंधन के मामले में भी भारत बहुत पिछड़ गया है। इस दिशा में भी ठोस कार्य होना चाहिए। पहले भारत से दूध, दही, घी का निर्यात होता था, आज क्या हो रहा है; ये सोचना जरूरी है। हमें उजाले का चिंतन करना है। -२ अक्टूबर २०१६, भोपाल
  24. आज अपने बच्चों को हमें स्वयं ही सही शिक्षा का ज्ञान कराने की जरूरत है, क्योंकि यदि भारत का भविष्य उज्ज्वल और सुरक्षित बनाना है तो संस्कारों की मजबूत नींव तो हम सब को मिलकर ही डालनी होगी। शिक्षा प्रणाली का जो व्यवसायीकरण हो रहा है वो भविष्य के लिए अच्छे परिणाम नहीं दे सकता। अच्छे और लुभावने विज्ञापन देकर शिक्षा संस्थाएँ अच्छी शिक्षा का ढिंढोरा पीटती हैं, वो दूर के ढोल सुहावने सिद्ध होते हैं। शिक्षा और दीक्षा ये दोनों बहुत महत्वपूर्ण बिंदु होते हैं। इनमें किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं होना चाहिए। हम अपने बच्चों को स्वयं ही जहर देने का काम आँख मूँदकर कर रहे हैं और उनके स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। विद्यार्थियों को जब तक शुद्ध आहार नहीं मिलेगा उनका शारीरिक और मानसिक विकास सम्भव नहीं है। हम से अधिक विवेक तो मूक प्राणियों में होता है जो सोच समझकर सामग्री को खाते-पीते हैं। अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे लोग भी इस दिशा में अज्ञानी बने हुए हैं। कुएं और नदी का शुद्ध जल छोड़कर बंद बोतल का तत्व रहित जल पीने के आदी स्वयं भी बने हैं और बच्चों को भी बना रहे हैं। ये कौन-से पढ़े लिखे होने की निशानी है? जिसे आप बिसलरी (शुद्ध पानी) बता रहे हैं वो धीमे विष का काम कर रहा है क्योंकि उसमें जरूरी तत्वों का अभाव है। प्रासुक और छने जल को रोग का कारण बताया जा रहा है और तत्व रहित जल को पीने की सलाह खुद चिकित्सकों द्वारा दी जा रही है। मेरे द्वारा किये गए इन जटिल प्रश्नों का हल आपको स्वयं ही खोजना होगा तभी रोग रहित और योग सहित स्वस्थ भारत और सशक्त समाज के निर्माण की दिशा में आप सार्थक कदम बढ़ा सकेगे। सरकार की तरफ टकटकी लगाकर देखने की अपेक्षा आप स्वयं ही सरकार बनकर सामाजिक तानेबाने को दुरुस्त करने का उपक्रम प्रारम्भ करें। -२१ सितम्बर २०१६, बुधवार, भोपाल
  25. गुरुकुल परंपरा भारत की मूल संस्कृति का एक हिस्सा रहा है और पुन: इस संस्कृति को जागृत करने के लिए मंगल दीप प्रज्ज्वलित करने की आवश्यकता है। सूरज आसमान में है और नीचे टिमटिमाता दीपक है। बहुत सारे विचारों को सपनों को / साकार करने के लिए पुरुषार्थ रूपी दीपक जला दिया जाए, तो सूरज की तरह तेज उत्पन्न हो सकता है। प्रकृति में गति पुरुष के माध्यम से आती है। प्रकृति को खिलौना समझकर उससे खेलने का उपक्रम किया जा रहा है जिसके दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। हम तोते की तरह रटने का प्रयास कर रहे हैं जबकि ज्ञान रटने से नहीं बल्कि अध्ययन से जागृत होता है। हम अपनी भूलों को भूलकर यदि सही उपक्रम की ओर दृष्टि करेंगे तो सही दिशा की ओर अग्रसर हो सकेंगे। भारत तो भारत के रूप में विद्यमान है, उसे उसके वास्तविक स्वरूप में उद्घाटित करने की आवश्यकता है। अपने विचारों को संयोजित करके हम आपदा-विपदाओं से मुक्त हो सकते हैं, लेकिन श्रम के अभाव में ऐसा नहीं हो पा रहा है। हम श्रमिक न बनकर आलस्य का पुतला बने रहे तो रुग्णता को प्राप्त होते चले जाएँगे। भारत एक ऐसा वट वृक्ष है जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं, परन्तु विदेशी संस्कृति के रोपण से इस वृक्ष की सूरत हमने बिगाड़ ली है। आज प्राचीन भारत की कृषि लुप्त प्राय: हो रही है क्योंकि विदेशी यूरिया ने उर्वरा शक्ति को कमजोर बना दिया है। अलंकार आभूषण रहित और नवरंग विहीन संस्कृति हमने बना ली है, हम विदेशी नकल के आदी बनते जा रहे हैं। हम जो बोल रहे हैं वह लय विहीन होता जा रहा है। भावना बनाकर और विश्वास को सुदृढ़ बनाकर हम पुन: प्राचीन वैभव को प्राप्त कर सकते हैं। बस, अंतिम पंक्ति के व्यक्ति तक हमें इस विचार को पहुँचाने की जरूरत है। -२o सितम्बर २०१६, मंगलवार, भोपाल
×
×
  • Create New...