शुद्धता की चरम सीमा पर
सानन्द नर्तन करता हुआ
शुद्ध स्फटिक मणि से
निःसृत
दधि / दुग्ध-धवलित
निर्जरा का निर्झर !
झर! झर! झर!
झर रहा...
अरुक / अथक
अनाहत गति से
उस ध्रुव बिन्दु की ओर....
अपार अनंत
सिन्धु की ओर...
पथ में किसी से
वार्ता नहीं
किसी से चर्चा नहीं
किसी प्रलोभनवश
किसी सम्मोहनवश
अन्य किसी की अर्चा नहीं
तथापि मौन भाषा में
अविरल / अविकल
मनमोहक संगीत...
गुनगुनाता...
सहज सुनाता
जा रहा...! कि
उपास्य के प्रति
अपने जीवन के
अपने सर्वस्व के
अर्पण में
समर्पण में..... ही
उपासना का
साकार!...
निराकार!..
निर्विकार!...
दर्पण निहित है
जिस दर्पण में
उपास्य की
उपासक की
एवं
उपासना की
गतागत
अनागत प्रतिछवियाँ
गुण-मणियाँ
झिलमिल झिलमिल
निधियाँ...
तरल तरंगित हैं
लो...!
यह कैसा ? अद्भुत परिणमन
विविध गुणों के सुमन
विलस रहे हैं
वस्तुतः सब कुछ उपलब्ध हुआ है
इस समय
तभी खुल खिल विहँस रहे हैं
प्रति समय
उनके परिणाम
अविराम विनस रहे हैं
किन्तु गुणों का अभाव!...
नहीं हो रहा है...
......रहा है सद्भाव
तद्भाव!
क्योंकि परिणमन रूपी
बहता हुआ पवन
मन्द-मन्द
उन गुण सुमनों के
मकरन्द को
सम्पूर्ण चेतना-मंडल में
प्रसारित कर रहा है
फलस्वरूप
समग्र जीवन सुगंधित हो
महक उठा है।
सुन लो...!
तब यह गीत
चहक उठा है...
यह है चिदानन्दमयी
नन्दन !...
यहाँ
ना तो बन्धक है
ना बन्धन!...
ना तो क्रन्दक है
ना क्रन्दन!...
और...
......और क्या
ना तो वन्दक है
ना वन्दन !...
चेतना की यह असीम
......अपार धरती
एक अपूर्व संवेदनामय
हरीतिमा से उल्लसित
पुलकित है
लो! मन को हरती है
भूत नहीं है
अभूत!...
अनुभूत नहीं है
अननुभूत...
मस्त!...
साधु संन्यासियों को भी
यह श्रुत परिचित / विदित
सकल संसार / विकल अपार
सागर है क्षार
दुख से भरपूर
ऐसा मानता आया
आभास करता आया
अब तक!
आनंद से
सहज सुख से
रहा मैं दूरा
पीठ किन्तु आज वह ।
झूठी
भ्रान्त धारणा टूटी
जीवन में
आलोक की
प्रखर किरण फूटी है
और मैं...
आसीन हूँ
सुखासीन हूँ
स्वाधीन हो
विभाव के अभाव में
तनाव के अभाव में
सहज स्वभाव में
चेतन की छाँव में
लो !
अनुभव कर रहा हूँ कि
सत्य प्रमाणित होता जा रहा है
तथ्य सम्मानित होता जा रहा है
सुख को
मेरा कृत्य अबाधित
बोता जा रहा है
संसार
नहीं असार
नहीं क्षार
....सागर.....
किन्तु सम / सम्यक्
समीचीन सार
है संसार...!
साकार / चेतनाकार
सब सारों का सार
जीवित समयसार !