अकस्मात्
अप्रत्याशित
घटना घटी
न ज्ञान था
न अनुमान
भाग्य...!
अपरिमाण का
अपरिमाण का प्रमाण का
...साक्षात्कार!
परिणाम यह हुआ
कि
अप्रमाण-परिमाण में
विनत भाव पूरित
परिणाम आविर्भूत हुआ है
कि स्वीकार हो
प्रणाम...!
किन्तु
कर-कमल कुड्मलित नहीं हुए
मुकुलित नहीं हुए
खिले खुले ही रहे
याचक बन कर...!
मस्तक तक अवनत नहीं हुआ
मुख खुला नहीं
.....रहा बन्द
अन्दर उठते हुए शब्द
नहीं बने मधुर छन्द
बाहर आकर...!
क्योंकि
विषयों की विषय दाह से
पूरी तपी चिर तृषित
आमूल चूल फैली चेतना
संकुचित हो, संकलित हो
आँखों में आ
आँखों से
हे पीयूष पूर!
रूपागार...!
अनगार...!
अपरूप रूप का / अरूप का
अनुपान कर रही
उस तरह
जिस तरह
ग्रीष्मकालीन
तरुण / अरुण की
प्रखर किरणों से
संतप्त धरती
वर्षाकाल के
अपार जल को
बिना श्वास लिये
पीती है...!