अविचल
मलयाचल-गत
परम सुगंधित
नंदन-वंदित
आतप-वारक
चंदन-पादप
जिनसे
लिपटी / चिपटी
पूँछ के बल पर
बदन घुमाती
उड़न चाल से
चलने वाली
चारों ओर
मोर शोर भी
ना गिन
गंधानुरागिन
अनगिन
नागिन !
स्वस्थ समाधिरत
योगिन सी...
पर...
उन्हीं घाटियाँ
पार कर रहा
मन्द / मन्दतम
चाल चल रहा
अनिल अविरल अहा !
श्रान्त क्लान्त है
शान्ति की नितान्त
प्यास लगी है उसको
आत्म प्रान्त में
तड़फड़ाहट
अकस्मात् !...
भाग्योदय !...
दयनीय हृदय
अपूर्व संवेदन से
गद्गद हुआ
हुआ पीड़ा का
विलय प्रलय
आपके
अपाप के
मुक्त परिताप के
चरणारविन्द का
जिससे पराग झर रही
मृदुल संस्पर्श पाकर...
पराग भरपूर पीकर...
निस्संग बहता बहता
वह !...
सर्वप्रथम
अपने साथी
भ्रमर दल को
सारा वृत्तान्त
सुनाया जाकर…
संवेदित अपूर्व
पराग दिखाकर
आपके प्रति राग जगाया
सादर…
भीतर औ बाहर...
धन्यवाद कह .....
बाद वह
अलिदल
उड़ पड़ा
सहचर सूचित
दिशा की ओर…
वायुयान-गति से
प्रतिमुहूर्त
सौ-सौ योजन
बनाकर केवल
प्रयोजन
रसमय अपना
भोजन
सुनो फिर तुम
क्या हुआ भो! जन !
किया प्रथम बार
दर्शन सार
परमोत्तम का
पुरुषोत्तम का
रत्नत्रय प्रतीक
तीन प्रदक्षिणा
.....दे कर...
पुनीत / पावन
पाद पद्य में
प्रमुदित प्रणिपात
नतमाथ
तभी तैर कर आया
विगत आगत का
जीवन प्रतिबिम्ब
स्वच्छ / शुद्ध
विजित-दर्पणा
प्रभु की
विमल-नखावली में
अलिदल दिल
हिल गया
पिघल गया
जो किया है
कर्म ने वही
अब दिया है
फल / प्रतिफल पल पल
अपना आनन
अपना जीवन
सघन तिमिरसम
कालिख व्याप्त
लख कर
मानो विचार कर रहा
मन में
कि
पर पदार्थ का ग्रहण
पाप है.....
किन्तु
महापाप है
महाताप है
करना पर का संचय..
संग्रह..
इस सिद्धांत का
परिचायक है।
मेरा यह
तामसता का एकीकरण
संग्रह!...
विग्रह मूल, विग्रह !...
तभी से वह
भ्रमर-दल
चरण कमल का केवल
करता अवलोकन
पल भर बस !...
छूता है
विषयानुराग से नहीं
धर्मानुरागवश !...
गुन-गुनाता
कहता जाता
भ्रामरी चर्या
अपनाओ !...
शेष रहा
ना अपना ओ...
सपना ओ...
आश्चर्य !
प्रथम बार दर्शन
जीवन का कायाकल्प
अल्प काल में
अनल्प परिवर्तन
... क्रांति।
संतोष संयम शांति
धन्य !
किन्तु खेद है !
नियमित प्रतिदिन
आपका दर्शन / वंदन
पूजन / अर्चन
तात्त्विक चर्चन
समयसार का....मनन !
फिर भी
तृण सम
जिन का तन जीर्ण शीर्ण
इन्द्रिय-गण में
शैथिल्य
विषय रसिकों में
प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण
जिन का तामस मन !...
आर्थिक चिंताओं से
.....आकीर्ण
जिनका रहता भाल
साधर्मी को लखकर
करते लोचन लाल
चलते अनुचित चाल
आत्म-प्रशंसा सुनकर
जिन के खिलते गाल
धर्म कर्म सब तजते
जहाँ न गलती अपनी दाल !
रटते रहते
हम सिद्ध हैं
हम बुद्ध हैं
परिशुद्ध हैं
तनिक दाल में / नमक कम हो
झट से होते क्रुद्ध हैं
कहते जाते
जीव भिन्न है
देह भिन्न है
मात्र जीव से
दर्शन ज्ञान अभिन्न
तनिक सी....प्रतिकूलता में....
होते खेद खिन्न !
यह कैसा...
.....विरोधाभास ?
विदित होता है
भ्रमर का प्रभाव भी
इन भ्रमितों पर
पड़ा नहीं
हे! प्रभो!
प्रार्थना है
कि
इनमें ज्ञान भानु का उदय हो
विभ्रम तम का विलय हो
इन्द्रिय-दल का दमन करें
मोह मान का वमन करें
कषाय गण का शमन करें
शिव पथ पर सब गमन करें
बनकर साथी
मेरे साथ
दो आशीष
.....मेरे नाथ!!