दिगम्बरी दीक्षा
पश्चात्
पावन वेला में
परम पावन / तरण-तारण
गुरु चरण सान्निध्य में
ग्रन्थराज ‘समयसार’ का
चिंतन
मनन
अध्ययन
यथाविधि प्रारंभ हुआ
अहा!.
यह थी गुरु की गरिमा
महिमा / अस्तिमा
कि
कन्नड़ भाषा-भाषी
मुझे
अत्यन्त सरल / श्रुति-मधुर
भाषा-शैली में
‘समयसार’ के
हृदय को
खोल-खोल कर
बार-बार दिखाया
प्रति गाथा में
अमृत ही अमृत भरा है
और
मैं पीता ही गया...
......पीता ही गया
... माँ के समान गुरुवर
अपने अनुभव और मिला कर
घोल-घोल कर
पिलाते ही गये
पिलाते ही गये!...
मुझे !
शिशु-बाल मुनि को !
फलस्वरूप
उपलब्धि हुई
अपूर्व विभूति की
आत्मानुभूति की
और 'समयसार'
ग्रन्थ भी
......ग्रन्थ / परिग्रह...
प्रतीत हो रहा है
पीयूष भरी गाथायें
रसास्वादन में
डूब जाता हूँ...
अनुभव करता हूँ
कि
ऊपर उठता हुआ...
...उठता हुआ
ऊर्ध्वगममान होता हुआ
सिद्धालय को
पार कर गया हूँ...
सीमोल्लंघन कर गया हूँ...
अविद्या कहाँ...?
कब ?
सरपट चली गई
पता नहीं रहा
आश्चर्य यह है कि
जिस विद्या की चिरकालीन
प्रतीक्षा थी...
उस विद्यासागर के भी पार...
......बहुत दूर...
......दूरातिदूर...
पहुँच गया हूँ
अविद्या / विद्या से परे
ध्यान-ध्येय / ज्ञान-ज्ञेय से परे
भेदाभेद / खेदाखेद से परे
उसका साक्षी बनकर
उद्ग्रीव उपस्थित हूँ
अकम्प निश्चल शैल!...
चारों ओर छाई है
सत्ता / महासत्ता...
सब समर्पित / अर्पित
स्वयं अपने में