हे अनंत!
हे अमूर्त !
अनंत अमूर्त आकाश में
होकर भी
विमलता की अभ्रंलिहा
शिखरिणी पर
आवास / अवकाश है आपका
जब ये मूर्त लोचन
विषयातीत होकर भी...
विषय नहीं बना पाये आपको
तब...!
अन्य सभी कार्यों से उदास
यह मेरा मन
क्षण-क्षण
आपके श्रुत का आधार ले
आप तक पहुँचने का प्रयास
प्रारंभ किया है
लो! अनायास
श्वास श्वास पर
आपके नाम अंकित आसीन
कराता
श्वास नाभिमंडल से
प्रतिक्रमा के रूप में
हृदय-कमलचक्र से
पार कराता हुआ
ब्रह्मरंध्र तक पहुँचाता
ऊर्ध्वगम्यमान
आज...!
आपका श्रुतिमधुर संगीत
निजी श्रवणों से
साक्षात्कार कर रहा हूँ
निस्संग हो
निश्शंक हो
निडर निश्चित हो
मौन! मृदु मुस्कान के साथ
हे! नाथ!
उचित ही है
पुखराज की हरीतिमा को
जीतने वाली
चंचल माला लचीली
पतली तनवाली
थोड़ा-सा
पवन का झोंका खा
झट-सी धरा पर गिरने वाली
माधुर्य मार्दववती
माधवी लता
अपदा!.....अशरणा भी!...
उत्तुंग ऋजु वंश की
शरण ले
वंश से लिपटती-लिपटती
गुरुओं के प्रति समर्पण जीवन में
अवंशजा पर...!!
वंश-मुक्ता को
औ !...
वंशीधर को भी
प्रभावित करती हुई
वंशातीत हो
शून्य में...
शून्य से
वार्ता करती
लहलहाती
क्या नहीं जीती...?