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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. अहर्निश आत्मा में ध्यान निधिध्यास अध्यास / अभ्यास के फलस्वरूप आपमें हुआ है सम्यग्ज्ञान रूपी जाज्वल्यमान प्रमाण का आविर्माण...! इसीलिए चेतना की समग्र सत्ता पर पूर्ण प्रभाव डालता विद्यमान मूर्तमान मान ने भावी अनंतकाल के लिए आपको अपनी पराजित पराभूत ! पीठ दिखाता धावमान... किया प्रयाण... हे निरभिमान! यह अंतर्घटना की भावाभिव्यक्ति प्रमाण की सघन शान्त छाँव में सहज सहवास में रहने वाली धरती निरखती आपकी नत / विनम्र नासिका ने मानाभिभूत मान की मूर्ति पूर्ण फूला चम्पक फूल को जीतती हुई की है...
  2. हे! प्रभो! आपने सिद्धांत के सारमय समयसारमय वीतराग वीतमोह स्वभाव भाव की प्रसूति से पर निरपेक्ष स्वापेक्ष विभूति से शुद्धात्मानुभूति से वैभाविक / औपाधिक क्रोध प्रणाली को जो संसार की पृष्ठभूमि है जड़ है अपने चेतन के धरती-तल से आमूल उखाड़ दिया है अन्यथा... आपाद कंठ अंग अंग औ उपांग आपके अनंग के अंग की नैसर्गिक आभा का उपहास करने वाले पलाश के उत्फुल्ल फूल की लालिमा को धारण करते हैं किन्तु करुणा रस से आपूरित लबालब निश्चल अडोल विशाल दो लोचन लाल अरुण वर्ण से वंचित क्यों ?... रंजित क्यों नहीं...?
  3. हे अनंत! हे अमूर्त ! अनंत अमूर्त आकाश में होकर भी विमलता की अभ्रंलिहा शिखरिणी पर आवास / अवकाश है आपका जब ये मूर्त लोचन विषयातीत होकर भी... विषय नहीं बना पाये आपको तब...! अन्य सभी कार्यों से उदास यह मेरा मन क्षण-क्षण आपके श्रुत का आधार ले आप तक पहुँचने का प्रयास प्रारंभ किया है लो! अनायास श्वास श्वास पर आपके नाम अंकित आसीन कराता श्वास नाभिमंडल से प्रतिक्रमा के रूप में हृदय-कमलचक्र से पार कराता हुआ ब्रह्मरंध्र तक पहुँचाता ऊर्ध्वगम्यमान आज...! आपका श्रुतिमधुर संगीत निजी श्रवणों से साक्षात्कार कर रहा हूँ निस्संग हो निश्शंक हो निडर निश्चित हो मौन! मृदु मुस्कान के साथ हे! नाथ! उचित ही है पुखराज की हरीतिमा को जीतने वाली चंचल माला लचीली पतली तनवाली थोड़ा-सा पवन का झोंका खा झट-सी धरा पर गिरने वाली माधुर्य मार्दववती माधवी लता अपदा!.....अशरणा भी!... उत्तुंग ऋजु वंश की शरण ले वंश से लिपटती-लिपटती गुरुओं के प्रति समर्पण जीवन में अवंशजा पर...!! वंश-मुक्ता को औ !... वंशीधर को भी प्रभावित करती हुई वंशातीत हो शून्य में... शून्य से वार्ता करती लहलहाती क्या नहीं जीती...?
  4. हे! कंदर्प-दर्प से शून्य! जित कंदर्प! सम्पर्क में जब से आया हूँ आपके...! आपके तप्त कनकाभ तन के मेरु अकम्प मन के नीर-निधि गंभीरतम दिव्य श्राव्य वचन के और!... महासत्ताभिभूत गुणगण के परिणमन का प्रभाव ! ऐसा पड़ा है मुझ पर!... कि अकृत पूर्व निजी कार्य में अनिवार्य मैं अहर्निश हुआ हूँ तत्पर!. और यह क्या ? जीवन का वह प्राचीनतम रंग चंचल सकम्प मन का ढंग अंग व्यंग और अनंग! पूर्णतः परिवर्तित हो गया है एक मौलिक अलौकिक आभा में तुम सा...! किन्तु ! इसमें केवल ! आपकी ही विशेषता नहीं है। मेरी भी आप में प्रभावित करने की शक्ति निहित है तो!. इस चेतन में प्रभावित होने की भावित होने की यह निमित्त-नैमित्तिक संबंध है आप निमित्त हैं बाह्य कारण मैं उपादान आभ्यंतर अनन्यतर इतना ही मुझमें और आप में... अंतर उचित ही है प्रत्येक निमित्त, प्रत्येक उपादान को प्रभावित नहीं कर सकता हाँ ! प्रत्येक उपादान, प्रत्येक निमित्त से प्रभावित भी कहाँ होता ? लाल-लाल कोमल गुलाब फूल! उज्ज्वल / उज्ज्वलतम स्फटिक मणि को अपनी आभा के अनुरूप अनुकूल भावित करता है किन्तु... पाषाण खंड को क्यों नहीं करता ?
  5. धवलिमा सी छवि धारती मृदुल-मृदुलतम सकल दलों सहित । मम चेतना कुमुदिनी विकास ह्रास उल्लास में… आपके शुभ्र-शुक्ल अतुलनीय कमनीय वर्तुलीय विमल निर्मल शीतल मुख मण्डल से पराजित हुआ लज्जित हुआ पूर्ण चन्द्र भी चूर-चूर हो अशरण हो आपके तारण-तरणों चरणों में शरणाभिलाषी दिन-रात... सेवारत नखावलि के मिष ! कारण है ! हे! जगदीश ! सकलज्ञ धीश !
  6. शुद्धता की चरम सीमा पर सानन्द नर्तन करता हुआ शुद्ध स्फटिक मणि से निःसृत दधि / दुग्ध-धवलित निर्जरा का निर्झर ! झर! झर! झर! झर रहा... अरुक / अथक अनाहत गति से उस ध्रुव बिन्दु की ओर.... अपार अनंत सिन्धु की ओर... पथ में किसी से वार्ता नहीं किसी से चर्चा नहीं किसी प्रलोभनवश किसी सम्मोहनवश अन्य किसी की अर्चा नहीं तथापि मौन भाषा में अविरल / अविकल मनमोहक संगीत... गुनगुनाता... सहज सुनाता जा रहा...! कि उपास्य के प्रति अपने जीवन के अपने सर्वस्व के अर्पण में समर्पण में..... ही उपासना का साकार!... निराकार!.. निर्विकार!... दर्पण निहित है जिस दर्पण में उपास्य की उपासक की एवं उपासना की गतागत अनागत प्रतिछवियाँ गुण-मणियाँ झिलमिल झिलमिल निधियाँ... तरल तरंगित हैं लो...! यह कैसा ? अद्भुत परिणमन विविध गुणों के सुमन विलस रहे हैं वस्तुतः सब कुछ उपलब्ध हुआ है इस समय तभी खुल खिल विहँस रहे हैं प्रति समय उनके परिणाम अविराम विनस रहे हैं किन्तु गुणों का अभाव!... नहीं हो रहा है... ......रहा है सद्भाव तद्भाव! क्योंकि परिणमन रूपी बहता हुआ पवन मन्द-मन्द उन गुण सुमनों के मकरन्द को सम्पूर्ण चेतना-मंडल में प्रसारित कर रहा है फलस्वरूप समग्र जीवन सुगंधित हो महक उठा है। सुन लो...! तब यह गीत चहक उठा है... यह है चिदानन्दमयी नन्दन !... यहाँ ना तो बन्धक है ना बन्धन!... ना तो क्रन्दक है ना क्रन्दन!... और... ......और क्या ना तो वन्दक है ना वन्दन !... चेतना की यह असीम ......अपार धरती एक अपूर्व संवेदनामय हरीतिमा से उल्लसित पुलकित है लो! मन को हरती है भूत नहीं है अभूत!... अनुभूत नहीं है अननुभूत... मस्त!... साधु संन्यासियों को भी यह श्रुत परिचित / विदित सकल संसार / विकल अपार सागर है क्षार दुख से भरपूर ऐसा मानता आया आभास करता आया अब तक! आनंद से सहज सुख से रहा मैं दूरा पीठ किन्तु आज वह । झूठी भ्रान्त धारणा टूटी जीवन में आलोक की प्रखर किरण फूटी है और मैं... आसीन हूँ सुखासीन हूँ स्वाधीन हो विभाव के अभाव में तनाव के अभाव में सहज स्वभाव में चेतन की छाँव में लो ! अनुभव कर रहा हूँ कि सत्य प्रमाणित होता जा रहा है तथ्य सम्मानित होता जा रहा है सुख को मेरा कृत्य अबाधित बोता जा रहा है संसार नहीं असार नहीं क्षार ....सागर..... किन्तु सम / सम्यक् समीचीन सार है संसार...! साकार / चेतनाकार सब सारों का सार जीवित समयसार !
  7. दिगम्बरी दीक्षा पश्चात् पावन वेला में परम पावन / तरण-तारण गुरु चरण सान्निध्य में ग्रन्थराज ‘समयसार’ का चिंतन मनन अध्ययन यथाविधि प्रारंभ हुआ अहा!. यह थी गुरु की गरिमा महिमा / अस्तिमा कि कन्नड़ भाषा-भाषी मुझे अत्यन्त सरल / श्रुति-मधुर भाषा-शैली में ‘समयसार’ के हृदय को खोल-खोल कर बार-बार दिखाया प्रति गाथा में अमृत ही अमृत भरा है और मैं पीता ही गया... ......पीता ही गया ... माँ के समान गुरुवर अपने अनुभव और मिला कर घोल-घोल कर पिलाते ही गये पिलाते ही गये!... मुझे ! शिशु-बाल मुनि को ! फलस्वरूप उपलब्धि हुई अपूर्व विभूति की आत्मानुभूति की और 'समयसार' ग्रन्थ भी ......ग्रन्थ / परिग्रह... प्रतीत हो रहा है पीयूष भरी गाथायें रसास्वादन में डूब जाता हूँ... अनुभव करता हूँ कि ऊपर उठता हुआ... ...उठता हुआ ऊर्ध्वगममान होता हुआ सिद्धालय को पार कर गया हूँ... सीमोल्लंघन कर गया हूँ... अविद्या कहाँ...? कब ? सरपट चली गई पता नहीं रहा आश्चर्य यह है कि जिस विद्या की चिरकालीन प्रतीक्षा थी... उस विद्यासागर के भी पार... ......बहुत दूर... ......दूरातिदूर... पहुँच गया हूँ अविद्या / विद्या से परे ध्यान-ध्येय / ज्ञान-ज्ञेय से परे भेदाभेद / खेदाखेद से परे उसका साक्षी बनकर उद्ग्रीव उपस्थित हूँ अकम्प निश्चल शैल!... चारों ओर छाई है सत्ता / महासत्ता... सब समर्पित / अर्पित स्वयं अपने में
  8. पश्चिम से पूर्व की और ध्वजा का जाना एक शुभ संकेत हैं: आचार्य श्री विद्यासागरजी मांगलिक कार्यों के शुभारंभ में ध्वजारोहण का यह अवसर अपूर्व हैं अपूर्व का अर्थ हैं जो पहले कभी न हुआ हो उपरोक्त उदगार आचार्य भगवन् श्री विद्यासागरजी महाराज ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के अवसर पर रायपुर लाभान्डी में प्रातः कालीन प्रवचन सभा में व्यक्त किये! उन्होंने कहा कि समवशरण की रचना के पूर्व ध्वजारोहण होंना और वह पश्चिम दिशा से पूर्व की ओर जाना एक शुभ संकेत हैं का यह अवसर अपूर्व हें! मांगलिक कार्यों के प्रारंभ में ध्वजारोहण करते हें हमारेजीवन में कव यह अपूर्व अवसर कब आएगा जब हम भी सिद्ध अवस्था को प्राप्त हों! आचार्य श्री ने कहा कि पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के रूप में जो लोग उपस्थित हैं! जिसका आनंद आप लोगों के लिये भी अपूर्व अवसर हें! मुक्ति अवस्था को हम मति ज्ञान और श्रुति ज्ञान के माध्यम से आनंद का अनुभव करेंगे! आचार्य श्री ने कहा कि इस अवसर पर कषायों को कम करिये! एक दम समाप्त नहीं कर सकते तो धीरे धीरे कम करिये ! दयोदय महासंघ के प्रवक्ता अविनाश जैन विदिशा वालों ने वताया प्रातः काल की शुभ मंगलवेला में श्री जी की शोभायात्रा निकाली गई एवं आचार्य श्री के संघ सानिध्य में मुख्य पांनडाल के द्वार पर मंत्रोचारण के साथ प्रतिष्ठाचार्य श्री जय कुमार शास्त्री भोपाल एवं सहप्रतिप्ठाचार्य राजैश जैन भोपाल वाल व़ श्री सुनील भैया जी अनंतपुरा आदि ने मंगल क्रियाओं के माध्यम से ध्वजारोहण कार्यक्रम संपन्न कराया ! तत्पश्चात श्री जी का अभिषेक एवं शांतीधारा उपरांत पंचकल्याणक समिती के प्रमुख पात्रों ने मुख्य वेदी पर विराजमान किया! तत्पश्चात आचार्य श्री की मंगल पूजन के उपरांत आहार चर्या संपन्न हुई आज का यह शुभ अवसर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के पात्र धन कुवेर श्री रतनलाल जी संजय कुमार जी वड़जात्या परिवार को मिला समिती की ओर से उनके पुण्य की सराहना कर अनुमोदना की गई! आज के इस शुभ अवसर पर वडी़ संख्या में वाहर से अतिथीगण पधारे!
  9. लोक को अलोक को आलोकित करने वाले आलोक धाम ललाम लोचनों का अलोल अडोल तिमिराच्छन्न लोचनों ने अवलोकन किया धन्य! प्रतीत हो रहा है कि मम लोचन प्रतिछवि में प्रकाशपुंज प्रभु तैर रहे हैं अपने पावन जीवन में एक साथ उघड़े हुए अनंत गुणों के साथ अदभुत परिणमन यह काल...! भेद की रेखा आल-जाल अन्तराल कहाँ संवेदित है ? कि मैं कौन...? प्रभु कौन...? दोनों दिगम्बर मौन... इस परिणमन के केन्द्र में मुख्य औ गौण की विधि स्वयं गौण! इसी बीच मेरे मन में विकल्प ने करवट लिया कि ध्रुव को छूने के लिए यह सुंदर अवसर है और मैं... सविनय... दोनों घुटने टेक पंजों के बल बैठ दो-दो हाथों से अकम्प / अक्षय / अखंड दीपक की ओर चिर बुझा... दीपक बढ़ाया... जलाने... जोत से जोत मिलाने किन्तु न जाने यह कौन सी सत्ता बलवत्ता ने महासत्ता की ओर जाती हुई मम-सत्ता को रोका है... टोका है... मध्य में व्यवधायक बन व्यवधान उपस्थित किया है अकस्मात्.. अकारण... हे तरण तारण... चरणों में शरणागत को दो शरण दो ! दो किरण...!
  10. आहार चर्या शुभ संदेश : फाल्गुन कृष्ण ५ आज परम पूज्य संत शिरोमणि १०८ आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज का पड़गाहन करके आहार दान देने का सौभाग्य - श्री रतनलाल जी जैन, श्री संजय जी जैन, श्री अजय जी जैन, श्री मोनू जी जैन बड़जात्या (लाभांडी पंच कल्याणक में कुबेर इन्द्र के पुण्यार्जक) कुनकुरी निवासी एवं उनके परिवार वालों को प्राप्त हुआ | सूचना प्रदाता सिंघई श्री सोनू जी जैन नागपुर
  11. अकस्मात् अप्रत्याशित घटना घटी न ज्ञान था न अनुमान भाग्य...! अपरिमाण का अपरिमाण का प्रमाण का ...साक्षात्कार! परिणाम यह हुआ कि अप्रमाण-परिमाण में विनत भाव पूरित परिणाम आविर्भूत हुआ है कि स्वीकार हो प्रणाम...! किन्तु कर-कमल कुड्मलित नहीं हुए मुकुलित नहीं हुए खिले खुले ही रहे याचक बन कर...! मस्तक तक अवनत नहीं हुआ मुख खुला नहीं .....रहा बन्द अन्दर उठते हुए शब्द नहीं बने मधुर छन्द बाहर आकर...! क्योंकि विषयों की विषय दाह से पूरी तपी चिर तृषित आमूल चूल फैली चेतना संकुचित हो, संकलित हो आँखों में आ आँखों से हे पीयूष पूर! रूपागार...! अनगार...! अपरूप रूप का / अरूप का अनुपान कर रही उस तरह जिस तरह ग्रीष्मकालीन तरुण / अरुण की प्रखर किरणों से संतप्त धरती वर्षाकाल के अपार जल को बिना श्वास लिये पीती है...!
  12. युगों-युगों से जीवन विनाशक सामग्री से संघर्ष करता हुआ अपने में निहित विकास की पूर्ण क्षमता संजोय अनन्त गुणों का संरक्षण करता हुआ आया हूँ किन्तु आज तक अशुद्धता का विकास ह्रास शुद्धता का विकास प्रकाश केवल अनुमान का विषय रहा.....विश्वास विचार साकार कहाँ हुए ? बस! ..... अब निवेदन है कि या तो इस कंकर को फोड़-फोड़ कर पल भर में कण-कण कर शून्य में... .... उछाल .....समाप्त कर दो अन्यथा इसे सुन्दर सुडौल शंकर का रूप प्रदान कर अविलम्ब .... इसमें अनंत गुणों की प्राण-प्रतिष्ठा ..... कर दो हृदय में अपूर्व निष्ठा लिए यह किन्नर अकिंचन किंकर नर्मदा का नरम कंकर चरणों में उपस्थित हुआ है हे विश्व व्याधि के प्रलयंकर। तीर्थंकर! शंकर!
  13. मम चेतना की धरती पर उतर आया है सहज एक भाव कि अब इस बिन्दु को विनीत भाव से अर्पित / समर्पित कर दूँ सिन्धु को क्योंकि व्यक्तित्व की सत्ता का अनुभव सुख का नहीं दुख का अमूर्त का नहीं मूर्त का द्रव्य द्रष्टा का नहीं क्षय दृश्य का दर्शक है ....नितान्त! हे अपार सिंधु! अपरंपार! इस बिन्दु को अवगाह दो अवकाश दो अपनी अगम / अथाह महासत्ता में जिसमें मनमोहक सुख-संदोहक अविरल / अविकल तरल तरंगें उठती हैं ओर-छोर तक जा... लीन / विलीन हो जाती हैं उस दृश्य को तुम्हारी पीठ पर आसीन हो... ......देख सकूँ किन्तु वे बिन्दु में क्या...? उठती हैं क्या... बिन्दु के बिना ......उठती है।
  14. मिट्टी की दीपमालिका जलाते बालक-बालिका आलोक के लिए ज्ञात से अज्ञात के लिए किन्तु अज्ञात का / अननुभूत का / अदृष्ट का नहीं हुआ संवेदन / अवलोकन वे सजल-लोचन करते केवल जल विमोचन... उपासना के मिष से वासना का, रागरंगिनी का उत्कर्षण हा ! दिग्दर्शन... नहीं......नहीं ..... कभी नहीं... महावीर से साक्षात्कार... वे सुंदरतम दर्शन उषा वेला में गात्र पर पवित्र चित्र-विचित्र पहन कर वस्त्र सह-कलत्र-पुत्र युगवीर चरणों में सबने किया मोदक समर्पण किन्तु खेद है... अच्छ स्वच्छ औ’ अतुच्छ कहाँ बनाया मानस दर्पण ?... तमो-रजो-गुण तजो सतो गुण से जिन भजो तभी मँजो....तभी मँजो जलाओ हृदय में जन जन दीप ज्ञानमयी करुणामयी आलोकित हो / दृष्टिगत हो / ज्ञात हो ओ सत्ता......जो समीप...।
  15. अविचल मलयाचल-गत परम सुगंधित नंदन-वंदित आतप-वारक चंदन-पादप जिनसे लिपटी / चिपटी पूँछ के बल पर बदन घुमाती उड़न चाल से चलने वाली चारों ओर मोर शोर भी ना गिन गंधानुरागिन अनगिन नागिन ! स्वस्थ समाधिरत योगिन सी... पर... उन्हीं घाटियाँ पार कर रहा मन्द / मन्दतम चाल चल रहा अनिल अविरल अहा ! श्रान्त क्लान्त है शान्ति की नितान्त प्यास लगी है उसको आत्म प्रान्त में तड़फड़ाहट अकस्मात् !... भाग्योदय !... दयनीय हृदय अपूर्व संवेदन से गद्गद हुआ हुआ पीड़ा का विलय प्रलय आपके अपाप के मुक्त परिताप के चरणारविन्द का जिससे पराग झर रही मृदुल संस्पर्श पाकर... पराग भरपूर पीकर... निस्संग बहता बहता वह !... सर्वप्रथम अपने साथी भ्रमर दल को सारा वृत्तान्त सुनाया जाकर… संवेदित अपूर्व पराग दिखाकर आपके प्रति राग जगाया सादर… भीतर औ बाहर... धन्यवाद कह ..... बाद वह अलिदल उड़ पड़ा सहचर सूचित दिशा की ओर… वायुयान-गति से प्रतिमुहूर्त सौ-सौ योजन बनाकर केवल प्रयोजन रसमय अपना भोजन सुनो फिर तुम क्या हुआ भो! जन ! किया प्रथम बार दर्शन सार परमोत्तम का पुरुषोत्तम का रत्नत्रय प्रतीक तीन प्रदक्षिणा .....दे कर... पुनीत / पावन पाद पद्य में प्रमुदित प्रणिपात नतमाथ तभी तैर कर आया विगत आगत का जीवन प्रतिबिम्ब स्वच्छ / शुद्ध विजित-दर्पणा प्रभु की विमल-नखावली में अलिदल दिल हिल गया पिघल गया जो किया है कर्म ने वही अब दिया है फल / प्रतिफल पल पल अपना आनन अपना जीवन सघन तिमिरसम कालिख व्याप्त लख कर मानो विचार कर रहा मन में कि पर पदार्थ का ग्रहण पाप है..... किन्तु महापाप है महाताप है करना पर का संचय.. संग्रह.. इस सिद्धांत का परिचायक है। मेरा यह तामसता का एकीकरण संग्रह!... विग्रह मूल, विग्रह !... तभी से वह भ्रमर-दल चरण कमल का केवल करता अवलोकन पल भर बस !... छूता है विषयानुराग से नहीं धर्मानुरागवश !... गुन-गुनाता कहता जाता भ्रामरी चर्या अपनाओ !... शेष रहा ना अपना ओ... सपना ओ... आश्चर्य ! प्रथम बार दर्शन जीवन का कायाकल्प अल्प काल में अनल्प परिवर्तन ... क्रांति। संतोष संयम शांति धन्य ! किन्तु खेद है ! नियमित प्रतिदिन आपका दर्शन / वंदन पूजन / अर्चन तात्त्विक चर्चन समयसार का....मनन ! फिर भी तृण सम जिन का तन जीर्ण शीर्ण इन्द्रिय-गण में शैथिल्य विषय रसिकों में प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण जिन का तामस मन !... आर्थिक चिंताओं से .....आकीर्ण जिनका रहता भाल साधर्मी को लखकर करते लोचन लाल चलते अनुचित चाल आत्म-प्रशंसा सुनकर जिन के खिलते गाल धर्म कर्म सब तजते जहाँ न गलती अपनी दाल ! रटते रहते हम सिद्ध हैं हम बुद्ध हैं परिशुद्ध हैं तनिक दाल में / नमक कम हो झट से होते क्रुद्ध हैं कहते जाते जीव भिन्न है देह भिन्न है मात्र जीव से दर्शन ज्ञान अभिन्न तनिक सी....प्रतिकूलता में.... होते खेद खिन्न ! यह कैसा... .....विरोधाभास ? विदित होता है भ्रमर का प्रभाव भी इन भ्रमितों पर पड़ा नहीं हे! प्रभो! प्रार्थना है कि इनमें ज्ञान भानु का उदय हो विभ्रम तम का विलय हो इन्द्रिय-दल का दमन करें मोह मान का वमन करें कषाय गण का शमन करें शिव पथ पर सब गमन करें बनकर साथी मेरे साथ दो आशीष .....मेरे नाथ!!
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