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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. किसी भी मार्ग में बढ़ने के पूर्व उस मार्ग की व्यवस्था को पहले समझना जरूरी होता है। अभिभावकों को ये समझना जरूरी है कि उनके बच्चे शिक्षा में किस मार्ग का अनुशरण कर रहे हैं, फिर उस मार्ग के बारे में जानकर बच्चों को सही दिशा प्रदान करें। शारीरिक और मानसिक चिकित्सा बच्चों की तभी होगी जब अभिभावक स्वस्थ मानसिकता से सही मार्ग का अनुशरण उन्हें करवाएँगे। आप के मन में श्रम करने के भाव जागृत होंगे, तभी आपके बच्चे श्रम का महत्व समझ पाएँगे। आप जैसी जीवन पद्धति बच्चों को बताएँगे वो वैसी ही जीवनचर्या अपनाते जाएँगे। जैसी नीति निर्धारण करेंगे वैसे ही परिणाम आपके विद्यार्थी, बच्चे भविष्य में आपको देंगे। तना मजबूत रहता है तो डालियाँ भी मजबूत रहती हैं और फिर अच्छे फल उसमें लगते हैं और छाया भी वे पेड़ अच्छी देते हैं। जिन्दगी केवल काटने के लिए ही नहीं होती बल्कि जिन्दगी तो बनाने के लिए होती है क्योंकि ‘काटना' हमारी संस्कृति नहीं है बल्कि ‘बनाना' हमारी संस्कृति है। भाषा का सही उपयोग ही आपकी और आपके परिवार की खुशहाली का कारण बनता है, इसलिए बोलते समय सावधानी अवश्य रखें। आपके परिवार का विद्याथी जब संस्कारित होकर शिक्षा ग्रहण करेगा तो वो समाज को भी और राष्ट्र को भी सही दिशा की ओर अग्रसर कर सकेगा। -१९ सितम्बर २०१६, सोमवार, भोपाल
  2. एक बार में कोई भिखारी से अमीर नहीं बनता बल्कि धीरे-धीरे काम बनते हैं और प्रयासों से बनते हैं। भूमिका बनाने की आवश्यकता है, चिंतन की आवश्यकता है और उसके साथ ही अपने आदशों को जीवन के सामने रखने से काम में जल्दी सफलता मिलती है। महापुरुषों ने सभी तूफानों, बाढ़ों और वेगों में अपने पुरुषार्थ से सामना करके उन्हें दरकिनार किया है। जो आदर्शवादी जीवन हमारे पूर्वजों ने जिया है वही हमें संघर्षों के लिए प्रेरित करता है। उनके अनुभव, सूझबूझ, संकल्प, दृढ़ता; उनकी अनुपस्थिति में भी हमारे काम आ रही है, उनके विचार, उनके द्वारा बताए गए संकेत और सूचनाएँ हमारे लिए पथ-प्रदर्शक का काम कर रही हैं। सावधानी पूर्वक चलते जाएँ वातावरण आपके अनुकूल स्वयं ही निर्मित होता जाएगा। अच्छे मार्ग का अनुकरण करने पर ही मंजिल को पाया जा सकता है। जो प्रवाह है, परम्परा है उसकी गति रुकनी नहीं चाहिए निरन्तर चलायमान रहें पीछे लौटने का या बदलने का उपक्रम न करें। -१ सितम्बर २०१६, भोपाल प्रवचन
  3. जो रहीस का बच्चा होता है वो रहीसी के साथ पढ़ाई करता है। पड़ोस का बच्चा साधारण परिवार का था वो भी पढ़ाई करता था, उसके पास कोई विशेष सुविधा उपलब्ध नहीं थी। बल्कि वह सरकारी बिजली के खम्बे की टिमटिमाती रोशनी में पढ़ाई करता था। जब परीक्षा का परिणाम आता है तो रईस बच्चा कमजोर परिणाम लाता है और गरीब बच्चा शतप्रतिशत परिणाम लाता है। आज लगभग भारत की यही स्थिति है। बिना श्रम के अच्छे परिणाम की कल्पना की जा रही है जबकि अच्छे परिणाम के लिए श्रम और पुरुषार्थ की सबसे ज्यादा महत्ता है। सही दिशा में पसीना बहाते जाओ क्योंकि पसीना न बहे तो अस्पताल जाना पड़ता है। पसीना बहाने से स्वास्थ्य और मन दोनों अच्छे रहते हैं। अपने जीवन में प्रयोग प्रारम्भ कर दें, प्रमाद न करें और कार्य का लक्ष्य और गति निर्धारित कर आगे बढ़ने का क्रम शुरु करें। विवेक पूर्ण निर्णय लें क्योंकि विवेक से ही सार्थक फल की प्राप्ति होती है। आज विवेक की बहुत कमी होती जा रही है क्योंकि वर्तमान शिक्षा में विवेक सिखाया ही नहीं जाता। स्पर्धा से नहीं बल्कि साफ मन से परीक्षा उत्तीर्ण करने का प्रयास करें, कोई सिफारिश न करें-न करवायें, कोई माँग न करें, बस, अपने उत्कृष्ट कार्य करने का पुरुषार्थ करें। मन का काम न करना बल्कि मन से काम लेना; यही विवेकवान होने का प्रमाण है। काम को रोकने से काम नहीं रुकता बल्कि मन को रोकने से काम होता है, अपने अनुसार मन को चलाओ, मन के अनुसार मत चलो। मन को कर्मचारी बनाओ, उसे अपने नियंत्रण में रखो। उसे अपने ऊपर हावी मत होने दो। मन का काम नहीं करना बल्कि मन से काम लेना। ये बात कौन सिखाए? माँबाप तो स्कूल में डाल देने के बाद निश्चिन्त हो जाते हैं और स्कूल वाले धन के सहारे हैं। बच्चा मन से काम लेने लगेगा, तो धन कहाँ से आएगा? विचार करो ये शिक्षा पद्धति क्या है? -३० अगस्त २०१६, भोपाल
  4. मनुष्य जन्म सद्कर्मों से मिला है। इसे केवल खाने-पीने में दुरुपयोग मत करो। मानव जन्म को सार्थक करना है तो आत्मा की लब्धियों को पहचानो और पुरुषार्थ कर परमात्मा बनने का प्रयत्न करो। योग्यता को प्राप्त करना गुणों पर आधारित है, लेकिन योग्यता का उपयोग करना पुरुषार्थ पर आधारित है। जैसे करंट होने के बाद भी यदि बल्व जलाने का पुरुषार्थ न किया जाए तो अँधेरा ही रहेगा। इसी प्रकार आपकी आत्मा में कई लब्धियाँ हैं, लेकिन उन्हें प्रकट करने का पुरुषार्थ तो आपको ही करना होगा। मनुष्य जीवन आसान नहीं है। इसे खाने-पीने में गाँवाना अज्ञानता है। एक इन्द्रिय जीव भी अपनी क्षमता अनुसार पुरुषार्थ करता है और पंच इन्द्रिय मनुष्य सारी क्षमता होने के बाद भी आलस्य कर जाता है। यह जीवन के प्रति अपराध है। अन्दर की आवाज को सुनना है और अनुभूति करना है तो बाहर की दुनिया से सम्पर्क विच्छेद करना होगा। हम अपनी ‘पॉजीटिव एनर्जी' का कितना उपयोग आत्म कल्याण में कर रहे हैं, यह शोध का विषय हो सकता है। आत्मा की कई लब्धियाँ उपयोग करने से उद्घाटित होती हैं। आज विज्ञान अपनी योग्यताओं का दुरुपयोग करने लगा है जिससे मानव जीवन के लिए ही नहीं वरन् सम्पूर्ण जीवन चक्र के लिए वह खतरनाक सिद्ध हो रहा है। महाप्रलय का महाप्रयोग बंद किया जाना चाहिए। महाप्रलय तो आना है-आयेगा जिसमें निमित्त मनुष्य के कर्म ही बनेंगे। अब तो आत्मशक्तियों को जागृत करने का महाप्रयोग प्रारम्भ किया जाना चाहिए। -२२ अगस्त २०१६, भोपाल
  5. जो राष्ट्र अपनी मातृभाषा से किनारा करके अन्य भाषा के इस्तेमाल में लगते हैं वो अपनी पहचान खोने लग जाते हैं। ईस्ट इण्डिया कम्पनी देश छोड़कर गई परन्तु विरासत में 'इण्डिया' थोप गई। जिसे हम अभी तक ढोते चले आ रहे हैं। अंग्रेजी की सहायक भाषा के रूप में उपयोग करना अलग बात है, परन्तु उसे जबरदस्ती थोपना गलत है। भारत में शिक्षा हिन्दी माध्यम से अनिवार्य होना चाहिए तभी तस्वीर बदल सकती है। हमारी गुरुकुल परम्परा को भी क्षति पहुँचाई जा रही है। जो तक्षशिला में बड़ा केन्द्र था शिक्षा का, आज वो कहाँ है? सारी दुनिया के लोग शिक्षा ग्रहण करने के लिए भारत आने के लिए लालायित रहते थे और आज भारत के लोग विदेशों में पढ़ने जा रहे हैं-कौन-सी शिक्षा लेने जा रहे हैं? आज हमने 'इण्डिया' को विकास के नाम पर जबरदस्ती ओढ़ रखा है और भारत के मूल स्वरूप और संस्कृति को काफी पीछे धकेल दिया है। आज हम हस्ताक्षर भी अंग्रेजी में करने में अपनी शान समझते हैं, जबकि विकसित राष्ट्र अपनी मूल भाषा में ही सारा काम करते हैं। हमें संकल्पित होकर अपनी मूल भाषा में ही सारे कार्य करना चाहिए। आज विडंबना ये है कि हमारे राष्ट्र के योग्य वैज्ञानिक, तकनीशियन विदेशों में जाकर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं जिनकी राष्ट्र को आज जरूरत है। प्रबंधन के क्षेत्र में हम सबसे आगे थे परन्तु हमारी योग्यता की शक्ति प्रोत्साहन के अभाव में भारत में काम न करके विदेशों में काम कर रही है जिसके कारण प्रबंधन में भी हम पिछड़ रहे हैं। भारतीय अर्थशास्त्री कहें या भारतीय बुद्धि कहें सबसे अधिक योग्य है इसलिए मंदी का बहुत ज्यादा प्रभाव भारत पर नहीं पड़ा क्योंकि यहाँ सब अभी भी ठीक संचालित है। निर्यात नीति में भी सुधार की आवश्यकता है क्योंकि पहले निर्यात संतुलित था, आज असंतुलन के कारण परेशानी हो रही है। आज स्वदेशी जागरण की भी सबसे ज्यादा जरूरत है। सारे भारतीय आज कलाओं से परिपूर्ण हैं। अर्थ से, परमार्थ से, हर स्थिति में श्रेष्ठ हैं। जरूरत है उन्हें एक सूत्र में पिरोने की, उन्हें उचित मौका प्रदान करने की। मध्यप्रदेश में हरेक क्षेत्र में अंग्रेजी की जगह हिन्दी में कार्य करने की कोशिश सरकार के द्वारा की जा रही है जो सराहनीय है। आज के दिन हर देशवासियों को संकल्प लेना चाहिए कि अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग नहीं सदुपयोग करेंगे और अपनी राष्ट्रभाषा को मजबूत करने की दिशा में कार्य करेंगे। स्वावलंबी बनने के लिए हथकरघा जैसे उपक्रमों को अधिक से अधिक प्रारम्भ करने का प्रयास करेंगे। 'इण्डिया' नहीं 'भारत' नाम लिखेंगे, बोलेंगे, बताएँगे और अपने हस्ताक्षर भी हिन्दी में करेंगे। आज की शिक्षा में भारतीयता के तत्व तो गायब ही हो गए हैं। प्राचीन साहित्य को उठाकर के देखें तो उसमें आपको बच्चों के सवांगीण विकास के बहुत सारे सूत्र मिल जाएँगे। एक किताब पढ़ी थी 'निद्रा आवश्यक है, किन्तु अनिवार्य नहीं’ मतलब विज्ञान ने भी इस विषय पर शोध-विचार किया है और आप लोग निद्रा को अनिवार्य समझते हैं। बच्चों के लिए कुछ अनिवार्य नहीं, समझदार के लिए अनिवार्य नहीं, किन्तु उसका नियंत्रण आवश्यक है। आवश्यक इसलिए है कि आप लोग शारीरिक और मानसिक क्रियाओं पर नियंत्रण खो बैठे हैं। उसकी थकान को मिटाने के लिए वह आवश्यक हो गयी है, किन्तु समय पर आप सोयें, समय पर उठे, यही तो भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है। इसी से आपका मानसिक, वाचनिक और कायिक स्वास्थ्य ठीक रह सकता है। सूर्य अस्त होने के तत्काल बाद न सोयें किन्तु ९ बजे के उपरान्त सो सकते हैं और सूर्योदय के पहले अवश्य ही उठ जाएँ। जो ऐसा नहीं करते, सोने और उठने के समय में गड़बड़ करते हैं तो वे दिनभर ऊँघते रहते हैं, उनको आलस बना रहता है; तो फिर किसी कार्य में मन नहीं लगता। कार्य बिगड़ने लगते हैं और डॉट पड़ने लगती है। हमें बच्चों को शरीर के प्रति सावधान करना होगा। शरीर के महत्व को समझाना होगा। भारतीय संस्कृति में 'शरीरमाद्य खलु धर्म साधनम्' कहा गया है। शरीर यदि स्वस्थ है तो व्यक्ति अपना और दूसरों का हित साधन कर सकता है। शरीर की स्वस्थता खाने-पीने से सम्बन्धित है। बच्चों को इससे सम्बन्धित शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें क्या खाना कहाँ नहीं? यद्वा-तद्वा खाने से ही बीमारियाँ होती हैं। अंग्रेजी में 'ब्रेकफास्ट' शब्द आता है, 'फास्ट' का मतलब उपवास और उस पर 'ब्रेक' लगाना ये 'ब्रेकफास्ट' कहलाता है और यह 'ब्रेकफास्ट' सुबह किया जाता है। इसका मतलब रात्रि में उपवास था उस पर 'ब्रेक' लगाना। अब तो विज्ञान भी रात्रि में खाने के लिए मना कर रहा है, क्योंकि रात्रि में पाचक-रस नहीं बनता। तो जो ‘ लीवर' है वह खराब हो जाता है। इसलिए इसकी जानकारी भी बच्चों को दी जानी चाहिए, जिससे वे अपने शरीर पर नियंत्रण कर सकें। कोई भी वस्तु अभिशाप नहीं होती। यदि हमारे पास साधना है और हम सही दिशा में काम करें तो हर क्षण वरदान सिद्ध हो सकता है, लेकिन खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आज कोई भी उपयोगी शिक्षा नहीं दी जा रही है। डिग्रियाँ तो दी जा रहीं हैं, लेकिन उससे कुछ काम नहीं हो रहा है। विद्याथी दर-दर भटक रहे हैं। प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली को उठा कर देखें, जिसके द्वारा स्वयं के जीवन का और पर के लिए भी वह शिक्षा उपयोगी बनती थी। वह शिक्षा मात्र जीवनयापन के लिए नहीं जीवन उन्नत करने के लिए हुआ करती थी। कोई भी व्यक्ति इस बात को नहीं नकार सकता कि भारत उन्नत नहीं था। भारत पूरे विश्व में सबसे अधिक उत्पादन व निर्यात करने वाला देश था। उत्तम से उत्तम गुणवत्ता वाली वस्तुएँ इस देश में हुआ करती थीं। इतिहास पढ़ने की आवश्यकता है। उसके बल पर ही आप ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं,कर सकते हैं। वरना आपका पतन निश्चित है। धर्मपाल जी ने जो इतिहास भारत का लिखा है; वो भी ३० वर्ष तक अथक परिश्रम करके, उन्होंने विश्व के प्राय: राष्ट्रों में घूम-घूम कर भारत से सम्बन्धित जो भी प्रमाण मिले, दस्तावेज मिले; उनका अध्ययन करके, अनुसंधान करके लिखा है। पढ़कर के आपकी आँखें खुल जाएँगी। १८वीं शताब्दी में भारत कितना विकसित था; आपको अंदाज लग जाएगा और गर्व से मस्तक ऊँचा हो जाएगा। उस इतिहास को मिटाने के लिए परतंत्रता लाई गई थी और यहाँ से सारी टेक्नॉलॉजी, विज्ञान, अनुसंधान विदेश ले गए और वहाँ जाकर नए ताने-बाने में प्रस्तुत करके लिख दिया 'मेड इन यू एस ए', 'मेड इन चाईना', 'मेड इन इंग्लैण्ड' आदि आदि लिखा जाने लगा। आज भी हो क्या रहा है? आप देख लीजिए भारत के वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, एम. बी. ए. पढ़ लिखकर विदेशों में काम कर रहे हैं और लिख रहे हैं 'मेड इन यू एस ए।' परतंत्रता के कारण उन्होंने जो पट्टी पढ़ाई हम वैसे ही मानने लग गए। स्वतंत्र होने के बावजूद भी ७० वर्ष निकल गए। अभी भी हम उनके ही पिछलग्गूबने हुए हैं और उनकी ही दृष्टि से, उनकी भाषा से ही सोच रहे हैं, उनकी स्थिति, परिस्थिति के अनुसार शिक्षा दे रहे हैं, ले रहे हैं और कह रहे हैं वो श्रेष्ठ हैं। ये धारणा आप लोगों की गलत है। हम आपके सामने एक उदाहरण रखते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि अमेरिका मेनेजमैंट में अग्रणी है, ये आप लोगों की धारणा हो सकती है। पर मैं आप लोगों से पूछना चाहता हूँ अमेरिका में अभी कुछ वर्षों पूर्व घटना घटी कि २00-२५o वर्ष पुराने बैंक जो अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ बैंक माने जाते थे। मंदी के कारण उनका प्रबंधन गड़बड़ा गया। अमेरिका ने पूरी ताकत लगा दी उन्हें बचाने की फिर भी वे बैंक ताश के पते की तरह धराशायी हो गए। संभवत: ये २oo८ की बात है और एक दो नहीं कई बैंक थे, दिवालिया निकल गया उनका। अमेरिका इतना अग्रणी है मेंनेजमेंट में फिर क्यों दिवालिया निकल गया? कैसा मेनेजमैंट? अंततोगत्वा वहाँ की सरकार ने जो बैंकों का बोर्ड था उसमें भारतीय अर्थशास्त्री को रखने की बात कही। उसी समय की बात है पूरे विश्व में जबरदस्त मंदी का प्रभाव पड़ा किन्तु भारत के ऊपर कुछ भी नहीं पड़ा। इससे आप स्वयं समझ सकते हैं कि प्रबंधन में कौन तगड़ा है? ध्यान रखना भारत में सुमेरु है। वह किसी तूफान से हिलने वाला नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती का कारण है कि हमारे पूर्वज घुट्टी में पिलाकर के गए हैं कि कल की चिन्ता करो।'बीज राख फल भोगवै, ज्यों किसान जग मांहि ।' बचत के बिना जीवन बचता नहीं है और आज भारत का किसान रो रहा है क्योंकि विदेशी प्रबंधन के माध्यम से भारत सरकार चल रही है। हमें अपनी स्थिति-परिस्थिति को देखते हुए प्रबंधन की कला सीखनी होगी। उसी नीति के अनुसार चलना होगा। अपनी कुटिया में भी प्रबंधन है और महाप्रासादों में भी प्रबंधन है। दूसरों की ओर देखने की आवश्यकता ही क्या है? आपको विदेशी भाषा, विदेशी शिक्षा, विदेशी जीवन पद्धति, विदेशी संस्कृति को छोड़कर अपनी चीज को आत्मीयता से स्वीकार करना होगा। अपना स्वाभिमान जागृत करें और इतिहास के पन्नों को खोलें, उसे पढ़े बिना आप हीन भावना से भरे रहेंगे और विदेशी चीज आपको अच्छी लगती रहेगी और अपनी पीढ़ियों को भी आप विदेशी चीजों को सर्वश्रेष्ठ बताते रहेंगे तो वो पीढ़ी भी उसी मार्ग पर चल पढ़ेगी। अभी तो ७0 साल ही निकले हैं फिर ७00 साल भी निकल जाएँगे तो भी भारत देश का भला नहीं हो पाएगा। वहीं आप सब को और देश के नेताओं को कहना चाहता हूँ कि आप सभी अपनी-अपनी भूमिकाओं को समझे और देश को सोने की चिड़िया बनाने का पुरुषार्थ करें और इसके लिए सर्वप्रथम शिक्षा की नीति में परिवर्तन करें भले मेरे कहने पर न करें, कोई बात नहीं। इस विषय पर आप शोध करें। वैसे भी शोध बहुत हो चुके हैं, उसी आधार से हम बोल रहे हैं। जब अमेरिका ने कहा भारत के अर्थशास्त्री सर्वोत्तम हैं और उन्हें स्वीकार कर लिया फिर भी आप लोगों की बब्बा के ऊपर विश्वास नहीं। इतिहास को हम बब्बा और दद्दा कहते हैं, क्योंकि उन्हीं के कार्यकाल में वह लिखा गया है। आप लोगों से सिर्फ इतना कहना है कि जापान और चीन से प्रेरणा लें, ऐसे ही और भी कई देश हैं जिन्होंने स्वतंत्रता के बाद अपने देश की संस्कृति को बचाने के लिए अपनी भाषा के स्वाभिमान को जीवित किया है। ऐसा ही एक छोटा-सा देश इजराईल है। जो नईदिल्ली के बराबर भी नहीं है। वह जब स्वतंत्र हुआ तो उसने अपनी भाषा हिब्र भाषा में सभी कार्यक्रम शुरु कर दिए। चाहे पढ़ाई का क्षेत्र हो, चाहे चिकित्सा का क्षेत्र हो, चाहे प्रबंधन का क्षेत्र हो, चाहे कृषि विज्ञान का क्षेत्र हो या हो न्याय का क्षेत्र हो; सभी की पढ़ाई से सम्बन्धित पुस्तकें हिब्र भाषा में अनुवादित कीं। भारतीयो जागो, जागी। आप लोगों के पास इतनी भाषाएँ हैं। क्या आप लोग इन विषयों को अनूदित नहीं कर सकते? मात्र संकल्प लेने की जरूरत है और संकल्प के लिए श्रद्धान की, गौरव की, स्वाभिमान की आवश्यकता है और ये सब आपके पास नहीं हैं; ऐसा मैं नहीं मानता, क्योंकि परम्परा से आप सबको वह मिला है। आपके रक्तप्रवाह में वह जीवित है। हमारे रक्त में राम, महावीर, ऋषभदेव, पाण्डव आदि के संस्कार विद्यमान हैं। जीवन बहुत छोटा है। परिवर्तन की दिशा में कदम बढ़ाना आज ही प्रारम्भ कर दी। हमने जो कुछ भी कहा है वह अपनी तरफ से एक शब्द नहीं कहा। इतिहास के पन्ने पलटाए हैं वह जो आदर्श किताब है; जिसे धनपाल जी ने लिखा है ‘सोने की चिड़िया भारत'। इस पुस्तक को सब लोग पढ़ें। -१५ अगस्त २०१६, भोपाल
  6. परम श्रद्धेय गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के अनेक रूपों में दर्शन होते हैं जब प्रज्ञाचक्षु उन्हें किसी भी अवस्था में देखते हैं तो वे मुनि, आचार्य, उपाध्याय, निर्यापकाचार्य, अभीक्षणज्ञानोपयोगी, आगमनिष्ठ, श्रेष्ठचर्यापालक, साधना की कसौटी, श्रमणसंस्कृति उन्नायक, ध्यानयोगी, आत्मवेत्ता-आध्यात्मिक संत, निस्पृही साधु, दार्शनिक कवि, साहित्यकार, महाकवि, बहुभाषाविद्, भारतीय भाषाओं के पैरोकार, भारतीय संस्कृति के पुरोधा महापुरुष, युगदृष्टा, युगप्रवर्तक, राष्ट्रीय चिंतक, शिक्षाविद्, सर्वोदयी संत, नवपीढ़ी प्रणेता, अपराजेय साधक आदि के रूप में पाते हैं। सन् १९६८ अजमेर नगर (राज.) में महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी मुनिराज से दिगम्बर मुनि दीक्षा लेकर आज तक २८ मूलगुणात्मक कठोर व्रतों का पालन कर मुनित्व को सार्थक कर रहे हैं। २२ नवम्बर १९७२ को नसीराबाद (राज.) में आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी मुनि महाराज ने आपकी योग्यता को देखते हुए अपना आचार्यपद देकर उन्हें ही अपना आचार्य बना लिया और स्वयं शिष्य बन गए। ऐसे महान् आचार्य आज तक ३६ मूलगुणों का पालन करते हुए १२o मुनि, १७२ आर्यिका (साध्वी), ५६ ऐलक (साधक), ६४ क्षुल्लक (साधक), ३ क्षुल्लिका (साध्वी) को दीक्षा देकर एवं ५00 से अधिक ब्रह्मचारीब्रह्मचारिणियों को साधना के सोपानों पर आरूढ़ कर आचार्यत्व से शोभायमान हो रहे हैं। सम्पूर्ण आगम के अध्येता एवं शिष्यों को सतत् अध्यापन कराते रहने के कारण उपाध्याय परमेष्ठी का सच्चा स्वरूप दर्शक आप में ही पाते हैं। सन् १ जून १९७३ नसीराबाद (राज.) में आपने अपने गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की आगमयुक्त सल्लेखना समाधि के साथ-साथ मुनि श्री पार्श्वसागर जी की आकस्मिक समाधि कराई उसके बाद से आज तक 30 से अधिक मुमुक्षु साधकों ने आपके कुशल निर्यापकाचार्यत्व में I समाधि धारण कर मृत्यु महोत्सव मनाकर सिद्ध कर दिया कि सल्लेखना आत्मघात नहीं है। बचपन से ही सत्संग से जागृत ज्ञान की पिपासा आज तक अतृप्त है। यही कारण है कि आपको हमेशा सरस्वती की आराधना करते हुए देख विद्वत् वर्ग आप जैसे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी से सम्यग्ज्ञान के प्रकाश की चाहत में सतत् आपकी सत्संगति करते हुए देखे जाते हैं। आप सतत् आगम स्वाध्याय से आत्मशोधन करते हुए निजज्ञान, विचार, चिंतन, मनन, लेखन से अपने आप को परिष्कृत करते रहते हैं। यही कारण है कि पाठक-शोधार्थी आपके विचार साहित्य को आगमनिष्ठ पाकर संतुष्ट होते हैं। जैनागम अध्येता आपकी हर क्रिया में मुनिचर्या का संविधान मूलाचार को इस कलिकाल में भी चरितार्थ होते हुए पाता है। यही कारण है कि आज आपको श्रमणत्व की कसौटी के रूप में पाकर श्रमण अनुयायी जयकारा बुलन्द करते हैं। हमारा गुरु कैसा हो-विद्यासागर जैसा हो, दिगम्बर मुनि देख लो-त्याग करना सीख लो, माँ का लाल कैसा हो विद्यासागर जैसा हो। सही मायने में आप श्रमण संस्कृति उन्नायक हैं। आप से श्रमण-मुनियों ने आगमयुक्त चर्या को पालने में उत्साह, साहस, साधना, प्रेरणा को पाया है। जैन श्रमण-मुनि के स्वरूप कथन करते हुए प्राचीन आचार्यों ने लिखा है- "ज्ञानध्यानतपोरत्नस्तपस्वि स प्रशस्यते।” उपरोक्त सूत्र को आज आपमें जीवंत होते हुए देखा जा रहा है। यथा-सन् १९६८-६९ अजमेर में, १९७३ ब्यावर में, १९७४ अजमेर एवं भीलवाड़ा में चातुर्मास के दौरान कई बार १२घण्टे, २४ घण्टे, २८ घण्टे, ३६घण्टे, ४४घण्टे, ७२ घण्टे तक समाज ने आपको ध्यानयोग में लीन देखा है। तब से आप ध्यानयोगी की पहचान बन गए हैं। बचपन के परमात्म ध्यानी आप आज अरिहंतों का अनुशरणकर्ता बन आत्मवेत्ता आध्यात्मिक संत शिरोमणि के रूप में प्रख्यात हैं। आप शरीर से इतने निस्पृह रहते हैं कि सर्दी-गर्मी हो या हजारों किलोमीटर की पदयात्रा, कीड़े-मकोडों का उपसर्ग हो या रोगादि परिषह हों। हर स्थिति में आत्मस्थ बने रहते हैं। स्वयं किसी भी प्रकार का प्रतिकार न तो करते और न ही करवाते एवं न ही शरीर की पुष्टता के लिए स्वादिष्ट रस नमकमीठा, फल-मेवे ग्रहण करते हैं। आप आचार्यत्व के धनी होने के साथ-साथ एक प्रतिभावान दार्शनिक कविहृदय संत भी हैं। आपके ४ हिन्दी कवितासंग्रह एवं १२ हिन्दी शतक, ६ संस्कृत शतक, सहस्राधिक जापानी काव्य शैली में हिन्दी भाषा की हाईकू की रचना प्रकाशित हो चुकी है। आपके साहित्य पर डॉक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त साहित्यविदों ने आपको उच्चकोटि के साहित्यकार के रूप में स्थापित किया है। आपने हिन्दी भाषा में 'मूकमाटी' महाकाव्य की रचना कर महाकाव्य की परिमित परिभाषा को पुनर्समीक्ष्य पटल पर ला खड़ा किया है। आपने न केवल हिन्दी भाषा में रचनाएँ की हैं अपितु संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़, बंगला, अंग्रेजी भाषा में भी काव्य सृजन किया है। इसके साथ ही आप मराठी एवं अपभ्रंश भाषाविद् भी हैं। बहु भाषाओं से सम्पृक्त आपकी प्रज्ञा ने भारतीय भाषाओं के संरक्षण की वैचारिक क्रान्ति पैदा की हैं। आज आप भारतीय भाषाओं में शिक्षा के पैरोकार बन गए हैं। आज आप भारतीय सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के पतन को देखते हुए संरक्षणात्मक संवाद का बिगुल बजा रहे हैं, यही कारण है कि आप जनमानस के बीच भारतीय संस्कृति के पुरोधा महापुरुष के रूप में आदरणीय बन गए हैं। भारतीय जीवन पद्धति को कुचलने के लिए आज शिक्षा में विदेशी भाषा को आधार बना दिया गया है। इस कुचक्र के कुचाल को भाँपकर युगदृष्टा, युगप्रवर्तक आपश्री के द्वारा राष्ट्रहित में युगांतरकारी मशाल को पुन: प्रज्ज्वलित किया गया है। यथा- राष्ट्रीय भाषा ‘हिन्दी' हो, देश का नाम 'इण्डिया' नहीं ‘भारत' हो, भारत में भारतीय शिक्षा पद्धति लागू हो, अंग्रेजी में नहीं, भारतीय भाषा में सरकारी एवं न्यायिक कार्य हो छात्र-छात्राओं की शिक्षा पृथक्-पृथक् हो, भारतीय प्रतिभाओं का पलायन रोका जाए शत-प्रतिशत मतदान हो शिक्षा के क्षेत्र में योग्यता की रक्षा हो। इसके साथ ही आपने अपने शैक्षणिक विचारों को मूर्तरूप प्रदान करते हुए प्रेरित किया, फलस्वरूप बालिका शिक्षा के तीन शिक्षायतन प्रतिभास्थली के नाम से जबलपुर (म.प्र.), डोंगरगढ़ (छ.ग.), रामटेक (महा.) में स्थापित हुए। जो आपके द्वारा प्रदत्त शिक्षा के उद्देश्य-स्वस्थ तन, स्वस्थ मन, स्वस्थ वचन, स्वस्थ चतन, स्वस्थ वेतन, स्वस्थ वतन, स्वस्थ चिंतन आदि विचारों के संस्कार प्रदान कर रहे हैं। यही कारण है कि आप एक महान शिक्षाशास्त्री के रूप में शोधार्थियों के शोध के विषय बन गए हैं। आप करुणाहृदयी, दयालु, देशप्रेमी संत हैं, देश में बढ़ती बेरोजगारी एवं विदेशी परावलंबता को सुनकर गाँधी जी के विचारों का समर्थन करते हैं और सबको रोजगार मिले एवं देश स्वावलंबी बने इस दिशा में अहिंसक रोजगार की प्रेरणा देते हैं। आप उद्घोषणा करते हैं नौकरी नहीं, व्यवसाय करो, चिकित्सा व्यवसाय नहीं, सेवा है, अहिंसक कुटीर उद्योग संवर्धित करो, बैंकों के भ्रमजाल से बचो और बचाओ, खेतीबाड़ी देश का अर्थतंत्र है-ऋषि बनो या कृषि करो, खादी अहिंसक है और हथकरघा रोजगार को बढ़ाता है, पर्यावरण की रक्षा करता है तथा स्वावलम्बी बनने का सोपान है मांस निर्यात, कुकुट पालन, मछली पालन कृषि नहीं है, इसे कृषि बताना छल है, गौशालाएँ जीवित कारखाना हैं। आपके इन सर्वोदयी विचारों ने आपको सर्वोदयी संत के रूप में पहचान दी है। नवपीड़ी के लिए आप सशक्त प्रणेता के रूप में विचार प्रकट करते हैं। आपके सर्वोदयी राष्ट्रीय चिंतन से नवयुवा उत्साह, ऊर्जा, दिशाबोध पाकर निजजीवन को परोपकार में लगा रहे हैं। ऐसे अपराजेय साधक महामना के स्वर्णिम विचारों को संकलित कर राष्ट्रहित में राष्ट्रीय हाथों में "सर्वोदयी संत की राष्ट्रीय देशना” समर्पित करते हुए हर्ष हो रहा है। – क्षुल्लक धैर्यसागर
  7. आज लोगों को अपने तन की चिन्ता है वतन की नहीं, इसलिए वतन का पतन हो रहा है। यदि वतन को पतन से बचाना चाहते हो तो वतन की बात करो, तन की नहीं। वतन की रक्षा के लिए हमको अपने ऐतिहासिक प्रसंगों को याद करना होगा। अपना इतिहास खोलना होगा, अपनी संस्कृति को सामने रखना होगा। इतिहास और संस्कृति को भूलकर हम अपने देश का नव निर्माण नहीं कर सकते क्योंकि हमारी संस्कृति अहिंसा प्रधान रही है जबकि आज हम अहिंसा को भूलकर हिंसा को पसंद कर रहे हैं। कैसे कहें कि हम अपने देश को सुरक्षित रख सकेंगे? संस्कृति को मिटाकर, इतिहास को भुलाकर देश का सुधार नहीं किया जा सकता, संस्कृति को आदर्श मानकर ही हम अपने कदम आगे बढ़ा सकते हैं अन्यथा हम अपना कोई आदर्श स्थापित नहीं कर सकते। भारतीय साहित्य कहता है पानी को कपड़े में छानकर पियो, रास्ते पर नीचे देखकर चलो, मुँह से सत्य बोलो और मन को पवित्र रखो। लेकिन आज तो लोग खून को छानकर पीने की बात कर रहे हैं। पशुवध होने लगा, पशुओं का मांस निर्यात होने लगा, कहाँ गई वह हमारी भारतीय आचार संहिता की सत्यता? आज सत्य ही लुप्त हो रहा है, पवित्रता ही लुप्त हो रही है, अहिंसा ही लुप्त हो रही है, दयाकरुणा ही लुप्त हो रही है क्या होगा इस देश का? यह आज एक सोचनीय बिन्दु है। -१९९७, नेमावर
  8. सत्पुरुषों की कथाओं को पढ़कर के आँखों में से विकृत पानी को निकाल दीजिए और उन कथाओं से संस्कार लीजिए। तब संस्कृति की रक्षा कैसी होती है; ये सामने आ जाएगा। बच्चों में संस्कार देने के लिए गर्भगृह में आने के पूर्व से ही पुरुषार्थ किया जाता है। यह सब सीताजी आदि सतियों के जीवन से आप सीख सकते हैं। आज क्या संस्कार डाले जा रहे हैं? विदेशी संस्कारों के कारण भारतीय जीवन में विकृतियाँ आ रहीं हैं। मैं आलोचना नहीं करता हूँ, लेकिन आपके लोचन इसके बिना खुल भी नहीं रहे हैं। आप सुन भी लेते हैं, किन्तु गौर नहीं कर रहे हैं। वह समय आएगा, जरूर आएगा; जब आप इन पक्तियों की याद करेंगे। यह ध्यान रखना "विद्याकालेन पच्यते, श्रवणं काले पच्यते''- यह सुना होगा आपने, लेकिन अब तो विद्याकाल में ही फल चाहते हैं, पुरुषार्थ करना नहीं चाहते। -३१ जुलाई २o१६, भोपाल
  9. पत्रकार वार्ता, ९ सितम्बर २०१४, विदिशा चातुर्मास पत्रकार - आचार्य श्री! आज अच्छी प्रतिभाओं का देश से पलायन हो रहा है इसके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे? आचार्य श्री - इसके पीछे तीन कारण हैं-पहला तो यह कि आज इन प्रतिभाओं के सामने जो दृश्य लाकर रखा गया है या रखा जा रहा है जिससे वे उसी को पाना अपने जीवन की उन्नति मानते हैं उसे पाना ही वो लक्ष्य बनाते हैं। मतलब अंग्रेजी भाषा और उसके माध्यम से होने वाली शिक्षा और उससे पढ़ने वाले श्रेष्ठ होते हैं एवं उन्हें उच्च पदों की प्राप्ति, पैसों की प्राप्ति, चमकदमक, मौजमस्ती करते हैं ऐसी मान्यता के कारण वे उसे श्रेष्ठ जीवन का लक्ष्य मानते हैं। इस कारण वे पलायन कर जाते हैं। दूसरा कारण अभिभावक लोगों की भी गलत धारणा बन गई है कि अंग्रेजी भाषा सर्वश्रेष्ठ है और आज विदेश जाना अनिवार्य है तभी बच्चे अच्छे बन पाएँगे। वे अच्छे का मतलब नहीं समझते, सिर्फ पैसे को अच्छा समझ रखा है इसलिए वे लोग अपने बच्चों को विदेश भेजते हैं चाहे पढ़ने के लिए हों या नौकरी के लिए, जबकि भारत में पहले भी श्रेष्ठ अध्ययन होता था, आज भी होता है। इतिहास उठाकर देखलें नालंदा विश्वविद्यालय, तक्षशिला विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय आदि शोध अध्ययन के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय थे। इस सब के बारे में विदेशी लोगों ने अंग्रेजी में लिखा है, इन सबके साक्ष्य हमारे पास मौजूद हैं। पढ़ने से लगा कि यह इतिहास आज लोग बिल्कुल भी नहीं जानते। आप सभी लोगों को इस इतिहास को पढ़ना चाहिए, जानना चाहिए तभी आपका स्वाभिमान जागेगा। तीसरा कारण यह है कि सरकारों ने प्रतिभावान विद्यार्थियों के लिए योग्य व्यवस्थाएँ नहीं बनाई हैं। उनके योग्य नौकरियाँ नहीं दी जातीं हैं। सरकारों ने ऐसे उच्च संस्थान खोल दिए हैं कि जिनके विद्यार्थियों का ज्ञान देश के काम नहीं आ रहा है। इस कारण वे प्रतिभाएँ पलायन कर रहीं हैं और फिर उन प्रतिभाओं को लाखों करोड़ों रुपये दिख रहे हैं। उनके अंदर देशभक्ति, स्वाभिमान, आत्मसमान, इतिहास के प्रति गौरव जगाया ही नहीं गया। एक मात्र भौतिक ज्ञान देकर बिगाड़ा जा रहा है। संस्कृति-संस्कार ही नहीं दिए गए, तो वे लालच में पलायन कर रहे हैं। वे भूल जाते हैं इन चंद रुपयों के पीछे उन्हें निचोड़ा जा रहा है। आप सभी को जागना होगा। पत्रकार- आचार्य श्री! बच्चों को किस प्रकार बिगाड़ा जा रहा है? आचार्य श्री - मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि बच्चों की बात करने से पहले बच्चों के अभिभावकों में ऐसा लालच क्यों आ रहा है? इसका कारण है भाषा। भारतीय भाषा में कहाँ-कहाँ क्या लिखा है? यह तो आपको ज्ञात ही नहीं है। भारत में पहले कोई भी वस्तु बाहर से नहीं आती थी। ऐसी कोई वस्तु नहीं थी जो यहाँ से निर्यात नहीं होती हो। अच्छी से अच्छी सस्ती से सस्ती चीजें निर्यात होतीं थीं और पूर्णतः मौलिक, प्राकृतिक, उत्तम गुण वाली होतीं थीं। यहाँ पर व्यक्ति ऐसा कार्य करते थे कि उन्हें कभी नौकरी करने की सोचना ही नहीं पड़ता था। हर कोई उद्यम करने में विश्वास रखता था। आज उद्यम सामाप्त करके नौकरी के लोभ से विदेश भेजा जा रहा है। लूटने की पद्धतियाँ ऐसी लाकर के रखीं हैं कि लोग समझ नहीं पा रहे हैं और अपने जीवन को उसमें फँसा रहे हैं। यह सब संस्कृति से दूर करने के रास्ते हैं। नौकरी करने वाला धर्म-समाज-संस्कृति-परिवार से कट जाता है इसलिए सर्वप्रथम 'इण्डिया' को हटाकर' भारत' नाम लाना चाहिए। पत्रकार - आचार्य श्री! अब जो सरकार है वह तो काफी मजबूती से अपनी पॉलिसियाँ (नीतियाँ) ला रही है? आचार्य श्री - हम सरकार की बात इसलिए नहीं करना चाहते क्योंकि सरकार को बनाया किसने? आप लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि आपने योग्य कार्य करने के लिए उन्हें चुना है। उनको इस बात से अवगत कराना होगा। महसूस कराना होगा। १८वीं शताब्दी में लिखा गया है कि भारतीय शिक्षा पद्धति क्या थी? और उन विदेशी लोगों ने लिखा है कि भारत में कितना परिष्कृत विज्ञान था। आज का जो विज्ञान है उसका बीज भारतीय विज्ञान है। कोई व्यक्ति माने या नहीं किन्तु विदेशी विद्वानों ने लिखा है तो उसे मानना ही पडेगा। पहले भारत में लोह धातु इस प्रकार से तैयार की जाती थी कि उसमें जग नहीं लगती थी इस कारण शल्य चिकित्सा के उपकरण इसी के द्वारा तैयार किए जाते थे। ऐसा लोह तत्व का विज्ञान भारत के अलावा कहीं नहीं था और न है। उस समय भारत में 20-20 हजार लोह भट्टियाँ काम करतीं थीं। ऐसा नहीं था कि खदान खोदते जाओ और देश का माल विदेश भेजते जाओ। हर क्षेत्र में भारत की शक्ति अपरम्पार थी।
  10. हमारा भारत देश और संस्कृति युगों-युगों से जगदगुरु के रूप में विश्व को हर तरह लगभग १५० वर्ष पहले तक भारत चिकित्सा, तकनीकी, विज्ञान, उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में दुनियाँ के शीर्ष पर था। जब विश्व का बड़ा हिस्सा अज्ञान के अंधकार में डूबा था तब भारत में ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी और अध्यात्म का सूर्य दैदीप्यमान हो रहा था इसका कारण यहाँ कि गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था थी। यह केवल कल्पना और ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत दस्तावेजों के द्वारा स्पष्ट होता है। आप उसे पढ़ें तो अपनी संस्कृति इतिहास पर गौरव होगा, प्रेरणा मिलेगी। १९९७, नेमावर (गुरुदेव की प्रेरणा से संकलित ऐतिहासिक भारत की स्वर्णिम झलकियाँ प्रस्तुत हैं-) १. सन् १८२२ के आसपास सम्पूर्ण भारत मे ७,३२,००० गाँव थे और उतने ही गुरुकुल थे अर्थात् एक भी गाँव ऐसा नहीं था जहाँ एक भी गुरुकुल न हो। सर्जरी (आपरेशन-चिकित्सा) के १५०० गुरुकुल थे। सम्पूर्ण भारत में साक्षरता थी। —जी.डब्ल्यूलिटनर (ओरियन्टलिस्ट, ब्रिटेन) २. भारत में इंजीनियरिंग, मेडिसिन, आयुर्वेद, धातुविज्ञान, प्रबंधन के लिये अलग-अलग विद्यालय थे तथा तक्षशिला और नालंदा जैसे ५०० से अधिक विश्वविख्यात विश्वविद्यालय थे। -पैंडरगास्ट ३. भारत की पेरियार जाति की मंदिर निर्माण कला अद्भुत थी। उनके द्वारा बनाए गये मंदिर स्थापत्य कला के बेजोड़ व अनूठे नमूने थे। -टी. बी. लॉर्ड मैकॉले ४. भारत हजारों वर्षों से खेती करता आ रहा है। दुनिया के लोगों ने सन् १७५० में खेती करना भारत से ही सीखा। भारत की एक एकड़ भूमि में ७०-७५ क्विटल धान पैदा होता था। -लेस्टर ५. भारत का स्टील इतना अच्छा है कि सर्जरी के लिये बनाये जाने वाले सारे उपकरण इससे बनाये जा सकते हैं, जो दुनियाँ में किसी देश के पास उपलब्ध नही हैं। ये स्टील हम पानी में भी डालकर रखें तो इसमें जंग नहीं लगेगा। -डा. सक्राट ६. भारत में जिस व्यक्ति के घर मैं गया, तो मैंने देखा कि वहाँ सोने के सिक्कों का ढेर ऐसे लगा रहता है जैसे कि चने का या गेहूँ का ढेर हो। भारतवासी इन सिक्कों को कभी गिन नहीं पाते क्योंकि गिनने की फुर्सत नहीं होती है। इसलिए वो तराजु में तोलकर रखते हैं। -टी.बी.लॉर्ड मैकॉले ७. भारत का वस्त्र उद्योग भी अतुलनीय और विलक्षण था। ढाका का मलमल विश्व में प्रसिद्ध था। १३ गज का महीन मलमल एक छोटी-सी अँगूठी में से निकल जाता था, उसका वजन १०० ग्राम से भी कम होता था। -बिलियम वोर्ड ८. भारतवासी, दुनियाँ में सभी वस्तुओं का उत्पादन करते थे, कोई भी वस्तु यहाँ आयात नहीं की जाती थी, अपितु अकेला भारत ३३ प्रतिशत वस्तुओं का निर्यात सारी दुनियाँ को करता था। -बिलियम वोर्ड ९. दुनियाँ में जहाज बनाने कि सबसे पहली कला और तकनीक भारत मे विकसित हुई है। ईस्ट इंडिया कपनी के जितने भी पानी के जहाज दुनियाँ में चल रहे हैं ये सारे के सारे जहाज भारत कि स्टील से बने हैं। -लैफ्टिनेंट कर्नल ए. वॉकर फिर ऐसा क्या हुआ कि आज हमारा भारत अनेक समस्याओं से जूझ रहा है। भारत की तबाही का मूल कारण क्या है ऐतिहासिक घटनाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इन सबका मूल कारण मैकॉले का रचा हुआ षड्यंत्र था। इसका प्रमाण है थॉमस बैबिंगटन मैकॉले का सन् १८३५ में हाऊस ऑफ कॉमन्स में दिया गया भाषण- “I have traveled across the length and breadth of India and I have not seen one person, who is a beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country. such high moral values, people of such caliber, that I do not think, we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is its spiritual and cultural heritage and therefore. I propose that we replace the old and ancient education System. her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will loose their self-esteem, their nature culture and they will become what we want them, a truly dominated nation. (2 Feb., 1835, Proc. on education) भावानुवाद अर्थात् ‘मैंने सारे भारत का भ्रमण किया है और मैंने एक भी आदमी को चोर और एक भी आदमी को भिखारी नहीं पाया है। मैंने इस देश में इतनी सम्पदा देखी है तथा इतने उच्च नैतिक आदर्श देखे हैं और इतने उच्च योग्यता वाले लोग देखे हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी इसे जीत पाएँगे जब तक कि इसके मूल आधार को ही नष्ट न कर दें जो कि इस देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर हैं, और इसलिए मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम उसकी प्राचीन और पुरानी शिक्षा पद्धति और उसकी संस्कृति को बदल दें क्योंकि यदि भारतीय यह सोचने लगें कि जो कुछ विदेशी और अंग्रेजी है, वह उनकी अपनी संस्कृति से अच्छा और उत्तमतर है तो वे अपना स्वाभिमान एवं भारतीय संस्कृति को खो देंगे और वे वैसे ही हो जावेंगे जैसा कि हम चाहते हैं, पूरी तरह एक पराधीन राष्ट्र।" -(२ फरवरी, १८३५, प्रोसी. शिक्षा) लॉर्ड मैकॉले के विचारों को एलिजाबेथ एवं ब्रिटिश संसद ने समर्थन दिया और लॉर्ड मैकॉले की बनाई शिक्षा पद्धति भारत में लागू करने के लिए ब्रिटिश संसद ने एक विधेयक पारित कर कानून बना दिया और भारतीय शिक्षा पद्धति को अवैध-अप्रमाणित घोषित कर दिया एवं उनकी अपनी शिक्षा से पास व्यक्ति को ही नौकरी देने का प्रावधान बना दिया गया। उपरोक्त कानून को भारत में जबदस्ती लागू किया गया। लॉर्ड मैकॉले को वापस भारत भेजकर उन्होंने प्रथम अंग्रेजी स्कूल कलकत्ता में खोला। स्कूल खोलते ही धनवानों के बच्चों की बहुसंख्या एकत्रित हो गई। अंग्रेजों ने जो शिक्षा दी, रहन-सहन, खान-पान बताया उसे स्वीकार कर लिया गया। तब खुश होकर लॉर्ड मैकॉले ने अपने पिता को पत्र लिखा। उसका कुछ अंश यहाँ पढ़ें और इस मूर्खता पर हँसें या रोयें, यह आप जानें- Calcutta October 12, 1836 My Dear Father, Our English schools are flourishing wonderfully. The effect of this education on the Hindoos is prodigious. No Hindoo, who has received an English Education, ever remains sincerely attached to his religion. Some continue to profess it as a matter of policy and some embrace Christianity. It is my belief that if our plans of education are followed up, there will not be single idolater among the respectable classes in Bengal thirty years hence. And this will be affected without any efforts to proselytize, without the Smallest interference with religious liberty, merely by natural operation of knowledge and reflection. I heartily rejoice in the prospect. Ever Yours Most affectionately T. B. Macaulay (Life and Letters of Lord Macaulay, pp. 329-330; Bharti, pp. 46-47) भावानुवाद कलकता १२ अक्टूबर, १८३६ मेरे प्रिय पिताजी, हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यजनक गति से बढ़ रहे हैं। इस शिक्षा का हिन्दुओं पर आश्चर्यजनक प्रभाव पढ़ रहा है। कोई भी हिन्दू जिसने अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर ली है, वह निष्ठापूर्वक हिन्दू धर्म से जुड़ा हुआ नहीं रहता है। कुछ एक, औपचारिकता के रूप में, नाम मात्र को हिन्दू धर्म से जोड़े दिखाई देते हैं लेकिन अपने स्वयं को 'शुद्ध देववादी' कहते हैं तथा कुछ ईसाईमत अपना लेते हैं। यह मेरा पूरा विश्वास है यदि हमारी शिक्षा की योजनाएँ चलती रहीं तो तीस साल बाद भगवान के सम्भ्रान्त परिवारों में एक भी मूर्तिपूजक नहीं रहेगा और ऐसा किसी प्रकार के प्रचार एवं धर्मान्तरण किए बगैर हो सकेगा। ऐसा स्वाभाविक ज्ञान देने की प्रक्रिया द्वारा हो जाएगा। मैं हृदय से उस योजना के परिणामों से प्रसन्न हूँ। हमेशा आपका सर्वाधिक प्रिय, टी.बी. मैकॉले (लॉर्ड मैकॉले की जीवनी और पत्र, पृ. ३२९-३३०; भारती पृ. ४६-४७) आज भी भारत की शिक्षा व्यवस्था, मैकॉले की बनायी हुई शिक्षा नीतियों का तीव्रगति से अनुकरण कर रही है। नवीन शिक्षा नीतियों का निर्धारण भी विदेशी तर्ज पर हो रहा है। जबकि भारतीय सभ्यता और संस्कृति पाश्चात्य देशों से पूर्णतया भिन्न है। हमारे देश में लगभग दो करोड़ से अधिक बच्चे अपनी मातृभाषा एवं संस्कृति छोड़कर विदेशी भाषा में अध्ययनरत हैं और उन अंग्रेजी स्कूलों में प्रवेश के लिए भीड़ लगी हुई है। यह जानकर बड़ा दु:ख होता है कि भारत ही एक ऐसा देश है जिसमें शिक्षा का माध्यम अपनी मातृभाषा को छोड़कर विदेशी भाषा को बनाया गया है। जबकि आज विकसित देशों में अग्रणी चीन, जापान, रूस, फ्रांस और जर्मनी ने प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा-तकनीकी, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कम्प्यूटर, व्यावसायिक शिक्षा आदि में अपनी मातृभाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाया है। हम अंग्रेजी को अंतरराष्ट्रीय भाषा मानकर सीख रहे हैं लेकिन यह हमारा भ्रम है। सत्य तो यह है कि विश्व के मानचित्र पर स्थित २00 देशों में से केवल १२ देशों में ही अंग्रेजी भाषा बोली जाती है। इतना ही नहीं अंग्रेजी भाषा इतनी दरिद्र है कि उसके निजी शब्द कोष में केवल १२000 ही शब्द हैं। शेष फ्रेंच और लैटिन भाषा से लिए गए हैं। जबकि हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी ७७,000 निजी शब्दों से समृद्ध है। विज्ञान पत्रिका करंट साइंस में राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केन्द्र के डॉक्टरों द्वारा कराए गए एम.आर.आय. परीक्षण की रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी बोलते समय दिमाग का सिर्फ बायाँ हिस्सा सक्रिय रहता है। जबकि हिन्दी बोलते समय मस्तिष्क का दायाँ और बायाँ दोनों हिस्से सक्रिय हो जाते हैं जिससे दिमागी विकास होता है। अनुसंधान से जुड़ी डॉ. नंदिनी सिंह एवं मनो-चिकित्सक डॉ. समीर पारेख कि सलाह है कि हिंदी भाषियों को बातचीत में ज्यादातर अपनी भाषा का ही इस्तेमाल करना चाहिए। समय-समय पर भारत सरकार द्वारा गठित समितियों के द्वारा भारतीय भाषाओं के ऊपर किया गया अध्ययन और उनकी रिपोर्ट का सार- सन् १९४८ में तारचंद समिति ने सर्व सम्मती से निर्णय लिया कि उच्चस्तरीय शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषा हो। सन् १९४८-४९ में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने कहा किसी विदेशी भाषा को ज्ञान प्राप्ति का माध्यम बनाना शैक्षिक दृष्टि से अस्वास्थकर है। अत: विश्वविद्यालय स्तर पर भी क्षेत्रीय भाषाएँ ही शिक्षा का माध्यम हो । सन् १९५२-५३मुदालियर कमिशन ने कहा माध्यमिक शिक्षा तक माध्यम सामान्यतः क्षेत्रीय भाषा या मातृभाषा हो। सन् १९६१-६२ राष्ट्रीय परिषद् ने 'क्षेत्रीय भाषा को', विषय वस्तु को ग्रहण कर सकने के अत्यंत उपयोगी शैक्षिक दृष्टिकोण के कारण महत्वपूर्ण माना। साथ ही सामान्यजन तथा शिक्षितजन के बीच सम्बन्ध स्थापित करने के लिए विश्वविद्यालय पर शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय बनाने पर बल दिया। सन् १९६८, १९७९, १९८६ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा गया-शिक्षास्तर को ऊँचा उठाने और लोगों कि सृजनात्मक शक्तियों को क्रियाशील करने के लिए प्रादेशिक भाषाओं को उच्चशिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए। गांधीजी, विनोबा भावे, डॉ. राधाकृष्णन जैसे अनेक शिक्षाविद्, चिंतक और विद्वानों ने भी मातृभाषा में अध्ययन का समर्थन किया, परन्तु कुछ राजनेताओं की अंग्रेजी भक्ति के कारण आज तक भारत में मातृभाषा में अध्ययन अनिवार्य नहीं हो पाया। किसी भी भाषा की शिक्षा के माध्यम के रूप में चयन के तीन आधार हैं जिस भाषा में विद्यार्थी सरलता से ज्ञान ग्रहण कर सके। जिस भाषा में विद्यार्थी बारीकी के साथ वस्तु के यथार्थ स्वरूप का चिंतन कर सके। जिस भाषा में विद्यार्थी अपने विचारों को सरलता से अभिव्यक्त कर सके। विद्वानों के निणर्यानुसार यह तो केवल मातृभाषा में ही संभव है। विदेशी भाषा तो बिल्कुल भी इन मापदंडों पर खरी नहीं उतर सकती। वैश्वीकरण के इस युग में आवश्यकतानुसार अंग्रेजी भाषा को अलग से सीखकर व्यवस्था को पूरा किया जा सकता है लेकिन उसे शिक्षा का माध्यम बनायें ये जरूरी नहीं। सुबह का भूला शाम को घर आए तो उसे भूला नहीं कहते। इसीलिए अंधेरा होने से पहले रुको अब लौट चलो, अपने स्वर्णिम अतीत की ओर..... मनुजो मानवो भूयात् भारतः प्रतिभारतः यह मनुज मानव हो और भारत प्रतिभा रत रहे। मनुष्य बुद्धि व गुणों के विकास और संस्कारों के संवर्धन से मानव बने और भारत प्रतिभा में निमग्न हो। -आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज शिक्षा के उद्देश्य हित का सृजन और अहित का विसर्जन यही शिक्षा का लक्षण है। शिक्षा का उद्देश्य जीवन निर्वाह नहीं, जीवन निर्माण है। विद्या अर्थकरी नहीं परमार्थकरी होना चाहिए। शिक्षा का कार्य संस्कारों के संरक्षण के साथ भविष्य का विकास करना है। ज्ञान भाषात्मक नहीं, भावनात्मक होना चाहिए। -सर्वोदयी संत आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  11. । श्री अादिनाथाय नमः । स्थान :- श्री दि. जैन चन्द्रगिरि अतिशय क्षेत्र डोंगरगढ़ (छ.ग.) स्थल :- श्री प्रतिभास्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ ( विद्यालय परिसर ) बन्धुओ, छत्तीसगढ़ दिगम्बर जैन समाज के सातिशय पुण्योदय से चन्द्रगिरि तीर्थ क्षेत्र पर संचालित प्रतिभास्थली के चैत्यालय का भव्य वेदी शिलान्यास समारोह दिनांक 06/12/2017 दिन बुधवार को प्रातः 8 बजे होने जा रहा है। परम पूज्य आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी महामुनिराज को पावन ससंघ सानिध्य में एवं प्रतिष्ठाचार्य बा.ब्र. सुनील भैया इंदौर के निर्देशन में संपूर्ण धार्मिक क्रियायें होगी। आप सपरिवार पधारकर पुण्य लाभ लेवें। आयोजक श्री दि. जैन चन्द्रगिरि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट डोंगरगढ़ श्री प्रतिमास्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ समिति
  12. मुझे आज भी वो दृश्य याद है जब 1983 में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज कलकत्ता आये थे और कलकत्ता प्रवेश से पूर्व बाली मंदिर में ठहरे थे । मैं सुबह 4 बजे गुरुदेव का दर्शन करने तथा उनके साथ विहार करने के उद्येश्य से गया था । आचार्य श्री नवम्बर महीने की सर्दी में खुले में बैठकर सामायिक / ध्यान कर रहे थे । सारा शरीर मच्छरों से ढका था । मैं टकटकी लगाकर उन्हें देखता रहा । आँखों पर, कानों में, नाक में, हाथों पर, हाथों की अंगुलियों पर, पूरे पैरों पर मोटे मोटे मच्छर जमा हो रखे थे । आचार्य श्री दो घंटे से भी अधिक उसी अवस्था में बैठे थे । सामायिक / ध्यान से उठे तो सारे शरीर पर मच्छरों के काटे हुए उभरे हुए लाल निशान बन गये थे । मेरी आँखों से झर झर आंसू गिर रहे थे पर मैं कुछ नहीं कर सकता था । आस पास आने वाले व्यक्तियों को इशारे से मौन रहने का निवेदन करता रहता था । मैंने आचार्यश्री को श्रीफल चढ़ाकर नमोस्तु किया और मच्छरों के काटे हुए निशानों की ओर इशारा किया । आचार्यश्री कुछ नहीं बोले, बस मुस्करा दिये और कहा - कुछ नहीं सब ठीक है । और मैं और भी आश्चर्य चकित तब हुआ जब मैंने शाम को बेलगछिया मन्दिर जी में जाकर आचार्य श्री के दर्शन किये तो देखा कि मच्छर काटने का एक भी निशान शरीर पर नहीं था । पूरा शरीर बिल्कुल सामान्य था । यह कहलाती है साधना ! तपस्या और तपस्या का फल ! उपसर्ग सहना ! परिषह सहना ! धन्य हैं ऐसे सच्चे गुरु !!
  13. प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {3 दिसंबर 2017} चन्द्रगिरि (डोंगरगढ़) में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने प्रात:कालीन प्रवचन में कहा कि जब तीर्थंकर भगवान का समवशरण लगता है तो उसमें काफी भीड़ होती है और जगह की कमी कभी नहीं पड़ती है। बहरे के कान ठीक हो जाते हैं, उसे सब सुनाई देने लगता है। अंधे की आंखें ठीक हो जाती हैं और उसे सब दिखाई देने लग जाता है, लंगड़े के पैर ठीक हो जाते हैं और वह चलने लग जाता है। वो भी बिना किसी ऑपरेशन, सर्जरी या बिना किसी नकली पैरों के सब कुछ अपने आप हो जाता है। मंदबुद्धि का दिमाग ठीक हो जाता है। एक बार एक गांव में 25वें तीर्थंकर कहकर समवशरण लगाया गया। उसमें काफी भीड़ भी इकट्ठी हो गई। वहां बहरे, अंधे, लूले-लंगड़े, मंदबुद्धि लोग भी आए, परंतु उनका वहां जाकर भी कुछ नहीं हुआ। वे जब वापस आए तो अंधा, अंधा ही था, बहरा, बहरा ही था, लंगड़ा, लंगड़ा ही था और मंदबुद्धि, मंदबुद्धि ही था। किसी में कोई परिवर्तन नहीं आया तो लोग समझ गए कि यह समवशरण वीतरागी का नहीं है। यह सब एक वीतरागी के समवशरण में ही संभव हो सकता है और वीतरागी समवशरण में आने वालों का पूर्ण श्रद्धा से सम्यक दर्शन का होना भी अनिवार्य है तभी कुछ परिवर्तन होना संभव है। सम्यक दर्शन के भी 8 भेद बताए जाते हैं जिसका शास्त्रों में उल्लेख पढ़ने को मिलता है। आचार्यश्री ने कहा कि कपड़े की दुकान वाले बुरा मत मानना। एक बार एक कपड़े की दुकान में एक ग्राहक आता है और कपड़े देखता है। देखते ही देखते उसके सामने पूरे का पूरा कपड़ों का ढेर लग जाता है। दुकान मालिक उससे पूछता है कि आपको किस वैरायटी का कपड़ा चाहिए? तो ग्राहक कहता है कि आप अपनी दुकान का सारा माल दिखाइए और मुझे जो पसंद आएगा, उसे मैं ले लूंगा। कपड़े की दुकान वाले का पसीना छूट जाता है और उसने ग्राहक को चाय भी पिलाई (लोभ दिया) फिर भी ग्राहक संतुष्ट नहीं हुआ। आचार्यश्री ने कहा कि दुकान कैसी भी हो, क्वालिटी अच्छी हो तो लोग ठेले में भी झूम जाते हैं। वो कहावत है न कि ‘ऊंची दुकान और फीका पकवान’। दुकान बड़ी होने से कुछ नहीं होता, माल अच्छा हो तो दुकान में भीड़ लगी रहती है। इसी प्रकार हमारे भाव भी सम्यक दर्शन के प्रति बने रहना चाहिए और इसमें कभी कोई शंका उत्पन्न नहीं होना चाहिए तभी इसकी सार्थकता है। यह जानकारी चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
  14. जय जिनेंद्र परम पूज्य आचार्य भगवन 108 विद्यासागर जी महाराज एवं परम पूज्य आचार्य गुरुवर 108 वर्धमान सागर जी महाराज दक्षिण वाले इनका शुभ मिलन आज शुभ स्थान डोंगरगढ़ यहां पर हुआ
  15. From the album: शुभ मिलन - आचार्य भगवन 108 विद्यासागर जी महाराज एवं परम पूज्य आचार्य गुरुवर 108 वर्धमान सागर जी महाराज दक्षिण वाले

    इस सदी के सबसे बड़े, सर्वश्रेष्ठ,सर्वमान्य,जीवंत समयसार,साक्षात मूलाचार आचार्य भगवन श्री 108 विद्यासागर जी महाराज से जिनशासन प्रवर्धक,आगम अनुसार चर्याधारी आचार्य श्री 108 वर्धमान सागर जी महाराज (दक्षिण) ससंघ चर्चा करते हुए।
  16. जय जिनेंद्र परम पूज्य आचार्य भगवन 108 विद्यासागर जी महाराज एवं परम पूज्य आचार्य गुरुवर 108 वर्धमान सागर जी महाराज दक्षिण वाले इनका शुभ मिलन आज शुभ स्थान डोंगरगढ़ यहां पर हुआ
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