Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    896

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. यह कौन-सी सरकार है जो अण्डों को शाकाहारी कह रही है और झूठा प्रचार कर रही है। अण्डे कभी शाकाहारी नहीं हो सकते, अण्डे तो मांसाहारी ही हैं, अण्डों में जीव है, वह भ्रूण है, उसमें जीवन है। अण्डे किसी वृक्ष पर नहीं लगते। अण्डों का उत्पादन किसी वृक्ष पर नहीं होता, अण्डे कोई फल नहीं हैं, वह तो मुर्गी का बच्चा है। ऐसे जीवित अण्डों को शाकाहारी कहना सरासर अन्याय है। दुनिया का कोई भी अण्डा शाकाहारी नहीं हो सकता। आज वैज्ञानिकों ने भी इसी बात को सिद्ध कर दिया कि अण्डा मांसाहारी ही है और वह अण्डा मानव स्वास्थ्य के लिए घातक है, उसका सेवन कैंसर जैसे प्राणघातक रोगों को जन्म देता है अत: सरकार को जनता के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए और टी.वी. में अण्डों का विज्ञापन बंद होना चाहिए। यह देश के साथ खिलवाड़ है। क्या यही स्वतंत्र भारत का विकास है कि हम अण्डों को शाकाहारी कहने लगें? मांस को बेचने लगें, मांस, खून को सुखाकर पैकेट में बंद कर बेचने लगें? विकास के नाम पर देश में हिंसा का विकास हुआ है, अन्याय का विकास हुआ है, अत्याचार का विकास हुआ है, मानवीय सभ्यता, संस्कारों और चरित्रों का ह्रास हुआ है यही है हमारी पचास वर्षों की उपलब्धि। परतंत्र भारत में मांस का निर्यात नहीं हुआ, लेकिन आज स्वतंत्र भारत में मांस का निर्यात हो रहा है। हम स्वर्ण जयन्ती का जश्न मनाने की तैयारियाँ कर रहे हैं मात्र सभा, संगोष्ठी, सम्मेलनों के रूप में, इससे भारत का कुछ विकास नहीं हो सकता, भारत के विकास के लिए अहिंसा चाहिए, सत्य चाहिए। -१९९७, नेमावर
  2. यह भारत भूमि है, यह कृषिप्रधान देश है। जहाँ वेदों, पुराणों की पूजा होती है, यहाँ प्रत्येक प्राणी को अभयदान दिया जाता है, यहाँ बीजों को भी बचाया जाता है क्योंकि उनमें भी अंकुर का जीवन होता है, वृक्ष का विकास होता है। जीवन की रक्षा ही भारतीय संस्कृति है लेकिन आज यह भारत किस उन्मार्ग पर जा रहा है इसका बड़ा दु:ख है। बीजों को भी कष्ट न पहुँचाने वाला यह भारत आज बड़े-बड़े गाय, बैल, भैंस इत्यादि जिन्दा जानवरों को कत्ल करके उनका मांस, खून बेच रहा है। यहाँ की गाय भी गीता से कम पवित्र नहीं है लेकिन इस भारत ने उस पवित्र गाय को भी कत्ल करने का घिनौना कुकृत्य प्रारंभ कर दिया है। गाय का खून, मांस बेचकर विदेशी मुद्रा कमा रहा है, यह हत्या का काम भारत को चौपट कर देगा। किसी की हत्या करके, खून करके हम अपने खून के जीवन को सुरक्षित नहीं रख सकते। इसके लिए हमको भारत से मांस का निर्यात तुरन्त बंद कर देना चाहिए। भारत की अहिंसा का आदर्श आज भी हमारे शास्त्र पुराणों में सुरक्षित है। यह वह भारत है, जहाँ यज्ञ-हवन की पूजन सामग्री के लिए और अग्नि में होम के लिए भी यह कहा जाता था कि 'अजैर्यष्टव्यम्' अर्थात् यज्ञ की अग्नि में उन धानों (बीजों) की आहूति करो जो धान तीन वर्ष पुराने हैं, जिनमें ऊँगने, अंकुरित होने की शक्ति नहीं रही है, उन निर्जीव धानों (बीजों) का अग्नि में हवन करो। यह है भारतीय संस्कृति जहाँ बीजों को भी अग्नि में नहीं डाला जाता लेकिन आज भारत की वह आदर्श संस्कृति कहाँ गायब हो गई? आज तो जिन्दा जानवरों को यांत्रिक कत्लखानों में, मशीनों में काटा जा रहा है, ये कत्लखाने प्रतिदिन लाखों की संख्या में पशुओं की बलि ले रहे हैं, इतना ही नहीं करंट के द्वारा जानवरों को मारा जा रहा है और यह सब कर रही है हमारी सरकार। अनुमति देना ही कार्य करने के बराबर है। सोना, चाँदी, हीरा, मोती का निर्यात करने वाला यह भारत, आज खून, मांस, हड्डी का निर्यात कर रहा है। इन जानवरों को मारकर के, उनका मांस निर्यात करके यह भारत कभी भी अपनी उन्नति नहीं कर सकता। राष्ट्र को कत्लखानों की आवश्यकता नहीं, भारत को पशुशालाओं की आवश्यकता है, गौशालाओं की आवश्यकता है, दुग्ध शालाओं की आवश्यकता है। गायों को मारकर सरकार विदेशियों के पेटों में गौमांस डाल रही है और यहाँ दूध की भुखमरी पड़ रही है, देश में नकली दूध का प्रचलन बढ़ रहा है। जिस नकली दूध से घातक बीमारियाँ बढ़ रही हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने पशुओं को सुरक्षित रखें ताकि हमको शुद्ध दूध और खाद की प्राप्ति हो और जहरीले नकली दूध, घी, खाद से बचे रहें। बस, इस ओर आँखें खोलने की जरूरत है। -१९९७, नेमावर
  3. विनाश काले विपरीत बुद्धि' वाली कहावत चरितार्थ होने वाली है याद रखो। दूध फटने के बाद उसमें कितना भी अच्छा रसायन डाली, वह दूध पुनः सही नहीं हो सकता इसी प्रकार यदि एक बार देश की संस्कृति फट गई, विकृत हो गई तो समझ लो देश बचने वाला नहीं है। भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए देश की पशु सम्पदा को बचाना आवश्यक है और इसके लिए देश के कर्णधारों को जागना है। जो कर्णधार तो हैं लेकिन उनके कानों में आवाज नहीं जाती। आप भारत के अतीत के उन पवित्र पद चिहों पर चलिए, जिससे दुनिया को सच्चाई का मार्ग मिले, सत्य का दर्शन हो और असत्य से घृणा हो। हमारा आचरण ऐसा हो कि हमारे द्वारा प्रजा का ही नहीं अपितु प्रतिपक्ष का भी संरक्षण हो। सन्तों का यह उपदेश है कि आप अपनी यात्रा रोकिए मत, अपने जीवन को उन्नति के मार्ग पर लगाइए। अशोक महान के आदशों को मत भूलिए, जिससे हमारी राष्ट्रीय मुद्रा बनी है। विदेशी मुद्रा के खातिर अपनी मुद्रा (दशा) मत बिगाड़ो। सबका संरक्षण करो, सबका भला करो, किसी का वध मत करो, किसी को मत सताओ, किसी की जान पर हमला मत करो, पशुओं की रक्षा करना ही धर्म है। -१९९७, नेमावर
  4. हमारा राष्ट्रीय ध्वज अहिंसा का प्रतीक है, अहिंसा के ध्वज को फहराने वाला देश, करुणा, विश्व मैत्री, विश्व शान्ति का अमर सन्देश देने वाला देश, गाय की आरती और पूजा करने वाला देश आज मांस निर्यात कर अपने आदशों को खो रहा है, अपनी संस्कृति को कलंकित कर रहा है!!! इससे राष्ट्रीय ध्वज के भावों का अपमान हो रहा है। -१९९७, नेमावर
  5. जिसको आप माँ कहते हैं और उसी गौ माँ का मांस बेचकर राष्ट्र का उत्थान चाहना यह कितनी लज्जा, शर्म की बात है। भले ट्रेक्टर से कृषि हो जाये, लेकिन ट्रेक्टर से दूध नहीं मिल सकता, घी नहीं मिल सकता, खोवा (मावा), गोबर नहीं मिलेगा। चेतन धन को नाश करके धन की वृद्धि करना बिल्कुल बेकार है यह तो अभिशाप है, इससे देश का कुछ भी उत्थान नहीं होगा। भारत को किस बात की कमी है। भारत के पास कृषि के लिए बहुत जमीन है फिर आज मछली की खेती, अण्डों की खेती, मांस की खेती क्यों की जा रही है? गाँधी जी के शब्दों में (cow is the Poem ofpity) अर्थात गाय करुणा की कविता है। उन्होने गौ रक्षा का अर्थ भी बहुत अच्छा किया (Protection of the cow means protection of the whole voiceless creation of God) अर्थात गौरक्षा का अर्थ क्या है? ईश्वर के समग्र मूक सृष्टि की रक्षा करना ही गौरक्षा है। मूक सृष्टि का अर्थ पशु जगत के समग्र प्राणी जैसे-गाय, बैल, भैंस, घोड़ा, बकरी, बकरा, मुर्गा, मेंढक, मछली, पक्षी इत्यादि सब । गाय का दूध पीने वालो! गाय का खून मत होने दो, राष्ट्र की रक्षा और प्रजा का पालन हमारा धर्म होना चाहिए। यदि हम राष्ट्र की रक्षा और प्रजा का पालन नहीं कर सके तो हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। हमारे पास आज राष्ट्रीय गीत, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय चिह्न है लेकिन ‘राष्ट्रीय चरित्र' नहीं हैं। यदि हम अपना राष्ट्रीय चरित्र बना लें तो हमारे राष्ट्र का भला है। वह राष्ट्रीय चरित्र क्या है? सत्य और अहिंसा ही हमारा राष्ट्रीय चरित्र हो, सत्य और अहिंसा ही हमारा राष्ट्रीय धर्म हो और यदि हमारे नस-नस में इस राष्ट्रीयता का संचार हो जाए तो फिर हमको किसी दूसरी चीज का सहारा लेने की कोई आवश्यकता नहीं। -१९९७, नेमावर
  6. जीवन में राइट नॉलेज (समीचीन ज्ञान) होना चाहिए। यह सब कुछ है किसी बात की कमी नहीं है लेकिन हमारे पास सबसे बड़ी गरीबी राइट नॉलेज की है। यदि तुम आत्मशान्ति की खोज करना चाहते हो तो बाहर की यात्रा बंद कर दी। शान्ति बाहर नहीं मिलेगी शान्ति भीतर मिलती है और आत्मशान्ति के लिए समीचीन ज्ञान की आवश्यकता है। जब हमको राइट नॉलेज हो जाता है तब हम अपने अधिकार (राइट) की बात करना छोड़ देते हैं यानि हम कर्तव्य की ओर बढ़ जाते हैं। बात नहीं। यदि हम दुनिया का भला करना चाहते हैं तो हमको कर्तव्यशील बनना होगा और अधिकार की बात को छोड़ना होगा। सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमको भीतरी चेतना को समझना होगा। वह सच्चा ज्ञान मंदिर में ही नहीं, रणांगन (युद्ध भूमि) में भी हो सकता है। इसका ज्वलंत उदाहरण है भारतीय इतिहास का आदर्श नरेश सम्राट अशोक महान अशोक महान को सच्चा ज्ञान मंदिर में नहीं युद्ध में हुआ था, अशोक ने जब युद्धभूमि में लाशों का ढेर देखा उसकी आत्मा कांप उठी, वह रो पड़ा, उसका दिल दहल उठा और उसकी आत्मा चिल्ला उठी, ये नरसंहार आखिर किसके लिए? नहीं, नहीं। राष्ट्र की रक्षा के लिए, प्रजा की उन्नति के लिए यह खून खराबा उचित नहीं और उसने आजीवन युद्ध का त्याग कर दिया। उसने सोचा दूसरों के खून से राष्ट्र की उन्नति संभव नहीं, प्रजा की रक्षा और राष्ट्र की उन्नति के लिए अहिंसा ही एक मात्र सच्चा साधन है। उस अशोक महान की मुद्रा ही आज हमारा राष्ट्रीय चिह्न है। हमारे देश का राष्ट्रीय चिह्न ही अहिंसा का प्रतीक है। जब हमारे देश की राष्ट्रीय मुद्रा ही अहिंसा का प्रतीक है तो फिर देश हिंसा का सहारा लेकर राष्ट्र की उन्नति का स्वप्न क्यों देख रहा है? अशोक ने युद्ध का त्याग कर दिया था। क्या भारत को नहीं मालूम कत्लखानों में युद्ध से भी बदतर स्थिति है। जहाँ जिन्दा जानवरों का कत्ल कर दिया जाता है फिर अशोक महान की मुद्रा को राष्ट्रीय चिह्न बनाने का क्या अर्थ? यदि हमारी राष्ट्रीय मुद्रा अहिंसा का प्रतीक है तो हमको भी अहिंसा का अनुपालन करना चाहिए। अन्यथा राष्ट्रीय मुद्रा का अपमान है। जिस मुद्रा में 'सत्यमेव जयते' का वाक्य लिखा हो फिर भी सरकार मांस का निर्यात करे, यह कौन-सा आदर्श है। -१९९७, नेमावर
  7. धन साधन है जबकि धर्म साधना है, धन पेट के लिए है, धर्म शान्ति के लिए है, धन से तो हमारा पेट भरता है लेकिन शान्ति पेट भरने से नहीं मिलती क्योंकि पेट शान्ति का स्थान नहीं, शान्ति का स्थान तो आत्मा है और धर्म आत्मा की खुराक है। इसलिए जीवन में धन के साथ-साथ धर्म भी होना अनिवार्य है। धर्म और धर्म के स्वरूप को समझे बिना हम अपने इष्ट की प्राप्ति नहीं कर सकते। धर्म हमको गुनाहों से बचने का संकल्प देता है एवं आत्मिक उत्थान की ओर ले जाता है। धर्म हिंसा और अशान्ति का विरोधी है, वह हिंसा को कभी पसंद नहीं करता क्योंकि हिंसा अशान्ति देती है। दुनिया का कोई भी प्राणी हो उसकी पहली मांग आत्मशान्ति ही होती है। वह अतिरिक क्लेशों से बचना चाहता है, यह बात अलग है कि वह शान्ति के यथार्थ मार्ग को न समझ, अशान्ति की पगडंडी में भटकता रहता है। धर्म जीवन विज्ञान है। मानव जाति आज संकट में गुजर रही है क्योंकि उसने धर्म को ठुकराया है, इसीलिए वह ठोकर खा रही है। यदि हम अपना सर्वागीण चहुमुखी विकास चाहते हैं तो हमको अहिंसा धर्म की वेदी पर अपना माथा टेककर जीवन में उसको ट्रान्सलेट करना होगा। -१९९७, नेमावर
  8. ऐसी सरकार को लेकर क्या करना जो बूचडखाने खोले, पशुओं का वध करे, मांस का निर्यात करे, हमको वह सरकार चाहिए जो हिंसा, कत्लखाने, पशुवध और मांस निर्यात पर प्रतिबंध लगाये, इनको रोके। इन कत्लखानों में मात्र पशुओं का ही वध नहीं हो रहा है अपितु जनता की धार्मिक एवं मानवीय भावनाओं का भी हनन हो रहा है, ऐसा करके क्या हम अपने देश में सुख, शान्ति, अहिंसा, मैत्री का वातावरण तैयार कर सकते हैं? क्या इन कत्लखानों से सत्य, अहिंसा जीवित रहेगी? क्या इन कत्लखानों से मानवता जिन्दा रहेगी? हिंसा का उद्योग देश में हिंसा ही फैलाएगा, अहिंसा नहीं। सरकार अहिंसा की बात करती है लेकिन हिंसा के कार्य छोड़ती नहीं। अहिंसा की स्थापना हिंसा से नहीं हो सकती। आज हमको हिंसा नहीं, अहिंसा चाहिए। अहिंसा को समाप्त करके क्या हिंसा से देश बचा पायेंगे? परिश्रम का अभाव देश में गरीबी पैदा कर रहा है, हर व्यक्ति परिश्रम करने लगे तो देश का आर्थिक विकास बहुत जल्दी हो सकता है लेकिन देश की मौलिक चेतन सम्पदा को चौपट करके उसके बदले में कुछ विदेशी मुद्रा का लालच हमारे देश को चौपट कर रहा है। -१९९७, नेमावर
  9. माँस निर्यात करना सबसे बड़ा घोटाला है लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि इस महा घोटाले को कोई घोटाला नहीं समझ रहा है और इसके विषय में कोई आवाज नहीं उठा रहा है। देशवासियों का यह पहला कर्तव्य है कि वे सबसे पहले माँस नियति के हिंसक घोटाले को बंद करवायें, जब तक पशु हत्या का घोटाला रुकेगा नहीं, तब तक यह भारत अपना विकास नहीं कर सकता। भारत का विकास पशु हत्या को रोकने में ही है। इन जानवरों को मारकर हम कैसे जिंदा रह सकते हैं? इन गायबैल इत्यादि को फसल की तरह नहीं उगाया जा सकता। पेड़-पौधों को तो उगाया जा सकता है लेकिन इनको उगाया नहीं जा सकता। भारत के अपने आदर्श हैं लेकिन मांस बेचकर भारत ने अपने सारे आदर्श मिटा डाले। आदर्श के नाम पर उसके पास कुछ नहीं बचा। भारत को पुन: उन संस्कारों को जीवित करने की आवश्यकता है, जिनको वह भूल गया है, यदि इन अहिंसा के संस्कारों को जीवित नहीं किया गया तो हिंसा का प्रलय हम सबको तबाह कर देगा। अत: हमको मांस निर्यात बंद करके ही अहिंसा के संस्कारों को जीवित करना है। भले आप राम, महावीर को याद न करो लेकिन दया को याद रखो क्योंकि जहाँ दया है वहीं राम हैं, वहीं महावीर हैं। दया ही राम है, दया ही महावीर है। आज भारत के पास दया नहीं रही इसलिए वह मांस निर्यात जैसे खूनी कर्म करने लगा अन्यथा दूध का देश खून क्यों बेचता? -१९९७, नेमावर
  10. गौ का दूध आदमी के बच्चों को पुष्ट करता है, शक्ति देता है, उनको एक लम्बी उम्र देता है। जो शक्ति माँ के दूध में नहीं, वह शक्ति है गौमाता के दूध में। ऐसी शक्तिवर्धक, स्वास्थ्य की जननी गौमाता का आज वध हो रहा है, जिसका हमने दूध पिया, उसी का आज खून बेच रहे हैं। भारत के लिए यह बहुत बड़ा कलंक है। भारत कृषि प्रधान देश है, माँस प्रधान नहीं। आज भारत में माँस का व्यापार हो रहा है, शराब का व्यापार हो रहा है, अण्डों की खेती हो रही है, यह सब भारत के लिये कलंक है। माँस, शराब, अण्डे, मछली को बेचकर यह भारत कभी भी उन्नति नहीं कर सकता क्योंकि यह सब हिंसा है। यह हिंसा का पैसा, खून का पैसा, मस्तिष्क को विकृत कर देगा और सारा पैसा दिमाग को ही ठीक करने में खर्च हो जायेगा, फिर देश की उन्नति के लिये क्या बचेगा? राष्ट्र का विकास अहिंसा से ही हो सकता है, हिंसा से नहीं। यदि तुम भारत की उन्नति चाहते हो तो हिंसा को रोक दो, हिंसा से इस देश को मुक्त कर दो, इस देश की उम्र बढ़ जायेगी। यदि हिंसा को नहीं रोक सके तो समझ लेना देश की उम्र बहुत कम बची है। हिंसा बहुत बड़ा गुनाह है, हिंसा से बढ़कर पाप नहीं है, हिंसा सब पापों की जड़ है। जीवित पशुओं को मारकर, उनका माँस बेचकर, हम अपने देश को अहिंसा का संदेश कैसे दे सकते हैं? माँस का निर्यात करके पैसा कमाना, यह धन कमाने का साधन कतई नहीं हो सकता। भारत को खून-माँस बेचना छोड़ देना चाहिये। खून-माँस बेचकर भारत सुखी नहीं हो सकता। -१९९७, नेमावर
  11. हमारी दया सक्रिय होना चाहिए, निष्क्रिय नहीं। सक्रिय दया का अर्थ आचरण में उसका पालन होता है। यदि हमारी दया सक्रिय हो जाए तो आज ही कत्लखाने बन्द हो सकते हैं। हर समाज में कितनी कितनी संस्थाएँ हैं लेकिन सक्रिय न होने के कारण हमारी जीत नहीं हो पा रही है। अगर हम सब मिलकर बीड़ा उठालें और संकल्प करलें कि हम भारत से मांस निर्यात नहीं होने देंगे तो सरकार की क्या मजाल कि वह मांस निर्यात कर सके। अपनी दया को सक्रिय करो, भावनाओं में स्फूर्ति लाओ और जुट जाओ इस जीव दया के कार्य में। एक दिन अवश्य विजय मिलेगी, अवश्य जीत होगी, बस आप लोग लगे रहो, इसकी गति को मंद मत होने दो, एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जिस दिन मांस निर्यात बंद हो जायेगा। -१९९७, नेमावर
  12. नेता को वोट देने वाला भी नेता से कम नहीं होता, वह भी एक नेता होता है। वोट लेने वाला नेता होता है तो वोट देने वाला भी नेता होता है। जब दोनों ही नेता होते हैं तो वोट देने वाला नेता अपने नेता के चुनाव में गलती क्यों कर जाता है? ऐसे नेता का चयन करना चाहिए जिसके द्वारा हमारा संरक्षण हो, हमारी संस्कृति, धर्म का संवर्द्धन हो। जिस नेता के द्वारा हमारा संरक्षण न हो, हमारी संस्कृति और धर्म का हास हो, उसको कभी भी चयन नहीं करना चाहिए। आज हमारे देश की पशु सम्पदा का विनाश हो रहा है और यह सब कौन करा रहा है? आखिर है तो सरकार ही न। सरकार ही ने तो कत्लखाने खुलवाये हैं। फिर हमारा क्या कर्तव्य होता है? जिसको हमने वोट दिया, अपना प्रतिनिधि बनाया, यदि वही हमारी आवाज को न सुने तो हमको उस नेता से सत्ता वापिस ले लेना चाहिए। इसमें कोई बुराई की बात नहीं, यह तो योग्यता की बात है, किसी पार्टी की नहीं। आप अपनी ताकत जगाइए, आपके पास विराट शक्ति है। आप अपनी भावनाओं, भावों की शक्ति से सारी दुनिया बदल सकते हैं, आप अपनी सम्प्रेषण की शक्ति को जानिए। सम्प्रेषण का अर्थ भावों का खेल है, भावों की शक्ति का चमत्कार। आप अपनी सम्प्रेषण की शक्ति से सारी दुनिया को हिला सकते हैं। आप अपने भावों में करुणा, अहिंसा, दया को भरिए आप अपने अहिंसक भावों का सम्प्रेषण डालिए। यदि आपके भावों में सहानुभूति है तो बिना दवा के भी रोगी ठीक हो सकता है।
  13. जीवन में सहमति की अपेक्षा सहयोग की महता है। सहमति तो हर व्यक्ति दे देता है लेकिन सहयोग हर कोई नहीं देता, सहयोग की आवश्यकता है। जनता यदि एक दूसरे को सहयोग देने लगे तो हम एक दूसरे के बहुत निकट आ सकते हैं। एक दूसरे का सहयोग करने से हृदय में आत्मीयता का संचार होता है, परस्पर मैत्री से स्नेह दृढ़ होता है। हम मात्र आदमी को नहीं पशुपक्षियों को भी सहयोग दें, उनके सुख दु:ख में भी अपना हाथ बटाएँ, उनको कष्ट से निकालें, उनकी परेशानी दूर करें, उनकी जिन्दगी का ख्याल रखें, कहीं वे हमारे द्वारा पीड़ित तो नहीं हैं? ऐसे करने से ही हम मानव हैं वरना पशु और मानव में अन्तर ही क्या है? -१९९७, नेमावर
  14. जो व्यक्ति अपने लिए रोता है, वह स्वार्थी कहलाता है लेकिन जो दूसरों के लिए रोता है, वह धर्मात्मा कहलाता है। यदि हम दूसरों के लिए रोना सीख लेते हैं तो बहुत से लोग हँसने लगेंगे। धर्म को समझने के लिए सबसे पहले मंदिर जाना अनिवार्य नहीं अपितु दूसरों के दु:खों को समझना पहले अनिवार्य है परन्तु जब तक हम हमारे दिल में किसी को जगह नहीं देंगे तब तक हम दूसरों के दु:खों को नहीं समझ सकते, चाहे वे मनुष्य हों या पशुपक्षी आदि। पहले दिल में जगह दें जमीन में नहीं, जमीन में जगह देना कोई जगह देना नहीं है; यह तो सभी दे सकते हैं लेकिन दिल में जगह देना सबके वश की बात नहीं। दिल में जगह वही दे सकता है जिसका हृदय विशाल है। छोटे दिल वाला तो मात्र जमीन में जगह देता है, दिल में नहीं। -१९९७, नेमावर
  15. खून, मांस बेचकर, कत्लखाने खोलकर, पशुओं का कत्ल करके क्या आप ईश्वर से प्रार्थना करने के काबिल हैं? क्या आप ईश्वर से राष्ट्र की सुख समृद्धि की दुआएँ माँग सकते हैं? किस मुँह से माँगोगे? किस मन से माँगोगे? किन भावनाओं से माँगोगे? ईश्वर की उपासना करने वाले देश में कत्लखानों की क्या आवश्यकता है? ईश्वर की उपासना तो हिंसा, कत्ल से घृणा कराती है, सभी जीवों को जीने का सन्देश देती है, सभी से प्रेम, स्नेह, वात्सल्य सिखाती है। कत्लखाने खोलना, मांस का निर्यात करना तो धर्म का अपमान है। सरकार को किसी भी धर्म का अपमान करने का अधिकार नहीं, कोई भी हिंसा को अच्छा नहीं कहता, इन कत्लखानों से धार्मिकता कम हो रही है। इन कत्लखानों से समाज को क्या शिक्षा मिलेगी, समाज तो पशुओं की रक्षा के लिए, पशु सेवा के लिए पशु संरक्षणालय बनाता है, गौशाला बनाता है और सरकार कत्लखानों का लाइसेंस देती है। मांस नियति से धार्मिक भावनाएँ आहत हो रही हैं।
  16. आप गाँव में रहें या शहर में अथवा कहीं भी रहें, आपको ' मांस नियति' के खिलाफ एक आन्दोलन करना है। इसके लिए आप अपने यहाँ एक 'मांस निर्यात निरोध परिषद्' का गठन करें और जनमत तैयार करें और यह मात्र जैनों का जनमत नहीं अपितु आपके गाँव-शहर में रहने वाले जितने भी समुदाय हैं उनसे मिलकर विचार विमर्श करके उन सबके साथ अपनी आवाज को बुलन्द करें। रैलियाँ निकालें, धरना दें, दैनिक पत्र, समाचारों में पशु वध से होने वाली कराएँ और इस आन्दोलन को मंद न होने दें। -१९९७, नेमावर
  17. देश में बढ़ती हिंसाएं, बर्बरताएँ हमारे विनाश का मानसून तैयार कर रही हैं। कत्लखाने, पशु हत्या, मांस निर्यात, वृक्षों की कटाई, पक्षियों की तस्करी, फैलता प्रदूषण, बिगड़ता पर्यावरण ये हमारे जीवनमरण का प्रश्न है। यदि हमने इस बढ़ते पापाचार पर प्रतिबंध नहीं लगाया तो प्रकृति के प्रकुपित होने में अब देर नहीं है। प्रकृति का प्रकुपित प्रकोप भूकम्प, ज्वालामुखी, दुर्भिक्ष के भीषण विकराल दाडौं से दुनिया को चबा जाएगा। अत: आवश्यकता है एक 'जन क्रांति' की, जो दुनिया के हिंसक वातावरण को अहिंसा और करुणा में बदल दे। -१९९७, नेमावर
  18. पशुओं का वध बिना मौत के हो रहा है, इस पशु वध को रोकने में आपका क्या सहयोग है? क्या मात्र संकल्प पत्र में हस्ताक्षर? नहीं, नहीं। पशु वध को रोकने के लिए अब हस्ताक्षर की आवश्यकता नहीं, अब हस्तक्षेप होना चाहिए। हस्तक्षेप का अर्थ बाधा उत्पन्न करना और वह बाधा किसमें? हिंसा में करना है। पशु वध हिंसा है, कत्लखाने हिंसा है, मांस निर्यात हिंसा है। इस हिंसा में बाधा उत्पन्न करो। यह पशुओं की हिंसा हस्ताक्षर से रुकने वाली नहीं है इसके लिए अब हस्तक्षेप की आवश्यकता है। स्वतंत्र होने के बाद पशुओं का हमारे ऊपर डिपेन्ड होना यानि उनका संरक्षण करना चाहिए था लेकिन यह भारत इतना गरीब हो गया कि पशुओं पर डिपेन्ड हो गया यानि पशुओं को पैसा कमाना चाहता है। पशुओं का मांस बेचकर क्या भारत धनी बन जायेगा? पशुओं की हत्या करके क्या यह भारत अपने कर्ज को मिटा पायेगा? मांस बेचने से न भारत का उत्थान होगा और न उसकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी। कत्लखाने कृषि प्रधान देश के लिए कलंक हैं। -१९९७, नेमावर
  19. शिक्षा और भारत राष्ट्रीय परिचर्चा से पूर्व पत्रकार वार्ता ३ नबम्बर २o१६, भोपाल आयोजक-शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नईदिल्ली एवं श्री दिगम्बर जैन पंचायत कमेटी ट्रस्ट, भोपाल पत्रकार - आचार्य श्री! आज देश एवं समाज को मोड़ देने की जरूरत है; इस पर आप के क्या विचार हैं? आचार्य श्री - आने वाले २ दिनों में जो संगोष्ठी होने जा रही है उसकी आज यहाँ पूर्व पीठिका के रूप में आप लोग आए हैं। आपने एक शब्द कहा-मोड़ देने की आवश्यकता है। मोड़ने का अर्थ है, किसी ऐंगल को लेकर मोड़ना। जहाँ पर विपरीत ही दिशा हो, वहाँ पर मोड़ की आवश्यकता नहीं। भारतीय संस्कृति पूरब की ओर मुख वाली है अब किस ओर मोड़ना है दक्षिण या उत्तर, क्योंकि पश्चिम की ओर तो मोड़ हुआ ही है, देख ही रहे हैं। अब हम पूछना चाहते हैं कि मोड़ क्या चीज है, कितना मोड़ होना चाहिए? जो परिवर्तन हुआ है उसको वापस स्थिति में लाना ही तो मोड़ है। इसके लिए ठीक विपरीत दिशा में जाना पड़ेगा। हमें सृष्टि का परिवर्तन नहीं करना है, हमें तो दृष्टि में परिवर्तन लाना है। हम समष्टि का कल्याण चाहते हैं किन्तु कल्याण चाहने मात्र से नहीं होगा क्योंकि हमारे युवाओं में मोड़ की बात नहीं है। हमें तो भविष्य की बहुत चिंता नहीं है, हमें तो इस भारत को अतीत की और ले जाना है। जो ७० साल में विपरीत दिशा में चला गया है। उसके लिए ७० साल की आवश्यकता नहीं और ना ही १७ पापों की आवश्यकता हैं। बस, सतक होने की आवश्यकता है। यदि हम एक ही बार में घूम जाएँ तो हमारे सामने पूरब रहेगा, प्रतिदिन हम उस सूर्यनारायण का आलोक पाएँगे और जब हम विश्राम करेंगे उस समय घूमकर के देखेंगे कि सूर्य पश्चिम की ओर ढल गया है, हमें ढलने की भी बात नहीं है-मुड़ने की बात नहीं है, हमें पूरे के पूरे संकल्प लेने हैं कि हमें अतीत के भारत के दर्शन करने हैं और उसे विश्वास में लेना है इसीलिए विश्वास है। हमें राष्ट्र को नहीं मोड़ना है क्योंकि सीधा ही रास्ता है भारत का, कभी भी मोड़दार रास्ता नहीं रहा, बिल्कुल सीधा रास्ता है, वह अहिंसा का उपासक रहा है। मैं चाहूँगा कि आप लोग एकदम 'इंडिया' को एक प्रकार से पूरब की ओर ले जाएँ जहाँ ‘भारत' का दर्शन होगा और जब ‘इंडिया' में ' भारत' का दर्शन होगा तो ‘इंडिया' को पूरे के पूरे लोग भूल जाएँगे क्योंकि भारत की महिमा ही ऐसी है। एक औसत के अनुसार इसका परिवर्तन हुआ है, उसमें कमी किसकी है; मैं कह नहीं सकता, क्योंकि वर्षों तक एक सत्ता चली। वह अर्थ-व्यापार के माध्यम से सत्ता पर आई और २00-२५0 वर्षों तक सत्ता पर काबिज रही। यह बहुत भयानक स्थिति रही, इसको हम २००-२५० वर्षों तक समझ नहीं पाए। अब हमें समझना होगा और यह तभी सम्भव है जब हम इतिहास को देखेंगे एवं उसके अनुसार कार्य करेंगे। अपने को राष्ट्र का निर्माण करना है तो पीछे जहाँ से हैं बिल्कुल रास्ता बना हुआ है, बहुत ही अच्छा रास्ता बना हुआ है। आज राजनीति के जितने नेता-कर्णधार हैं उनको कहना चाहता हूँकि आप रोड का चक्कर छोड़ दीजिए मोड़ का चक्कर भी छोड़ दीजिए। आप को कोई खतरा नहीं होगा। जहाँ मोड़ होगा वहाँ पर खतरे होते हैं और गांधीजी की आवश्यकता पड़ती है। आप ऑख मींच कर भी जा सकते हैं, पर ऑख मींच कर नहीं चलना, नीचे देखकर के चलो, यह हम लोगों को भारतीय संस्कृति की विनम्रता है। आप लोग एक दिन पूर्व में आए हैं, मैं समझता था कि कल ही प्रारंभ है लेकिन पत्रकारों ने कहा एक दिन पहले पत्रकार वार्ता चलती है, क्योंकि जो परोसने वाला होता है उसको पहले से ही तैयारी करनी होती है। हमने समझा सर्वप्रथम पत्रकारों को ही परोस दो ताकि यह लोग अच्छे ढंग से थाली दिखाएँ सब लोगों को और इसको मैं अच्छा, सभ्य मानता हूँ, क्योंकि जब तक भोजन को हर व्यक्ति के पास नहीं ले जाएँगे, तो उसका मूल्यांकन बहुत कठिन होगा। फिर भी भारत बहुत समझदार है, उसको इस हाल में लाया गया है। जैसे मंदी लाई जाती है ना। वस्तुत: मंदी लाई जाती है, मंदी आती नहीं। ऐसे घुमावदार कथानकों के माध्यम से, वस्तुओं के माध्यम से भारत को एक प्रकार से विपरीत दिशा में ले जाया गया और वे उसमें सफल हो गए। सफर ज्यादा दूर नहीं है, ७० वर्ष नहीं लगेंगे और मैं बार-बार कहना चाहता हूँ७० वर्ष नहीं लगेंगे, बल्कि बहुत कम समय में हमारी दृष्टि पूरब की ओर हो सकती है। पूर्व का अर्थ होता है-ठीक दिशा जहाँ से हम आए हैं-उस ओर जाएँ हम। इसके लिए अन्धा भी अपनी आँखों का प्रयोग करता है; समझे। अंधे को भी बता दो तुम्हारा मुख पश्चिम की ओर है, अब तुम्हें पूरब की ओर करना है। तो वह अपने अनुभव ज्ञान के अनुसार तत्काल घूमकर अपना मुख पूरब में कर लेता है। हमें पूरब की ओर जाने के लिए कोई दिशा पूछने की आवश्यकता नहीं। जिस रास्ते से हम आए हैं उस रास्ते को पूछने की आवश्यकता नहीं। जहाँ भटक जाते हैं, वहाँ हमें पूछने की आवश्यकता है। भारत को चाहिए कि किसी की पूछता के चक्कर में ना रहे। आप भी याद रखें, हमेशा-हमेशा इसको पूरब की ओर ही जाना है और फिर इसके उपरांत बहुत समय नहीं लगेगा। कुछ ही दिनों में हम उसका अनुभव कर सकते हैं। जो हमारे पास था-जो है, इस प्रकार अनुभव होगा जैसे सब कुछ बदल गया है। यद्यपि आप लोग कुण्डली को मानते हो या नहीं मानते हो, मैं नहीं समझता, लेकिन इंडिया के कारण भारत की कुण्डली बदल गई है। पुन: भारत को अपने रूप में लाने के लिए इंडिया को छोड़ना होगा, हमें किसी को हटाना नहीं है। हमें ईस्ट दिशा की ओर जाना है बस। किसी को हम उपेक्षा दृष्टि से नहीं देखेंगे, किन्तु हमारी अपेक्षा पूरब की है। हम किसी का विरोध नहीं कर रहे हैं, हम समर्थन नहीं करेंगे, क्योंकि हम पूर्व वाले पश्चिम का समर्थन कभी संस्कृति, आधार भिन्न-भिन्न हैं। एक प्रश्न यह उठता है कि विरोध क्यों न किया जाए? तो हम पश्चिम का विरोध करके हम अपनी शक्ति को क्यों खोएं? हम तो बोध रखने वाले हैं और होश-हवास के साथ चलने वाले हैं किन्तु प्रमाद के कारण पूरा-पूरा परिवर्तन हो गया, भारत के इतिहास का। इसीलिए 'इंडिया' आ गया। 'इंडिया' नाम ही अपने आप में गड़बड़ है। इतना ही पर्याप्त समझता हूँ कि हमें भारत की पहचान के लिए घूमकरके विपरीत दिशा में अपना मुख करना है, और तब हमारे सामने जो भारत दिखेगा, वह भारत देखने योग्य है, महसूस करने योग्य है और उसमें कोई चिंता का विषय नहीं है। अपने पास सब कुछ भंडार हैं। चेतन का भी भंडार है, अचेतन का भी भंडार है। इतिहास का भी भंडार है, गणित का भी भंडार है। कोई भी इतिहास खोल करके आप एक बार देख लीजिए। जो कुछ भी विज्ञान है और तंत्र-ज्ञान है या कृषि-विज्ञान वह सब भारत से निकले हैं, भारत में ही ऐसा होता था। भारत तो खान है, बस खान को खोदने वाले की आवश्यकता है। इनमें मूर्धन्य विद्वान्, चिंतक और भारत के हितैषी सब कह रहे हैं, उनको हमें सुनना है, लेकिन उनकी सुनते हुए कोई शब्द खटकेगा; तो हम उसका उत्तर अवश्य देने का प्रयास करूंगा और भारतीय इतिहास के आधार पर देने का साहस अवश्य करूंगा। आप पत्रकारों से मेरा कहना है कि आप भी वही साहस के साथ इसका प्रकाशन अवश्य करें। मेरा कहना है आप डरिए नहीं, भारत कभी भी डरता नहीं है। जो वस्तु-स्थिति है उसको सबके सामने रखना चाहिए। आप दबकरके मत चलिए, दबंगता के साथ चलिए। जनता आपके साथ अवश्य रहेगी, लेकिन अखबार के साथ खबर अच्छी रखना चाहिए। खबर अच्छी का अर्थ स्वादिष्ट नहीं, सही रखना चाहिए। सही का समर्थन यदि आप लोग नहीं करेंगे तो कभी भी इस देश का उद्धार नहीं होने वाला है। आप एक मजबूत स्तंभ के रूप में हैं और इसकी बड़ी आवश्यकता है। आप लोग यहाँ आए हैं, आपके लिए जो कुछ बताना आवश्यक था वह बता दिया है।
  20. ये 'इण्डिया' नहीं ‘भारत है। आप अपने आप पर नियंत्रण रखी। आज स्वतंत्रता का दिन है। आप बताएँ कि आप भारतीय हो कि इण्डियन? जब आप भारतीय हैं तो आप 'इण्डियन" कहना, लिखना, बोलना, सुनना क्यों पसंद करते हैं? क्या किसी के कहने से आप इण्डियन हो गए। जब आपको प्राचीन ऋषि मुनियों ने भारतीय माना है, कहा है, तो उनकी बात को क्यों नहीं अपनाते? प्राचीनता से ही तो पहचान होती है और वही प्रामाणिक होता है। जिस पर आपकी श्रद्धा है, विश्वास है, आपका स्वाभिमान है, उसको छोड़ना और पराये को ग्रहण करना ये कहाँ की समझदारी है? अब कम से कम इण्डिया के जितने भी संकेत आदि हैं उसके ऊपर भारत लिखना प्रारम्भ कर दी, लेकिन इंग्लिश में नहीं, आप जिस प्रदेश में रह रहे हैं उस प्रदेश की भाषा में लिखें। हम इसलिए यह बात कह रहे हैं कि आप स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहे हैं, आप पूर्णत: स्वतंत्र हो जाएँ। आज १५ अगस्त का दिन है; सभी भारतवासी इसे अच्छा मानते हैं क्योंकि इस दिन स्वतंत्रता मिली थी। इसका मतलब है कि स्वतंत्रता अच्छी है, जो सुख और शान्ति प्रदान करती है। जब आप स्वतंत्र हो गए तो भारत को भी स्वतंत्र करो, उसकी परतंत्र बना रखा है इण्डिया ने और इस इण्डिया से आप लोग ही स्वतंत्र कर सकते हैं भारत की। कुछ लोग कहते हैं भारत को बचाने से क्या होगा? वह तो भोगभूमि बनने वाला है। मैं कहता हूँ परिवर्तन तो होगा किन्तु समय से पहले क्यों? जब तक पूर्ण परिवर्तन नहीं होता तब तक यहाँ के रहने वाले भोगभूमिज नहीं माने जा सकते, क्योंकि उन्हें कर्म करना ही पड़ेगा और भारत की शान बचाना चाहते हो तो कर्म करना ही पड़ेगा, किन्तु सर्वप्रथम यह ध्यान रखना पड़ेगा। अपनी जो नीति है उसको छोड़े बिना सत्कर्म का पुरुषार्थ करना होगा। तभी आप अपने राष्ट्र की शान बचा पाएँगे। परतंत्र होने के कारण आपने विदेशी नीतियों को स्वीकार कर रखा है। मैं आप लोगों के सामने यह विचार रखना चाहता हूँ कि भारत के समान परतंत्र और भी देश थे किन्तु स्वतंत्र होते ही जापान और चीन जैसे देशों ने दूसरे दिन से ही अपनी सार्वभौमिक स्वतंत्रता के रूप में अपने देश के समस्त कार्य अपनी भाषा में करना शुरु कर दिए। भारतीयो, सुन रहे हो ना, ये स्वाभिमान की बात है। स्वाभिमान का अर्थ समझते हो?. ये अभिमान की बात नहीं है, ये मर्यादा की बात है। हमने कायिक और वाचनिक स्वतंत्रता ही नहीं ली अपितु मानसिक स्वतंत्रता भी ली है। जिस कारण अपनी सांस्कृतिक धरोहर को पुनः जीवित कर लिया संस्कृति भाषा से सम्बन्ध रखती है। जिसका आदान-प्रदान, शिक्षण, पठन-पाठन, चिन्तनमनन, लेखन-वाचन सब कुछ स्वभाषा में होने लगा। देखते ही देखते दोनों ही राष्ट्र पूर्णतः सक्षम बन गए। ये आप सब के सामने है। अब आप ही भारत की आजादी के बारे में बता दीजिए। आप आजाद हैं या नहीं?.... सारे कार्य इंग्लिश में हो रहे हैं। संसद और विधानसभाओं के कार्य या न्यायालयों के कार्य हों, उच्चशिक्षाओं के कार्य हों या फिर नौकरी पेशे के कार्य हों, सभी तो इंग्लिश में हो रहा है। जबकि पूरा देश इस भाषा के प्रति सर्व सम्मत नहीं है। सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश में कितने लोग इंग्लिश भाषा को जानते हैं? उनसे राय ली ही नहीं गई और चंद लोगों ने इंग्लिश के माध्यम से सर्वतंत्र पर अपना अधिकार जमा रखा है। इससे देश का स्वाभिमान कैसे बढ़ सकता है? कुछ लोग इंग्लिश के जानकार हैं वह इंग्लिश में कार्य करने को अपना स्वाभिमान समझते हैं। क्या उनकी इस समझ को सही कहा जा सकता है?.....इसमें जो अभ्यस्त हो चुके हैं। वे हमें बताएँ कि इसमें आपका क्या है? अंग्रेजी का उपयोग नहीं करेंगे तो आपकी क्या हानि होगी? बस इतना ही ना कि हमने पढ़ाई उसी में की है तो हमें और कुछ आता नहीं। पर मैं इसको गलत समझता हूँ। माँ-पिता के साथ आप किस भाषा में बात करते हैं? परिवार के साथ आप किस भाषा में बात करते हैं? अपनी भावाभिव्यक्ति किस भाषा में करते हैं? मातृभाषा के बिना तो कर ही नहीं सकते। करते हैं तो आप घर के सदस्य कैसे माने जा सकते हैं? इंग्लिश सीख लेने से क्या आप इंग्लिश में रोते हो या इंग्लिश में हँसते हो? हमने जब से सुध लिया है देख लिया है कि किसी को भी इंग्लिश के ऊपर पूर्ण अधिकार नहीं है। गिने-चुने ही कुछ लोग होंगे जिन्हें ज्ञान अधिक हो सकता है। आज पूरे देश के शहरों में जहाँ जाओ वहाँ भारतीय भाषाओं का लोप किया जा रहा है। सब जगह इंग्लिश-इंग्लिश इस कारण जहाँ देखी वहाँ घर-बाहर सभी जगह इंग्लिश का बोलबाला हो गया है। महिलाएँ भी संस्कार खो बैठीं हैं। वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, शिक्षा-दीक्षा सब समाप्त हो गया। क्या इसका नाम स्वतंत्रता है?. में इसको स्वतंत्रता नहीं मानता, मैं इसका समर्थक न था, न हूँ न रहूँगा। यदि मेरी बात अच्छी लगती हो तो आप लोगों को इस दिशा में अभियान चालू कर देना चाहिए। यह कोई देशद्रोह नहीं होगा बल्कि देश की संस्कृति को सुरक्षित रखने का पवित्र अभियान होगा। स्वतंत्रता का झूठा अभिमान मत करो, किन्तु मर्यादा सिखाने वाली संस्कृति को सुरक्षित करने का स्वाभिमान जागृत करो, यही एक मात्र देशभक्ति है और कोई भक्ति नहीं। आप लोगों ने तो देश का नाम तक परिवर्तित कर रखा है। तो शिक्षा में परिवर्तन कैसे करोगे? किस प्रकार करोगे? जिस प्रकार बॉम्बे था उसको मुम्बई बनाया गया, 'मद्रास' था उसको 'चेन्नई' बनाया गया, 'कलकत्ता' था उसे 'कोलकाता' बनाया गया, इसी प्रकार इण्डिया को भारत बनाओ। जब तक इस प्रकार आप जागृति नहीं लाओगे, हम आपसे कौन-सी भाषा में बोलेंगे? मुझे बताओ। मुझे इंग्लिश आती भी हो तो मैं इंग्लिश का प्रयोग नहीं करना चाहता। क्यों करूं? हम अपनी भावाभिव्यक्ति जिस भाषा से कर सकते हैं उसमें करना मैं उचित समझता हूँ, क्योंकि वह हमारे लिए सहज, स्वाभाविक, मौलिक भाषा होगी तो हम अच्छे से अपने भाव व्यक्त कर सकते हैं। आप जिस भाषा में समझना चाहते हैं यदि वह भाषा मुझे नहीं आती तो हमारे भाव आप तक नहीं पहुँच पाएँगे। अत: इसमें किसी प्रकार की मर्यादा को तोड़े बिना आप अभियान को चलाएँ। पहला तो जो हस्ताक्षर का महत्व है उसको समझे और हस्ताक्षर को अपनी भारतीय भाषा में करें तो मैं समझेंगा कि आपने बहुत कुछ संकल्प ले लिया और एक दिन भारत अपनी भाषा के बलबूते अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त कर सकेगा। आपने कभी अपना दिमाग चलाया कि जब सभी देश के नाम जो उनके परम्परा से चले आ रहे हैं उन्हें ज्यों का त्यों लिखा जाता है। जब वे परिवर्तित नहीं हुए तो भारत के लिए क्या हो गया?. तो फिर परतंत्रता का प्रतीक नाम क्यों?....इण्डिया के नाम पर विचार करो, उन्होंने भारत का नाम परिवर्तन क्यों किया? यह परिवर्तन कब हुआ? किसकी सहमति से हुआ? जरा विचार तो करो। इंग्लिश में अनुवाद करना ही है तो भारत नाम के अर्थ का भाव आना चाहिए या फिर ज्यों का त्यों रोमन इंग्लिश में लिखना चाहिए। भारत का नाम ऐतिहासिक नाम है; जो आज का नहीं है, आदिब्रह्मा ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् भरत के नाम से चला आ रहा है इसको बदलने वाले भारतीय संस्कृति से अनभिज्ञ थे और आज आप लोग पढ़े-लिखे हो इसके उपरान्त भी इंग्लिश बोलना, लिखना सौभाग्यशाली मानते हो। भाषा की स्वतंत्रता जब तक नहीं तब तक देश की उन्नति आप कर नहीं सकते। आज देशी-विदेशी विद्वानों ने दार्शिनिकों ने, वैज्ञानिकों ने कहा है-जिस राष्ट्र में अपनी भाषा नहीं उसका कभी भी विकास नहीं हुआ, ‘न भूतो, न भविष्यति"। फिर किस विश्वास के साथ आप लोग इंग्लिश माध्यम का समर्थन करते हो? एक व्यक्ति आए थे उन्होंने अपने शोध के बारे में बताया कि उन्हें विदेश नीति पर अनुसंधान/शोधप्रबन्ध लिखना था तो उन्होंने उस समय के नेताओं से अनुमति माँगी कि मैं इसको अपनी भाषा में लिखेंगा, अंग्रेजी में नहीं, क्योंकि मैं शोधप्रबन्ध में अपने भावों की अभिव्यक्ति मातृभाषा में ही अच्छे से कर सकूंगा और मेरी मातृभाषा हिन्दी है मैं हिन्दी में लिखेंगा। तो उस समय के नेताओं ने मना कर दिया। इन्दिरा जी प्रधानमंत्री थीं उन्होंने भी इंग्लिश में ही लिखने का आग्रह किया और कहा कि इससे महत्व बढ़ेगा, गौरव बढ़ेगा, नाम होगा। तब शोधार्थी ने कहा-गौरव बढ़ता है काम से, नाम से नहीं, क्या मेरे पास भाषा नहीं है?, क्या हिन्दी में अनुसंधान नहीं हो सकता? उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, तक्षशिला विश्वविद्यालय आदि के बारे में बताया तो उन्हें हिन्दी में ही लिखने के लिए इन्दिरा जी ने अनुमति प्रदान की थी। पूर्व में महात्मा गाँधी जी ने भी इसके बारे में ललकारा था कि 'यह ठीक नहीं है, मैं इसका समर्थक नहीं हूँ।” इण्डिया नाम की बहुत बड़ी गुलामी चल रही है। इस दिशा में आप लोग सोचते हैं तो आपकी उन्नति पक्की है और उन्नति करना नहीं है सिर्फ भारत को लौटाना है। जो भारत अतीत में था वहाँ तक आने के लिए पसीना बहाना पढ़ेगा। आपने स्वर्ण अक्षरों से लिखे हुए भारत के इतिहास को परतंत्रता के कारण खो दिया है। जब स्वतंत्रता मिली है तो हमें उस इतिहास को लौह अक्षरों से नहीं स्वर्ण अक्षरों से लिखने के लिए पुरुषार्थ करना होगा। इतिहास को भूलने के कारण आज धूल खाना पड़ रही है, पुन: भूल न करिए। कम से कम अपने हस्ताक्षर अपनी मातृभाषा में अवश्य करें। -१५ अगस्त २o१६, भोपाल
  21. भाषा के माध्यम से भावों का आदान-प्रदान होता है। ऐसे भावों को प्रचार-संप्रेषण करें जिससे भारत वापस लौट आए। 'इण्डिया' नहीं ‘भारत' कहो के स्वर को गुंजाओ। भारत बोली, भारत लिखी, भारत सुनो, भारत के लिए जियो क्योंकि भारत हमारी आन-बान-शान है। -१५ जुलाई २०१६, सती कॉलेज, विदिशा
  22. पहले नामकरण भविष्य की उज्ज्वलता के हिसाब से किया जाता था। हमने भारत का नामकरण इण्डिया कर दिया। इण्डिया का अर्थ है अपराधी, क्रूर, लड़ाकू, पुराने ढर्रे का व्यक्ति, भारत का नाम इण्डिया जानबूझकर अंग्रेजों ने किया है। भरत चक्रवर्ती के नाम से ये भारत नाम था जिसे विदेशी प्रभावों ने गुलामी की मानसिकता वाला इण्डिया बना दिया है। हम अपने नामकरण को, अपने प्राचीन इतिहास को स्वयं भुला रहे हैं। अंग्रेजियत मानसिकता के कारण प्रतिभा को दबा रहे हैं। जो कार्य बुद्धि से करना चाहिए वह आज 'इंटरनेट" के आदी (हेबूच्युल) बनकर कर रहे हैं। -१६ अक्टूबर २०१६, भोपाल
  23. पत्रकार - आचार्य श्री! एक बात लगातार चल रही है ' भारत' और ‘इण्डिया' की; इसमें आप क्या कहना चाहते हैं? आचार्य श्री - मैं आप लोगों से पूछना चाह रहा हूँ इण्डिया का उद्धव कब हुआ? किसके माध्यम से हुआ? और क्यों हुआ? कम से कम ये तीन बिन्दु हमारे सामने आते हैं। हमें इन सब पर विचार करना आवश्यक है। जब भारत अनेक भागों में विभाजित था तब भी हर राज्य अपना इतिहास रच रहा था और विश्व के ऊपर अपना प्रभाव स्थापित कर रहा था। जब ब्रिटिश-अंग्रेज लोग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रूप में व्यापार के उद्देश्य से भारत में आए तब तक भारत का नाम इण्डिया के रूप में प्रचलित नहीं था। उन्होंने व्यापार के माध्यम से धीरे-धीरे पूरे देश पर अपना प्रभुत्व जमा लिया। भोले-भाले भारतीय लोग एवं राजसत्ताएँ उनके षड्यंत्र को समझ नहीं पाए तो उन्होंने व्यापार के माध्यम से भारत के इतिहास को परिवर्तित कर दिया। हम कहना चाहते हैं कि एक कम्पनी के नाम से देश का नामकरण होना असंभव-सा लगता है। आप लोगों ने इस ओर गौर नहीं किया। उन्होंने देश का नाम बदला उसके पीछे उनका क्या उद्देश्य हो सकता है? आप इसकी खोजवीन कर सकते हैं। उन्होंने अपने षड्यन्त्र में सफलता प्राप्त कर ली। दुनिया में अनेक प्रकार की भाषाएँ हैं। भारत में भी अनेक भाषाएँ हैं, लेकिन नाम का अनुवाद किस भाषा में किया जाता है?'भारत' का अनुवाद ‘इण्डिया' किस भाषा में होता है? आप मुझे बता दीजिए। यदि नहीं होता तो फिर 'इण्डिया' नाम रखने का क्या उद्देश्य हो सकता है? मैं 'इण्डिया' या 'इण्डियन' शब्द का निषेध नहीं कर रहा हूँ, अमेरिका आदि देशों में ये शब्द प्रचलन में हो सकते हैं। क्या उसी प्रकार भारत को एवं भारतवासियों को स्वीकारने का उद्देश्य तो नहीं था उनका? जैसे अमेरिका में ‘इण्डियन' हैं और उनके स्थान को इण्डिया कहते हैं तो उसके पीछे उनका कोई उद्देश्य होगा? उसका भी अवलोकन करना चाहिए। वहाँ तो एक प्रकार से उनको उसी रूप में स्वीकार करते हैं वे उन्हें कहते हैं। offensive मतलब दास। दास के रूप में स्वीकारा गया है। एक प्रकार से विरोधी तत्व के रूप में स्वीकारते हैं और Old Fasion ये शब्द रखते हैं। इसका सही अर्थ तो यह निकलता है पुराने ढर्रे के कोई विरोधी तत्व-आपराधिक तत्व। इसके साथ ही एक शब्द और आता है old Fasion hamates perSon ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में इण्डिया के ये अर्थ बतलाए गए हैं। मैं आप लोगों से पूछना चाहता हूँ कि भारत पर इण्डिया शब्द लागू करने के पीछे क्या उद्देश्य था? क्या उनकी नजर में भारत के निवासी 'क्रिमिनल' या विरोधी तत्व हैं या dactive हैं? ये कुछ ऐसे बिन्दु हैं जिनके बारे में अभी तक गहराई से चिंतन नहीं किया गया। यदि कर रहे हैं तो बहुत विलम्ब किया जा रहा है। इसका बहुत जल्दी परिणाम घोषित किया जाना चाहिए। अब इसके पीछे भारत के किसी भी अंग को यह नहीं सोचना चाहिए कि नाम परिवर्तन करना ठीक नहीं है। जो अपने आप को भारतवासी मानता है उसे अपने देश का नाम ‘ भारत' स्वीकार कर लेना चाहिए। इससे किसी भी भाषा में हमारा विरोध नहीं होगा और ना ही किसी परम्परा से विरोध होगा। जब भारत नाम का अनुवाद किसी भी भाषा में इण्डिया के रूप में नहीं होता है तो फिर भारत की किसी भी भाषा में भारत ही लिखा जाना चाहिए, इससे किसी को कोई बाधा नहीं होना चाहिए, क्योंकि संज्ञा का किसी भी स्थिति में परिवर्तन नहीं हो सकता, जैसे आप सभी के नाम। अत: भारत एक व्यापक रूप में था, है और रहेगा। हमें भारत के रूप में ही स्वीकार करना होगा। मैं मानता हूँ कि विश्व में हिन्दुस्तान नाम भी प्रचलन में आया था, लेकिन वह भी किसी स्थान को लेकर। आप सब को मालूम है कि सिन्धु नदी को विदेशी लोग हिन्दु नदी कहते थे और हिन्दु नदी के तट पर रहने वाले को हिन्दुस्तान कहते थे। इसमें हमें ऐतराज नहीं क्योंकि वह स्थान को लेकर नाम है, किन्तु भारत का नाम अनादिकाल से है या यूँ कहना चाहिए कि कोई आदि नहीं, सभी को स्वीकृत है। इसलिए वही नाम चाहने में गलत क्या है? इण्डिया नाम अंग्रेजी भाषा का है जिस कारण भारतीय भाषा से लोग कट रहे हैं और आग्ल भाषा भारत देश की संस्कृति, इतिहास, जीवनदर्शन को नष्टकर हमारे स्वाभिमान गौरव आस्था को नष्ट कर रही है। साहित्य एवं संस्कृति समाज का दर्पण होता है। अंग्रेजी के कारण सब नष्ट हो रहा है। आप लोगों को १८वीं१९वीं शताब्दी का इतिहास पता नहीं है, शासन-प्रशासन में बड़े-बड़े ओहदों पर बैठे हुए लोगों को भी भारतीय इतिहास का सही ज्ञान नहीं है। वर्तमान में ऐसे इतिहास की रचना कर दी गई है जो थोड़ी-थोड़ी बातों को बताता है, पूर्ण रहस्यों का उद्घाटन नहीं करता। यह सब बहुत गलत हो रहा है। भारत का अपना स्वर्णिम इतिहास है, अपनी वैज्ञानिक भाषाएँ हैं, किन्तु हमारी अज्ञानता के कारण सब कुछ उल्टा हो रहा है। इसलिए हम भारतवासियों से कहना चाहते हैं कि आपके प्राणों से देना चाहिए और सर्वप्रथम देश का नाम भारत लिखना, पढ़ना, बोलना प्रारम्भ कर देना चाहिए। यदि विलम्ब करते हैं तो कौन से प्रलोभन के कारण करते हैं, देश को इसका जवाब दीजिए। —पत्रकार वार्ता ९ सितम्बर २०१४, विदिशा चातुर्मास (क्षमावाणी पर्व)
  24. आज की चिकित्सा पद्धति व्यवसायिक चिकित्सा पद्धति बना दी गई है, जबकि भारत में प्राचीन समय में चिकित्सा और शिक्षा सेवा के रूप में दी जाती थी। ऐसा नहीं है कि पहले शरीर की चिकित्सा नहीं होती थी, प्राचीन आयुर्वेद ग्रन्थों को पढ़ो तो ज्ञात हो जाएगा। हजारों वर्ष पूर्व भी शरीर की शल्यचिकित्सा होती थी। ये जो प्लास्टिक सर्जरी है वह आज की नहीं है; यह आयुर्वेद शास्त्रों के अनुसार प्राचीन भारत में होती थी। यह विदेश का आविष्कार नहीं है। यह विशेष भारत का आविष्कार है। इस सम्बन्ध में विदेशी विद्वानों ने भी लिखा है आप उसे देख सकते हैं। शरीर की चिकित्सा के लिए आज के डॉक्टर दवाईयाँ दे देकर उसे और खराब करते हैं। ऐलोपैथी वाले डॉक्टर स्वीकार करते हैं कि ऐलोपैथी से साईड इफेक्ट होते हैं, फिर भी वे आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार चिकित्सा नहीं करते, उन्होंने इसे पढ़ा ही नहीं। आयुर्वेद में शरीर चिकित्सा के लिए उपवास करना अनिवार्य बताया है। उपवास करने से कुछ बिगड़ता नहीं, बल्कि बिगड़ा हुआ बाहर आ जाता है। आप लोग शरीर की प्रकृति के विपरीत चलते हैं। कोई नियंत्रण नहीं रखते अपने मुख पर, कभी भी खाओ, कितना भी खाओ, कुछ भी खाओ, खाते जाओ, तो डॉक्टर कहता है गोली खाते जाओ और कुछ भी खाओ, कभी भी खाओ। उसको तो अपना व्यवसाय चलाना है। जब उनका व्यवसाय नहीं चलता है तो कहते हैं-सीजन नहीं चल रहा है। आज तो चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत बड़ा व्यवसाय बन गया है। इतना बड़ा व्यवसाय तो भारत में कभी नहीं रहा, क्योंकि आयुर्वेद तो जड़-मूल से ठीक करता है। उसका उद्देश्य व्यवसाय चलाना नहीं होता है। आज देश को आजाद हुए ७0 साल हो गए हैं। उसे अपनी आयुर्वेद संस्कृति की ओर लौटना चाहिए जिससे ऐलोपैथी की परतंत्रता और आर्थिक हानि से बच सकें। सभी को यह बात याद रखनी चाहिए-'जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन। जैसा पीवे पानी, वैसी होवे वाणी।' -१५ अगस्त २o१६, भोपाल
×
×
  • Create New...