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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. ‘‘नासमझ थी, समझी बात, माँ! उलझी थी, अब सुलझी, माँ! अब पीने को जल-तत्त्व की अपेक्षा नहीं, अब जीने को बल-सत्त्व की अपेक्षा नहीं टूटा-फूटा फटा हुआ यह जीवन जुड़ जाय बस, किसी तरह शाश्वत सत् से, ...सातत्य चित्त से बेजोड़ बन जाय, बस! अब सीने को सूई-सूत्र की अपेक्षा नहीं। जल में जनम लेकर भी जलती रही यह मछली जल से, जलचर जन्तुओं से जड़ में शीतलता कहाँ माँ? चन्द पलों में इन चरणों में जो पाई। मलयाचल का चन्दन और चेतोहारिणी चाँद की चमकती चाँदनी भी। चित्त से चली गई उछली-सी कहीं मेरी स्पर्शा पर आज। हर्षा की वर्षा की है। तेरी शीतलता ने। माँ! शीत-लता हो तुम! साक्षात् शिवायनी! "O Mother ! I was ignorant, I grasp the point, I was entangled, am unravelled Mother ! now, I don't need the water-element Now to drink; I don't expect vigour and vitality For sustaining life now, Worn and torn Tattered and scattered this life Should only be united somehow With the Supreme Being, ...With the Divine Knowledge, Should become patchless, nothing more ! No needle-and-thread is required Now, for stitching. In spite of being born in water This fish went on burning From water or from the watery creatures, Where is the coolness at root, O Mother ? Which has been achieved, within moments, At thy feet ! The sandalwood of the Mount Malaya And The heart-stealing Brilliant radiance of the moon too Went off somewhere, with a jump, from the mind On my contact-today. Thy tranquillity Has showered happiness. Mother ! Thou art a creeper of coolness ! An Embodiment of Final Emancipation !
  2. मृदु-पूर होता है। कलि की आँखों में भ्रान्ति का तामस ही गहराता है सदा और सत् की आँखों में शान्ति का मानस ही लहराता है सदा। एक की दृष्टि व्यष्टि की ओर भाग रही है। एक की दृष्टि समष्टि की ओर जाग रही है, एक की सृष्टि चला-चपला है। एक की सृष्टि कला-अचला है। एक का जीवन मृतक-सा लगता है। कान्तिमुक्त शव है, एक का जीवन अमृत-सा लगता है। कान्तियुक्त शिव है। शव में आग लगाना होगा, और शिव में राग जगाना होगा। समझी बात, बेटा!” Is filled with mildness. In the eyes of Kali - the Sin - The gloom of error really Deepens always, And In the eyes of ‘Truth’ The thought of peace really Beckons always. The vision of the one Is taking recourse to The individuality, The vision of the other Is an awakening Towards entirety, The creation of the one Is transient as lightning The creation of the other Is an art everlasting, The life of the one Appears to be lifeless Is a charmless corpse, The life of the other Seems to be nectar-like Is the glorious ‘Siva’, The corpse will have to be put on fire, And The devotion will have to be awakened in Šiva. Do you grasp the point, dear child !”
  3. जिसे ‘खरा' भी अखरा है सदा और सतयुग तू उसे मान बुरा भी ‘बूरा'-सा लगा है सदा।” पुनः बीच में ही निवेदन करती है मछली कि विषय गहन होता जा रहा है। जरा सरल करो ना! सो माँ कहती है; ‘‘समझने का प्रयास करो, बेटा! सतयुग हो या कलियुग बाहरी नहीं भीतरी घटना है वह सत् की खोज में लगी दृष्टि ही सतयुग है, बेटा! और असत्-विषयों में डूबी आ-पाद-कण्ठ सत् को असत् मानने वाली दृष्टि स्वयं कलियुग है, बेटा! कलि काल समान है अदय-निलय रहा। अति क्रूर होता है। और सत् कलिका लता समान है। अतिशय सदय रहा है। To whom The true and the genuine Has always been disagreeable And The Golden Age be regarded by thee Where even the evil Has appeared always like clarified sugar.” Again, breaking the continuity The fish entreats That The subject is taking a profound turn, Deal it, please, with a bit of simplicity ! So, the Mother adjoins : "Try to understand the point, dear child !” Whether a Golden Age or an Iron Age It's not an external ! But an internal event, The vision really devoted in search of Truth, Is the Golden Age, dear child ! And Sunk deep into the false objectives From top to bottom The view, which regards the Truth as falsehood, Is, in itself, Kaliyuga’ -the Modern Age-dear child ! The Sin is like Yama- the Death It has been a house of mercilessness, It has been so cruel, And, the ‘Virtue’ Is like a creeper of buds Which has ever remained kind
  4. दानवता में दानवत्ता पली थी कब वह ? “वसुधैव कुटुम्बकम्” इस व्यक्तित्व का दर्शन- स्वाद-महसूस इन आँखों को सुलभ नहीं रहा अब...! यदि वह सुलभ भी है। तो भारत में नहीं, महा-भारत में देखो ! भारत में दर्शन स्वारथ का होता है। हाँ-हाँ। इतना अवश्य परिवर्तन हुआ है। कि “वसुधैव कुटुम्बकम्” इसका आधुनिकीकरण हुआ है। ‘वसु' यानी धन-द्रव्य ‘धा' यानी धारण करना आज धन ही कुटुम्ब बन गया है धन ही मुकुट बन गया है जीवन का। अब मछली कहती है माटी को- ‘‘कुछ तुम भी कहो, माँ! कुछ और खोल दो। इसी विषय को, माँ!' सो मछली की प्रार्थना पर माटी कुछ सार के रूप में कहती है, कि “सुनो बेटा! यही कलियुग की सही पहचान है। When has the demonocracy Cherished that charity ? “Vasudhaiva kutumbakam”, that is, ‘The whole of the world is like a family’ - The vision and taste-sense Of such individuality Has not remained feasible, now, To these eyes...! If it's easily obtainable at all Then, not in Bharat - India - Seek it through the Mahābhārata !’ In India, selfishness visibly prevails. Yes, o yes ! This much of change has surely occurred That "Vasudhaiva kutumbakam”, That is, The whole of the world is like a family’ - This maxim has been modernized; ‘Vasu’, that is, the ‘money-matter', “ ‘Dha’, that is ‘to hold’ The money, chiefly, has become the family-affair to-day- The wealth has really become the crown of life. Now, the fish addresses the Earth - “You too, Mother ! tell something, Let this topic be elucidated By you, O Mother !” So, on request by the fish, The Earth utters something as a gist - “Listen, my child ! This very thing Is the true identity of Kaliyuga- the Modern Age
  5. और वेदना से घिर आती हैं। एक साथ तत्काल, वे अपूर्वता की प्यासी हैं। प्रभु की दासी-सी वरीयसी बनी हैं, जिन आँखों से छूट-छूट कर माटी के चरणों को धोती हैं वह उजली-उजली अश्रु की बूँदें....! जिन बूँदों ने क्षीर-सागर की पावनता को मूलतः हरी है पीर-सागर की सावणता को चूलतः झरी है। यहाँ पर इस युग को यह लेखनी पूछती है। कि क्या इस समय मानवता पूर्णतः मरी है? क्या यहाँ पर दानवता आ उभरी है...? लग रहा है कि मानवता से दानवता कहीं चली गई है ? और फिर And Are clouded with pain Altogether, at the same time, They have a thirst for singularity Like a maid-of-honour to the Lord Have attained excellence, Those eyes, from which The bright and white drops of tears, On being dripped down, Bathe the feet of the Earth...! The drops, which Have captured basically The holiness of the Milky Ocean, The abundance of the sea of compassion Has flowed from whose crown of the head. Here, to this Age, This writer's pen puts the question That Is humanity, in these times, Totally dead ? Has the devilishness Prevailed here throughout...? It seems that The true charity Has departed away from humanity ? Moreover-
  6. मछली की भूल का भंजन... चूर हुआ दुःख का। एक दृश्य दर्शित होता है। उपाश्रम के प्रांगण में : गुरुतम भाजन है, जिसके मुख पर वस्त्र बँधा है। साफ-सुथरा खादी का दोहरा किया हुआ और उसी ओर बढ़ता है कुम्भकार बालटी ले हाथ में। बड़ी सावधानी से धार बाँध कर जल छानता है वह धीरे-धीरे जल छनता है, इतने में ही शिल्पी की दृष्टि थोड़ी-सी फिसल जाती है अन्यत्र। उछलने को मचलती-सी यह मछली बालटी में से उछलती है। और जा कर गिरती है। माटी के पावन चरणों में...! फिर फूट-फूट कर रोती है। उसकी आँखें संवेदना से भर जाती हैं। The demolition... Of the error of the fish The afflictions were shattered. A scene manifests itself Inside the courtyard of the hermitage : There is a heavy vessel, Whose mouth Is tightened With a neat and clean Doubled piece of hand-woven cloth And The Artisan proceeds towards it Holding a bucket in hand. Observing utmost care, keeping up the flow, He filters the water The water is filtered slowly, In the mean time The sight of the Artisan Slips a bit in some different direction. Persisting in jumping up, This fish Takes a leap from inside the bucket And Gets itself thrown Upon the holy feet of the Earth...! Then Weeps bitterly, Her eyes Are filled with compassion
  7. पूर हुआ वह सुख का धूप की आभा से भावित हो। रूप का नन्दन वन। धूल का समूह वह सिन्दूर हुआ मुख का मछली की आँखें अब दौड़ती हैं सीधी उपाश्रम की ओर...! दिनकर ने अपनी अँगना को दिन-भर के लिए भेजी है उपाश्रम की सेवा में, और वह आश्रम के अंग-अंग को प्रांगण को चूमती-सी... सेवानिरत-धूप...! स्थूल है रूपवती रूप-राशि है वह पर पकड़ में नहीं आती। पर-छुवन से परे है वह प्रभाकर को छोड़ कर प्रभु के अनुरूप ही सूक्ष्म स्पर्श से रीता रूप हुआ है किसका ? ...धूप का। मानना होगा यह परिणाम-भाव उपाश्रम की छाँव का है। और That heavenly garden of beauty After being filled up with the sun-shine Became a pool of pleasure. That heap of dust Turned into the vermilion on the face, The eyes of the fish Now run straight Towards the hermitage...! The Sun has sent His graceful lady For all day long In the service of the hermitage, The every nook and corner of the hermitage Along with the courtyard Seems to be kissed by the sunlight… Absorbed in service thereof...! It is thick It appears like a charming heap of beauty But it escapes capturing. It is beyond the touch of others Leaving the sun aside, Bearing similarity with the Lord, Who has assumed that beauty Which evades the minute touch ? ….It is that of the sunshine, It should be accepted This sense and sensibility Is caused by the shadow of the hermitage And
  8. जिया-धर्म की दया-धर्म की प्रभावना हो...! लबालब जल से भरी हुई बालटी कूप से ऊर्ध्व-गतिवाली होती है। अब! पतन-पाताल से उत्थान-उत्ताल की ओर। केवल देख रही है मछली, जल का अभाव नहीं बल का अभाव नहीं तथापि तैर नहीं रही मछली। भूल-सी गई है तैरना वह, स्पन्दन-हीन मतिवाली हुई है स्वभाव का दर्शन हुआ, कि क्रिया का अभाव हुआ-सा लगता है अब...! अमन्द स्थितिवाली होती है वह! बालटी वह अबाधित ऊपर आई-भू पर कूप का बन्धन दूर हुआ मछली का, सुनहरी है, सुख-झरी है धूप का वन्दन...! The religion of Spirituality The religion of Compassion Should achieve supremacy...! Brimming with water The bucket gains momentum Upwards, through the well-pit, Now! From its downfall into the underworld Towards its lofty upliftment. The fish is only looking on, There is no lack of water There is no want of strength Even then The fish is not swimming. It has almost forgotten gliding into water, It has attained the stability of mind No sooner does it visualize its real ‘self Than, it appears now that, All activity stands still...! It begets a state of inner strength ! That bucket was lifted up Unhindered, upon the ground The fish was freed From the bondage of the well-pit; The greeting to the sun-light Was golden and mirthful...!
  9. मोह की मात्रा … विफल हो धर्म की विजय हो कर्म का विलय हो जय हो, जय हो जय-जय-जय हो।” लो! समय निकट आ गया है, बालटी वह यान-सम ऊपर उठने को है। और मंगल-कामना मुखरित होती- मछली के मुख से : ‘‘यही मेरी कामना है। कि आगामी छोरहीन काल में बस इस घट में काम ना रहे।” इस शुभ यात्रा का एक ही प्रयोजन है, साम्य-समता ही मेरा भोजन हो सदोदिता सदोल्लसा मेरी भावना हो, दानव-तन धर मानव-मन पर हिंसा का प्रभाव ना हो, दिवि में, भू में भूगर्भो में The dose of delusion ...Should become null and void The 'Dharma'–'Righteousness'-should come out triumphant The bondage of Karma' -Actions-be blotted out, Be victorious, be victorious Hail, a thousand cheers !” Lo! the time has approached nearer, That bucket, like an aerial car, Is just to rise upwards And The well-wishing is uttered - Through the lips of the fish : “My ambition is That In the ensuing endless eras This earthen vessel of mine Should have no 'Desire' at all!” The only purpose Of this auspicious journey is, - The equilibrium and equanimity alone Should be my food-stuff My sensibility should be Ever - bright and ever – radiant Having acquired even a devilish body, My human heart, Shouldn't be affected by violence, In the heavens, on the earth Down into the underneath Worlds
  10. गुरो ! दल दल में मैं था फँसा, मोह-पाश से हुआ था कसा । बन्ध छुड़ाया, दिया आधार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १ ।। पाप पंक से पूर्ण लिप्त था, मोह नींद में सुचिर सुप्त था । तुमने जगाया किया उपचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। २ ।। आपने किया महान उपकार, पहनाया मुझे रतन-त्रय हार । हुए साकार मम सब विचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ३ ।। मैंने कुछ ना की तब सेवा, पर तुमसे मिला मिष्ठ मेवा । यह गुरुवर की गरिमा अपार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ४ ।। निज-धाम मिला, विश्राम मिला, सब मिला, उर समकित-पद्य खिला । अरे! गुरुवर का वर उपकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ५ ।। अँधा था, बहिरा था, था मैं अज्ञ, दिये नयन व करण, बनाया विज्ञ। समझाया मुझको समयसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ६ ।। मोह-मल धुला, शिव-द्वार खुला, पिलाया निजामृत घुला-घुला । कितना था गुरुवर उर-उदार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ७ ।। प्रवृत्ति का परिपाक संसार, निवृत्ति नित्य सुख का भंडार । कितना मौलिक प्रवचन तुम्हार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ८ ।। रवि से बढ़कर है काम किया, जन-गण को बोध प्रकाश दिया । चिर ऋणी रहेगा यह संसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ६ ।। स्व-पर हित तुम लिखते ग्रन्थ, आचार्य उवझाय थे निर्ग्रन्थ । तुम सा मुझे बनाया अनगार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १० ।। इन्द्रिय-दमन कर कषाय-शमन, करते निशदिन निज में ही रमण । क्षमा था तव सुरम्य शृंगार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार || ११ || बहु कष्ट सहे, समन्वयी रहे, पक्षपात से नित दूर रहे । चूँकि तुममें था साम्य-संचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १२ ।। मुनि गावें तव-गुण-गण गाथा, झुके तुम पाद में मम माथा । चलते, चलाते समयानुसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १३ ।। तुम थे द्वादश विध तप तपते, पल पल जिनप नाम जप जपते । किया धर्म का प्रसार-प्रचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १४ ।। दुर्लभ से मिली यह "ज्ञान" सुधा, "विद्या" पी इसे, मत रो मुधा । कहते यों गुरुवर यही 'सार', मम प्रणाम तुम करो स्वीकार || १५ ।। व्यक्तित्व की सत्ता मिटा दी, उसे महासत्ता में मिला दी, क्यों न हो प्रभु से साक्षात्कार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १६ ।। करके दिखा दी संल्लेखना, शब्दों में न हो उल्लेखना । सुर, नर कर रहे जय जयकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १७ ।। आधि नहीं थी, थी नहीं व्याधि, जब आपने ली परम-समाधि । अब तुम्हें क्यों न वरे शिवनार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १८ ।। मेरी भी हो इस विध समाधि, रोष-तोष नशे, दोष उपाधि । मम आधार, सहज समयसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकर ।। १६ ।। जय हो ज्ञानसागर ऋषिराज! तुमने मुझे सफल बनाया आज । और इक बार करो उपकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। २० ।। श्री ज्ञानसागराय नम:
  11. ‘औरंगाबाद’ सुरपुर-सा, अत्यन्त जो दर्शनीय, शोभावाला, निकट उसके, भूरि जो शोभनीय । छोटा सा है ‘अडपुर’ जहाँ, न्यायमार्गाभिरूढ़, धर्मात्मा हैं, जनगण अहो! जो रहे हैं अमूढ़ ।। १ ।। धर्मात्मा थे, इस अड़पुरी, में सु-नेमी’ सुधी थे, पुण्यात्मा थे, अरु सदय थे, प्रेम कागार भी थे । दानी औ थे, नर कुशल थे, द्वेष से दूर भी थे, श्रद्धानी थे, वृषभ वृष के, मोद के पुंज भी थे ।। २ ।। तन्वंगी थी, वर मृगदृगी, और थी नारि रत्ना, रत्नों में जो, परम अरुणान्वीत जैसा सुपन्ना । या मानो थी, गुरुतमरसी-ली यथा यों सुगन्ना, नेमी की थी, ‘दगड़ललना’, जो सदा नीतिमग्ना ।। ३ ।। हीरा से भी, परमरुचिवाला हिरालाल बच्चा, जन्मा था जो, उन नृवर से, था तथा भूरि सच्चा । कांति ज्योति, कल वदन की, नेमीपुत्रांग की थी, वैसी शोभा, नयन रुचिरा, कृष्ण की भी नहीं थी ।। ४ ।। धीरे धीरे, शिशुपन टला, जो अतिल्हादकारी, आई दौड़ी, दगड-सुत में, जो जवानी करारी । प्रायः सारे, तव वदन को, देख के जो कुंवारी, होती थी वे, कुसुमशर के काम के हा शिकारी ।। ५ ।। बेटा तू तो, अब शिशु नहीं, तू बड़ा हो गया है, बेटा तेरा, यह समय तो, दर्प का आ गया है । ज्यों माँ बोली, अरु पितर भी, स्वीय हीरा रवी को, त्यों ही बोला, उचित वच भी, नेमिसूनू स्व-माँ को ।। ६ ।। देखो माँ जो, इक सुललना, जो बची है सदा से, मेरी शादी, यदि हि करना, चाहती तो मुदा से । मैं राजी हूँ, द्रुत तुम करो, मोक्ष-रूपी रमा से, ऐसा बोला, परम सुकृती, नेमिसूनू स्व माँ से ।। ७ ।। मेरा जी तो, शिव युवति से, मेल है चाहता माँ! वैसी नारी, अब तक नहीं, देखने को मिली मॉ । ऐसी स्त्री की, इस अवनि में, है नहीं प्रोपमा माँ! तो कैसे मैं, इस भवन में, जी सकूँ मोद से माँ!! ।। ८ ।। धारा भारी, सजल दृग से, मोचती नेमि-रामा, रोती बोली, अति बिलखती, नेमिकान्ताविरामा । सासू तो मैं, इस सदन में, हो रहूँ एक बार, ऐसी इच्छा, मम हृदय में, हो रही बार-बार ।। ६ ।। प्यारे बेटा, सुन वचन तो, तू कहाँ जा रहा है, मेरा जी तो, तब विरह से, कष्ट हा! पा रहा है । एकाकी तूं, वन गहन में, हा! न जा लाल मेरा, कैसा होता, सुतप तपना, खिन्न भी काय तेरा ।। १० ।। जावेगा तो, यदि कुँवर तू, प्राण मेरे चलेंगे, मेरे दोनों, दृग जलज तो, जो कभी न खिलेंगे । मेरी काया, किसलय-समा, शुष्कता को वरेगी, या तो हा!हा! लघु समय में, काँतिहीना दिखेगी ।। ११ ।। देखो माँ जी, भव विपिन में, हाय! तेरा न मेरा, प्रायः सारे, बुद-बुद समा, औ तथा पुत्र तेरा । मैं तो माँ जी, श्रमण बन के, धर्म का स्वाद लूँगा, दीक्षा लेके, सुशमदम से, दिव्य आत्मा लखूंगा ।। १२ ।। मीठी वाणी, सुरस भरिता, भूरि माँ को सुनाया, औ भी अच्छे, वचन कह के, धैर्य माँ को दिलाया । माता जी के, स्मित वचन से, दुख को भी दबाया, प्रायः माँ को, जिन धरम का, पाठ भी औ पढ़ाया ।। १३ ।। नाता तोड़ा, स्वजन-चय का, भूरि जो कष्टदायी, सारा छोड़ा, विषय विष को, जो अति क्लान्तदायी । आगे देखो, परम गुरु से, ‘वीर सिन्धू यती’ से, दीक्षा लेके, ‘शिव मुनि’ हुआ, मोद पाया वहीं से ।। १४ ।। भव्यात्मा थे, मुनिगणमुखी, थे अतः साधु नेता, शांति के थे, निलय गुरुजी, दर्प के थे विजेता । आचार्य श्री, शिवपथरति, थे बड़ेध्यामवेत्ता । सत्यात्मा थे, करण-नग के, भी बड़े वे सुभेत्ता ।। १५ ।। शुद्धात्मा के, तुम अनुभवी, थे अतः-अप्रमादी, संतोषी थे, वृष रसिक थे, औ अनेकान्तवादी । स्वप्नों में भी, न तुम करते, दूसरे की अपेक्षा, खाली देखो, शिवसदन की, आपको थी अपेक्षा ।। १६ ।। मोक्षार्थी थे, जिनभजक थे, साम्यवादी तथा थे, ध्यानी भी थे, परहित-रती, सानुकम्पी सदा थे । भव्यों को थे, शिवसदन का, मार्ग भी औ दिखाते, सन्तों के तो, शिवगुरु यहाँ, जीवनाधार ही थे ।। १७ ।। साथी को भी, अरु अहित को, देखते थे समान, थोड़ा सा भी, तब हृदय में, स्थान पाया न मान । दीक्षा दे के, कतिपय जनों, को बनाया सुयोगी, औ पीते थे, वृष अमृत को, चाव से थे विरागी ।। १८ ।। कामारी थे, शिवयुवति से, मेल भी चाहते थे, नारी से तो, परम डरते, शील-नारीश भी थे । ज्ञानी भी थे, सुतप तपते, देह से कृश्य भी थे, मुक्ति श्री को, निशिदिन तभी, पास में देखते थे ।। १६ ।। माथा रूपी, शिवफल तजू, आपके पादकों में, श्रद्धारूपी, स्मित कुसुम को, मोचता हूँ तथा मैं । मुद्रा है जो, शिवचरण में, औ रहे नित्य मेरी, प्यारी मुद्रा, मम हृदय में, जो रहे हृद्य तेरी ।। २० ।। छाई फैली, शिव-रवि छिपी, गाढ़ दोषा अमा की, आई दौड़ी, घन दुख घटा, ले अमा फागुना की । आचार्य श्री, अब इह नहीं, जो बड़े थे सुसौम्य, जन्मे हैं वे, अमरपुरि में, है जहाँ स्थान रम्य ।। २१ ।। पाया मैं तो, तव दश ना, जो बड़ा हूँ अभागा, ज्ञानी होऊँ, तव भजन को, किन्तु मैं तो सुगा गा । मैं पोता हूँ, भव जलधि के, आप तो पोत "दादा", ‘विद्या’ की जो, शिवगुरु अहो, दो मिटा कर्मबाधा ।। २२ ।। श्री शिवसागराय नम: आचार्य श्री गुरुवर्य प्रात: स्मरणीय
  12. https://vidyasagar.guru/quotes/sagar-boond-samaye/svadhyaay-gyani-agyani/ स्वाध्याय 6 - ज्ञानी/अज्ञानी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
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