मम चेतना की धरती पर
उतर आया है सहज
एक भाव
कि
अब इस बिन्दु को
विनीत भाव से
अर्पित / समर्पित कर दूँ
सिन्धु को
क्योंकि व्यक्तित्व की सत्ता का
अनुभव
सुख का नहीं
दुख का
अमूर्त का नहीं
मूर्त का
द्रव्य द्रष्टा का नहीं
क्षय दृश्य का
दर्शक है
....नितान्त!
हे अपार सिंधु! अपरंपार!
इस बिन्दु को
अवगाह दो
अवकाश दो
अपनी अगम / अथाह
महासत्ता में
जिसमें मनमोहक
सुख-संदोहक
अविरल / अविकल
तरल तरंगें उठती हैं
ओर-छोर तक जा...
लीन / विलीन हो जाती हैं
उस दृश्य को
तुम्हारी पीठ पर
आसीन हो...
......देख सकूँ
किन्तु वे बिन्दु में क्या...?
उठती हैं
क्या...
बिन्दु के बिना
......उठती है।