हे! कंदर्प-दर्प से शून्य!
जित कंदर्प!
सम्पर्क में
जब से
आया हूँ
आपके...!
आपके
तप्त कनकाभ तन के
मेरु अकम्प मन के
नीर-निधि गंभीरतम
दिव्य श्राव्य वचन के
और!...
महासत्ताभिभूत
गुणगण के
परिणमन का प्रभाव !
ऐसा पड़ा है
मुझ पर!...
कि
अकृत पूर्व निजी कार्य में
अनिवार्य मैं
अहर्निश हुआ हूँ
तत्पर!.
और यह क्या ?
जीवन का वह प्राचीनतम रंग
चंचल सकम्प मन का ढंग
अंग व्यंग और अनंग!
पूर्णतः परिवर्तित हो गया है
एक मौलिक
अलौकिक आभा में
तुम सा...!
किन्तु !
इसमें
केवल !
आपकी ही विशेषता नहीं है।
मेरी भी
आप में
प्रभावित करने की शक्ति निहित है
तो!.
इस चेतन में प्रभावित होने की
भावित होने की
यह निमित्त-नैमित्तिक संबंध है
आप निमित्त हैं बाह्य कारण
मैं उपादान आभ्यंतर
अनन्यतर
इतना ही मुझमें और आप में...
अंतर
उचित ही है
प्रत्येक निमित्त, प्रत्येक उपादान को
प्रभावित नहीं कर सकता
हाँ ! प्रत्येक उपादान, प्रत्येक निमित्त से
प्रभावित भी कहाँ होता ?
लाल-लाल कोमल
गुलाब फूल!
उज्ज्वल / उज्ज्वलतम
स्फटिक मणि को
अपनी आभा के अनुरूप
अनुकूल भावित करता है
किन्तु...
पाषाण खंड को क्यों नहीं करता ?