लोक को
अलोक को
आलोकित करने वाले
आलोक धाम
ललाम लोचनों का
अलोल
अडोल
तिमिराच्छन्न
लोचनों ने
अवलोकन किया
धन्य!
प्रतीत हो रहा है
कि
मम लोचन प्रतिछवि में
प्रकाशपुंज प्रभु
तैर रहे हैं
अपने पावन जीवन में
एक साथ
उघड़े हुए
अनंत गुणों के साथ
अदभुत परिणमन
यह काल...!
भेद की रेखा
आल-जाल
अन्तराल कहाँ संवेदित है ?
कि
मैं कौन...?
प्रभु कौन...?
दोनों दिगम्बर
मौन...
इस परिणमन के केन्द्र में
मुख्य औ गौण की विधि
स्वयं गौण!
इसी बीच
मेरे मन में
विकल्प ने करवट लिया
कि
ध्रुव को छूने के लिए
यह सुंदर अवसर है
और मैं...
सविनय...
दोनों घुटने टेक
पंजों के बल बैठ
दो-दो हाथों से
अकम्प / अक्षय / अखंड दीपक
की ओर
चिर बुझा...
दीपक बढ़ाया...
जलाने...
जोत से जोत मिलाने
किन्तु
न जाने
यह कौन सी सत्ता
बलवत्ता ने
महासत्ता की ओर
जाती हुई मम-सत्ता को
रोका है...
टोका है...
मध्य में
व्यवधायक बन
व्यवधान उपस्थित किया है
अकस्मात्..
अकारण...
हे तरण तारण...
चरणों में शरणागत को
दो शरण
दो !
दो किरण...!