वैराग्य मूर्ति देख के मन शान्त होता। जो भेद-ज्ञान स्वयमेव सु जाग जाता।। विश्वास है वरद हस्त हमें मिला है। संसार चक्र जिसमें भ्रमता नहीं है।। ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य ज्ञान सागराय अनर्ध्यपद प्राप्तर्य अर्ध्य नि0 स्वाहा।