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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. अत्यन्त है ललित ‘हैदरबाद राज’, साक्षात् यहाँ मुदित भारत-शीश ताज । ‘औरंगवाद’ सुविशाल जिला निराला , देखा जहाँ कलह का न कभी सवाला ।। १ ।। है ‘ईर’ सुन्दर यहाँ इसके समाना, है ही नहीं सुरपुरी दिवि में सुभाना । आते सदा निरखने इसको सुजाना, शोभामयी परम-वैभव का खजाना ।। जो श्री जिनालय सुमुन्नत ईर में हैं, मानो कहीं नभ रमा मुख चूमते हैं । प्रक्षाल पूजन तथा जिन गीत गाते, तो कर्म को सब मुमुक्षु जहाँ खपाते ।। ३ ।। जो श्रेष्ठ सेठ वृष-निष्ठ सुईर में थे, दानी निरन्तर सुलीन सुधर्म में थे । था ‘रामचन्द्र’ जिनका वह श्राव्य नाम, नामानुरूप अभिराम गुणैक धाम ।। ४ ।। धर्मात्म थे, सदय थे, सुपरोपकारी, षट्कर्म लीन नित थे बुध चित्तहारी । संतोष के सदन थे विनयी, कृपालु, सत्कार्य में रत कृतज्ञ, सदा दयालु ।। ५ ।। श्री रामचन्द्र ललना मनमोहिनी थी, सीता समा, परम-शील-शिरोमणी थी । शोभावती मदन को प्रमदारती थी, चंद्रानना, परम-भाग्यवती, सती थी ।।६।। हीरे समा-नयन रम्य सुदिव्य अच्छे, थे सूर्य-चन्द्र-सम तेज सुशांत अच्छे । जन्में दया भरित-नारि सुकूँख से थे, दोनों अहो! परम सुन्दर लाडलें थे ।। ७ ।। जो जेष्ठ, पुष्ठ अति हृष्ठ ‘गुलाबचन्द्र’ 'हीरादिलाल' लघु भाग्यवती सुनन्द । दोनों अहो! सुकूल के यश-कोष ही थे, या प्रेम के परम-पावन-सौध ही थे ।। ८ ।। तू यौवनोपवन में स्थित दर्शनीय, तेरा विवाह करना अति श्लाघनीय । तू हो गया अब बड़ा अवलोकनीय, नक्षत्र बीच शशि ज्यों, अति शोभनीय ।। ६ ।। आयोजना विविध है, बहु है विशेष सासू मुझे अब रहा बननाऽवशेष । ऐसा निजीय लघु बालक को सुनाया. मानों सुभाग्यवति ने मन को दिखाया ।। १० ।। चाहूँ नहीं विभव अम्ब! तथा विवाह, कैसे फंसू विषय में, मम है न चाह । मेरा विवाह इस जीवन में न होगा। जो आपका यतन व्यर्थ अवश्य होगा ।। ११ ।। ऐसा विचार सूत का सुन भाग्यमाता, रोती कही, उदय में मम क्यों असाता? ऐसा कुमार कह रे! मत हा! मुझे तू, क्यों दे रहा दुसह दुःख वृथा मुझे तू ।।१२।। छूटी तभी युगल लोचन नीर-धार, हा हा! हुई व्यथित भाग्यवती अपार । रोती घनी बिलखती उर पीट लेती,औ बीच-बीच रुक के चिर श्वांस लेती ।। १३ ।। संसार के विषय तो विष हैं सुनो माँ, क्या मारना चह रही मुझको कहो माँ! अत्यन्त दुःख सहता मम जीव आया, भारी मुझे विषय सेवन ने सताया ।। १४ ।। है नारकी नरक में मुझको बनाया, माता! निगोद तक भी उसने दिखाया यों हीरलाल जिसने निज-भाव गाया, वैराग्यपूर्ण उपदेश उन्हें सुनाया ।। १५ ।। संसार को विषम जान अनित्य मान, औ निन्द्य हेय निजघातक दुख जान । आगे वहाँ चल दिया वह हीरलाल, थे शांतिसागर जहाँ गुरु जो निहाल ।। १६ ।। हीरादिलाल वह जा गुरु 'शांति' पास, दीक्षा गही तव किया निज में निवास । तो 'वीरसागर' सुसार्थक नाम पाया, वीरत्व को जगत सम्मुख भी दिखाया ।। १७ ।। नादान, दीन मतिहीन, न धर्महीन, स्वामी! अतः स्तुति लिखूँ तब में नवीन । तो आपके स्तवन से निज को लखूँगा, मैं अंत में करम काट सुखी बनूँगा ।। १८ ।। श्री वीरसागर सुधीर महान वीर, थे नीर राशि सम आप सदा गभीर । स्वामी सुदूर करते जग-जीव-पीर, पीते सदा परम-पावन धर्म-नीर ।। १६ ।। स्त्री आपकी परम सुन्दर जो क्षमा थी। सेवा सदैव तव थी करती रमा-सी । स्वामी! सहर्ष उस संग सदा विनोद, मोक्षार्थ मात्र करते, गहते प्रमोद ।। २० ।। आहार मात्र तप वर्धन हेतु लेते, थे एक बार तन को तन का हि देते । मिष्ठान्न को पर कभी मन में न लाते, स्वामी नहीं इसलिये रस-राज खाते ।। २१ ।। छयालीस दोष तज के अरु मौन धार, जैसा मिले अशन ने यह योग सार । शास्त्रानुकूल वह भी दिन में खड़े हो, लेते अतः परम-पूज्य हुए बड़े हो ।। २२ ।। आधार थे सकल मानव के यहाँ पै, जैसे सुनींव घर की रहती धरी पै । निर्दोष था तब पुनीत अखंड शील, था आपका हृदय तो अतिशांत झील ।। २३ ।। श्रद्धान जैन मत का तुमको सदा था, सद्ज्ञान ‘शान्ति गुरू’ से तुमको मिला था । चारित्र तो तब यहाँ किसको छिपा था, तेरे झुके चरण में मम मात्र माथा ।। २४ ।। त्रैलोक्य को मदन यद्यपि जीत पाया, था आपका वह नहीं पर पास आया । क्या सिंह के निकट भी गज यूथ जाता? जाके कभी स्वबल से उसको सताता? ।। २५ ।। शुद्धात्म में रत सदा, दिन में न साते, थे किन्तु आप दिन रैन कुकर्म खोते । थी आपकी परम मार्दव धर्म-शय्या, थे नाव के मम यहाँ तुम ही खिवैया ।। २६ ।। निर्मेघ-नील-नभ में शशि-बिंब जैसा, शोभायमान तब जीवन नित्य वैसा । स्वामी कभी न पर दोष उछालते थे, वे बार-बार पर में गुण डूंढते थे ।। २७ ।। आराध्य की सतत थे करते सुभक्ति, कैसे मिले उस बिना निज को सुमुक्ति । तेरी अतः कठिन दुर्लभ साधना थी, थी स्वर्ग की न तुमको, शिव-कामना थी ।। २८ ।। स्वाध्याय लीन रहते निज दोष धोते, साधर्मि को लख सदा परितृप्त होते । आराधनामय हुताशन से जलाते, कालुष्य राग-तृण को तब आत्म ध्याते ।। २६ ।। निःस्वार्थतामय सुजीवन आपका था, मिथ्यात्व क्षोभ अरु लोभ विहीन भी था । उत्तुंग मेरुगिरी सादृश कंपहीन, थे नित्य ध्यान धरते तप में सुलीन ।। ३० ।। थे बीस-आठ गुणधारक अप्रमादी, थी आपने सकल ग्रन्थि अहो! हटा दी । अत्यन्त शांत, गत-क्लांत, नितांत शस्य, थे आप, हैं सब तुम्हें नमते मनुष्य ।। ३१ ।। थे भद्र ! भव्य, अघनाशक, प्रेम - धाम, था द्वेष का न तुममें कुछ भी विराम । संतोष से हृदय पूरित आपका था, कौटिल्य से विकल नाम न पाप का था ।। ३२ ।। वात्सल्य था हृदय में, पर था न शल्य, स्वामी अतः अवनि में तुम तोष-कल्य । आरम्भ, दभ्भ मय था न चरित्र तेरा, तेरे रहे चरण में यह शीश मेरा ।। ३३ ।। आदर्श से विमल, उज्ज्वल थे प्रशस्त, दुर्ध्यान से रहित थे, नित आत्म-व्यस्त । विद्यानुमंडित रहे जग-दुख-हारी, ‘विद्या’ न दर्शन किया तव खेद भारी!! ।। ३४ ।। था आप में सकल-संयम ओत-प्रोत, संसार में तरण-तारण आप पोत । की आपने न कब भी पर की अवज्ञा, टाली सु- ‘शांति गुरु’ की न कदापि आज्ञा ।। ३५ ।। देते कभी न रिपु को अभिशाप आप, लाते नहीं हृदय में परिताप पाप । स्वामी कभी समय का न कियाऽपलाप, आलस्य त्याग, जपते जिन-इन्द्र जाप ।। ३६ ।। थे आप शिष्ट, वृष-निष्ठ, वरिष्ठ योगी, संतुष्ट औ गुण-गरिष्ठ, बलिष्ठ यों भी । थे अन्तरंग-बहिरंग निसंग नंगे, इत्थं न हो यदि कुकर्म नहीं करेंगे ।। ३७ ।। सूई समान व्यवहार करो सभी ही, कैंची समान व्यवहार नहीं कभी भी ऐसा सुभाषण सदा सबको सुनाते, श्री वीर-नाथ-पथ को सबको दिखाते ।। ३८ ।। थे आपके प्रथम शिष्य ‘शिव’ शर्म योगी, दूजे सुपूज्य ‘जयसागरजी’ निरोगी । हैं विद्यमान ‘श्रुतसागर’ सिद्ध मूर्ति, औ ‘पद्म’ ‘सन्मति’ मुनीश्वर ‘धर्म’ स्फूर्ति ।। ३६ ।। अच्छे बुरे सब सदा न कभी रहे हैं, तो जन्म भी मरण भी अनिवार्य ही है । आचार्य-वर्य, गुरुवर्य समाधि ले के, सानन्द देह तज “वीर” गये अकेले ।। ४० ।। हे तात! घात!! पविपात!! हुआ यहाँ पै, आचार्य-वर्य गुरुवर्य गये कहाँ पै? जन्मे सुरेन्द्र-पुर में, दिवि में जहाँ पै, हूँ भेजता “स्तुते-सरोज” अतः वहाँ पै ।। ४१ ।। श्री वीरसागर सुभव्य-सरोज बन्धू, मैं बार-बार तव-पद-पयोज वंदू ।। हूँ ‘ज्ञान का प्रथम-शिष्य’ अवश्य बाल, ‘विद्या’ सुवीर-पद में धरता स्वभाल ।। ४२ ।। श्री वीरसागराय नम:
  2. बसन्ततिलका'छन्द ‘मैसूर राज्य' अविभाज्य, विराजता औ, शोभामयी - नयन मन्जु सुदीखता जो । त्यों शोभता, मुदित भारत - मेदिनी में, ज्यों शोभता, मधुप - फुल्ल सरोजिनी में ।।१।। है ‘बेलगाँव’ सुविशाल जिला निराला, सौन्दर्य - पूर्ण जिसमें पथ हैं विशाला । अभ्रंलिहा परम उन्नत सौधमाला, जो है वहाँ अमित उज्ज्वल औ उजाला ।।२।। है पास ‘भोज’ इसके नयनाभिराम, राकेन्दु-सा अवनिमें लखता ललाम । श्रीभाल में ललित कुंकुम शोभता ज्यों, औ भोज भी अवनि मध्य सुशोभता त्यों ।। ३।। आके मिली विपुल निर्मल नीर वाली, हैं भोज में सरित दो सुपयोज वाली। विख्यात है इक सुनो वर ‘दूध गंगा’, दूजी अहो! सरस शान्त सु ‘वेदगंगा’ ।। ४ ।। श्रीमान् महान् विनयवान् बलवान् सुधीमान्, श्री ‘भीमगौड़' मनुजोत्तम औ दयावान् । सत्यात्म थे, कुटिल आचरणज्ञ ना थे, जो भोज में कृषि कला अभिविज्ञ वा थे ।। ५ ।। नीतिज्ञ थे, सदय थे, सुपरोपकारी, पुण्यात्म थे सकल मानव हर्षकारी । जो लीन धर्म अरु अर्थ सुकाम में थे, औ वीरनाथ वृष के वर भक्त यों थे ।। ६ ।। श्री भीमगौड़ ललना अभि सत्यरूपा, थी काय कान्ति जिसकी रति - सी अनूपा । सीता समा, गुणवती, वर नारि रत्ना, जो थी यहाँ नित नितान्त सुनीतिमग्ना ।। ७ ।। नाना कला निपुण थी मृदुभाषिणी, थीं शोभावती मृगदृगी गतमानिनी थी । लोकोत्तरा छविमयी तनवाहिनी थी, सर्वसहा-अवनि-सी समतामयी थी ।। ८ ।। मन्दोदरी सम सुनारि सुलक्षिणी थी, श्री प्राणनाथ - मद - आलस - हारिणी थी । हँसानना शशिकला मनमोहिनी थी, लक्ष्मी समान जग सिंहकटी सती थी ।। ६ ।। हीरे समा नयन रम्य सुदिव्य अच्छे, थे सूर्य चन्द्र सम तेज, सुशान्त बच्चे । जन्में दया भरित नारि सुकूँख से थे, दोनों अहो ! परम सुन्दर लाडले थे ।। १० ।। था ज्येष्ठ पुष्ट अतिहृष्ट सु-देवगौड़ा, छोटा बड़ा चतुर बालक ‘सातगौड़ा’ । दोनों अहो ! सुकुल के यश-कोश ही थे, या प्रेम के परम-पावन-सौध ही थे ।। ११ ।। होता विवाह पर शैशवकाल में ही, पाती प्रिया अनुज की द्रुत मृत्यु यों ही । बीती कई तदुपरान्त अहर्निशायें, जागी तदा नव-विवाह सुयोजनायें ।। १२ ।। तो देख दृश्य’वह बालक सोचता है, है पंक ही नव विवाह, न रोचता है । दुर्भाग्य से सघन-कर्दम में फँसा था, सौभाग्य से बच गया, यह तीव्र साता ।। १३ ।। माँ ! मात्र एक ललना चिर से बची है, वैसी न नीरज मुखी अब लों मिली है । हो चाहती मम विवाह मुझे बता दो, जल्दी मुझे अहह ! अंब ! शिवांगना दो ।। १४ ।। इत्थं कहा द्रुत तदा वच भी स्व-माँ को, निर्भीक भीम-सुत ने सुमृगाक्षिणी को । जो भीमगौड़ पति की अनुगामिनी थी, औ कुन्दिता-मुकुलिता-दुखवाहिनी थी ।। १५ ।। काँटे मुझे दिख रहे घर में अहो! माँ, चाहूँ नहीं घर निवास, अतः सुनो माँ । है जैनधर्म जग सार, पुनीत भी है, माता ! अतः मुनि बनूँ यह ही सही है ।। १६ ।। तू जायगा यदि अरण्य अरे सबेरे, उत्फुल्ल-लोल-कल-लोचन-कंज मेरे बेटा ! अरे ! लहलहा कल ना रहेंगे, होंगे न उल्लसित औ न कभी खिलेंगे ।। १७ ।। रोती, सती, बिलखती, गत-हर्षिणी थी, जो सातगौड़ जननी, गजगामिनी थी। बोली निजीय सुत को नलिनीमुखी यों, ओ पुत्र ! सन्मुख तथा रख दी व्यथा यों ।। १८ ।। माता अहो ! भयानक-काननी में, कोई नहीं शरण है इस मेदिनी में । सद्धर्म छोड़ सब ही दुखदायिनी है, वाणी जिनेन्द्र कथिता सुखदायिनी है ।। १६ ।। माधुर्य-पूर्ण समयोचित भारती को, माँ को कही सजल-लोचन-वाहिनी को । रोती तथा बिलखती उर पीट लेती, जो बीच बीच रुकती, फिर श्वाँस लेती ।। २० ।। विद्रोह, मोह, निज-देह-विमोह छोडा, आगे सुमोक्ष-पथ से अति नेह जोड़ा । ‘देवेन्द्रकीर्ति’ यति, से वर भक्ति साथ, दीक्षा गही, वर लिया, वर मुक्ति पाथ ।। २१ ।। गम्भीर, पूर्ण, सुविशाल - शरीरधारी, संसार-त्रस्त जन के द्रुत आर्तहारी । औ वंश-राष्ट्र-पुर देश सुमाननीय, जो थे सु-'शान्ति' यतिनायक वन्दनीय ।। २१ ।। विद्वेष की न इसमें कुछ भी निशानी, सत्प्रेम के सदन थे, पर थे न मानी । अत्यन्त जो लसित थी, इनमें (अ) नुकम्पा, आशा तथा मुकुलिता अरु कोष चंपा ।। २२ ।। थे दूर नारि कुल से, अति-भीरू यों थे, औ शील-सुन्दर-रमापति किन्तु जो थे! की आपने न पर या वृष की उपेक्षा थी आपको नित शिवालय की अपेक्षा ।। २४ ।। स्वामी, तितिक्षु, न बुभुक्षु, मुमुक्षु जो थे, मोक्षेच्छु रक्षक, न भक्षक, दक्ष औ थे । यानी, सुधी, विमल-मानस-आत्मवादी शुद्धात्म के अनुभवी, तुम अप्रमादी ।। २५ ।। निश्चिंत हो, निडर निश्चल, नित्य भारी, थे ध्यान-मौन धरते तप औ करारी । थे शीत ताप सहते, गहते न मान, ते सर्वदा स्वरस का करते सुपान ।। २६ ।। शालीनतामय सुजीवन आपका था, आलस्य, हास्य विनिवर्जित शस्य औ था । थी आपमें सरसता व कृपालुता थी, औ आप में नित नितान्त कृतज्ञता थी ।। २७ ।। थे आप शिष्ट, वृषनिष्ठ, वरिष्ठयोगी, संतुष्ट थे, गुणगरिष्ठ, बलिष्ठ यों भी । थे अन्तरंग, बहिरंग, निसंग नंगे, इत्थं न हो यदि, कुकर्म नहीं करेंगे ।। २८ ।। था स्वच्छ, अच्छ व अतुच्छ चरित्र तेरा, था जीवनातिभजनीय पवित्र तेरा । ना कृष्य देह तब जो तप साधना से, यों चाहते मिलन आप शिवांगना से ।। २६ ।। प्रायः कदाचरण युक्त अहे धरा थी, सन्मार्ग रूढ़ मुनि मूर्ति 'न पूर्व में थी । चरित्र का नव नवीन पुनीत पथ, जो भी यहाँ दिख रहा तव देन संत ।। ३० ।। ज्ञानी विशारद सुशर्म पिपासु साधु, औ जो विशाल नर नारि समूह चारु । सारे विनीत तव पाद-सुनीरजों में, आसीन थे भ्रमर से निशि में, दिवा में ।। ३१ ।। संसार सागर असार अपार खार, गम्भीर पीर सहता इह बार-बार । भारी कदाचरण भार विमोह धार, धिक् धिक् अतः अबुध जीव हुआ न पार ।। ३२ ।। थे शेडबाल गुरुजी इक बार आये, इत्थं अहो सकल मानव को सुनाये । “भारी प्रभाव मुझ पै तब भारती का, देखा पड़ा इसलिये मुनि हूँ अभी का” ।। ३३ ।। अच्छे बुरे सब सदा न कभी रहे हैं, औ जन्म भी मरण भी अनिवार्य ही है । आचार्यवर्य गुरुवर्य समाधि लेके, सानन्द देह तज, ‘शान्ति’ गये अकेले ।। ३४ ।। छाई अतः दुख निशा ललना-जनों में, औं खिन्नता, मलिनता, भयता नरों में । आमोद हास सविलास विनोद सारे, है लुप्त मंगल सुवाद्य अभी सितारे ।। ३५ ।। सारी विशाल जनता महि में दुखी है, चिन्ता-सरोवर-निमज्जित आज भी है । चर्चा अपार चलती दिन रैन ऐसी, आई भयानक परिस्थिति हाय! कैसी? ।। ३६ ।। फैली व्यथा, मलिनता, जनता-मुखों में हा! हा! मची रुदन भी नर नारियों में । क्रीड़ा उमंग तज के वय बाल बाला, बैठी अभी वदन को करके सुकाला ।। ३७ ।। हे ! तात !! घात !! पविपात !! हुआ यहाँ पै, आचार्यवर्य गुरुवर्य गये कहाँ पै? जन्में सुरेन्द्रपुर में, दिवि में जहाँ पै, हूँ भेजता ‘स्तुति सरोज’ अतः वहाँ पै ।। ३८ ।। संतोष-कोष गत रोष “सुशान्ति-सिन्धु”, मैं बार-बार तब पाद सरोज वन्दूं । हूँ “ज्ञान का प्रथम शिष्य”, अवश्य बाल, “विद्या” सुशान्ति पद में धरता स्व-भाल ।। ३६ ।। श्री शान्तिसागराय नम:
  3. एक भावित हुई शेष प्रभावित हुईं एक को दृष्टि मिली दिशा सब पा गईं। दया की शरण मिली। जिया में किरण खिली और सब-की-सब उजली ज्योति से प्रकाशित हुईं स्नात स्नपित हुईं भीतर से भी, बाहर से भी तत्काल! इस अवसर पर पूरा-पूरा परिवार आ उपस्थित होता है। मुदित-मुखी वह। तैरती हुई मछलियों से उठती हुई तरल-तरंगें तरंगों से घिरी मछलियाँ ऐसी लगती हैं कि सब के हाथों में एक-एक फूल-माला है और सत्कार किया जा रहा है। महा मछली का, नारे लग रहे हैं- ‘‘मोक्ष की यात्रा ...सफल हो The one was inspired The rest of them were impressed The one was imbibed with insight The direction was obtained by the remaining Others. They got the shelter of compassion The beam was blossomed in the heart And All of them Were brightened with brilliant lustre Were bathed and washed At once Not only inwardly but also outwardly ! On this occasion The whole of the family With cheerful faces Seeks its presence. Caused by the swimming fish The surging fluid waves, The fish encircled with the waves, Appear as if Each one of them all Holds a garland into its hand And The great fish Is being greeted, The slogans are being raised - “The journey towards Final Liberation ...Should be a success,
  4. इधर...अधर से उतरी बालटी में पानी और पानी में बालटी पूर्ण रूप से दोनों अवगाहित होते हैं, मछली उसमें प्रवेश पा जाती है। “धम्मं सरणं पव्वज्जामि” इस मन्त्र को भावित करती हुई आस्था उसकी और आश्वस्त होती जा रही है। आत्मा उसकी और स्वस्थ होती जा रही है। आत्मा उसकी और स्वस्थ होती जा रही है। इस धृति की काष्ठा को देख कर इस मति की निष्ठा को देख कर सारी-की-सारी मछलियाँ विस्मित हो आईं और कुछ क्षणों के लिए उनकी भीतियाँ विस्मृत हो आईं। सत्कार्य करने का एक ने मन किया ...दृढ़ प्रण किया और शेष सबने उसका अनुमोदन किया। Hither...descending through the space, The bucket filled with water And the water encircling the bucket. Both of them get fully Immersed into each other, The fish finds Entrance inside it “Dhammam saranam pavvajjāmi, that is, ‘I’m seeking the shelter of ‘Dharma’ -While assimilating this incantation- Mantra Its faith Is getting gradually assured, Its soul Is getting more and more healed up. On seeing this height of steadiness On seeing this fidelity of intellect All the fish Felt astonished And For some moments Their fears Were faded away. One of them felt inclined And made up its mind... To do virtuous deeds And All the rest of them Extended their approval.
  5. और, सहेली के बिना अकेली ही चलती मछली सामयिक सूक्तियाँ छोड़ती हुई प्रत्येक व्यवधान का सावधान हो कर सामना करना नूतन अवधान को पाना है, या यूँ कहूँ इसे- अंतिम समाधान को पाना है। गुणों के साथ अत्यन्त आवश्यक है। दोषों का बोध होना भी, किन्तु दोषों से द्वेष रखना दोषों का विकसन है। और गुणों का विनशन है, काँटों से द्वेष रख कर फूल की गन्ध-मकरन्द से वंचित रहना अज्ञता ही मानी है, और काँटों से अपना बचाव कर सुरभि-सौरभ का सेवन करना विज्ञता की निशानी है। सो…. विरलों में ही मिलती है। And, departing with its companion, The fish starts off all alone, Leaving behind the timely wise sayings : To face every obstruction With due precautions Is to achieve fresh concentration, Or it should be re-told thus- It is to find out the final solution. Along with the virtues It's absolutely necessary To understand the vices also, But To breed ill-will against vices Is to help grow the vices And It's to destroy the virtues; To foster malice for the thorns And to miss The fragrance and pollen of the flowers Is regarded only ignorance, And Having secured ourselves against the thorns, To make good use of the fragrance and saffron Is a symbol of wisdom- That... Which is found rarely amongst us !
  6. सत्य अहिंसा जहाँ लस रही, मृषा, हिंसा को स्थान नहीं। मधुर रसमय जीवन वही, फिर स्वर्ग मोक्ष तो यही मही ।। कितनी पर हत्या हो रही, गायें कितनी रे! कट रहीं । तभी तो अरे! भारत मही, म्लेच्छ खण्ड होती जा रही ।। लालच-लता लसित लहलहा, मनुज-विटप से लिपटी अहा। भयंकर कर्म यहाँ से हो रहा, मानव दानव है बन रहा ।। केवल धुन लगी धन, धन, धन, चाहे कि धनिक हो या निर्धन । लिखते लेकिन वे साधु जन, वह धन तो केवल पुद्गल कण।। एकता नहीं मात्सर्य भाव, जग में है प्रेम का अभाव । प्रसारित जहाँ तामस भाव, घर किया इनमें मनमुटाव ।। याचना जिनका मुख्य काम, बिना परिश्रम चाहते दाम । सत्पुरुष कहें वे श्रीराम, पुरुषार्थो को मिले आराम ।। कहाँ तक कहें यह कहानी, कहते कहते थकती वाणी । रह गई दूर वीर वाणी, विस्मरित हुई, हुई पुराणी।। रसातल जा मत दुःख भोगो, मुधा पाप बीज मत बोओ। हाय! अवसर वृथा मत खोओ, मोह नींद में कब तक सोओ ।। युगवीर का यही सन्देश, कभी किसी से करो न द्वेष । गरीब हो या धनी नरेश, नीच उच्च का अन्तर न लेष ।। वीर नर तो वही कहाता, कदापि पर को नहीं सताता । रहता भूखा खुद न खाता, भूखे को रोटी खिलाता ।। क्लव यह, करे सद् “विद्याभ्यास” रहे वीर चरणों में खास । बस मुक्ति रमा आये पास, प्रेम करेगी हास विलास।। - महाकवि आचार्य विद्यासागर
  7. आत्मानुभवसे नियमसे होती सकल करम निर्जरा दुखकी शृंखला मिटे भव फेरी मिट जाय जनन जरा परमें सुख कहीं है नहीं जगमें सुखतो निज में भरा मद ममतादि तज धार शम, दम, यम मिले शिव सौख्यखरा यदि भव परम्परा से हुआ घबरा तज देह नेह बुरा तज विषमता झट, भज सहजता तू मिल जाय मोक्ष पुरा देह त्यों बंधन इस जीवको ज्यों तोते को पिंजरा बिन ज्ञान निशिदिन तन धार भव, वन तू कई बार मरा भटक, भटक जिया सुख हेतु भवमें दुख सहता मर्मरा चम चम चमकता निजातम हीरा काय काच कचरा - महाकवि आचार्य विद्यासागर
  8. कर कषाय शमन, पंच इन्द्रिय दमन, नित निजमें रमण, कर स्वको ही नमन । जिया! फिर भव में, नहीं पुनरागमन, ओ! क्या बताऊं! बस चमन ही चमन ।। समता - सुधापी, तज मिथ्या परिणति, बनना चाहता यदि शिवांगना - पति । ।१ ।। केवल पटादिक वह मूढ़ छोड़ता, सुधी कषाय - घट, को झटिति तोडता ।। गिरि - तीर्थ करता वह जिन दर्शनार्थ, जिनागम जो मुनि पढा नहीं यथार्थ ।। मद ममतादि तज बन तू निसंग यति, बनना चाहता यदि शिवांगना - पति ।।२।। सुख दायिनी है यदि समकित - मणिका, दुख दायिनी है वह माया - गणिका ।। पीता न यदि तू निजानुभूति - सुधा, स्वाध्याय, संयम, तप कर्म भी मुधा ।। दिनरैन रख तू केवल निज में रति, बनना चाहता यदि शिवांगना पति ।।३।। उपादान सदृश होता सदा कार्य, इस विधि आचार्य बताते अयि! आर्य ‘विद्या’ सुनिर्मल, - निजातम अत:! भज, परम समाधि में स्थित हो कषाय तज ।। संयम भावना बढ़ा दिनं प्रति अति, बनना चाहता यदि शिवांगना पति ।।४।। - महाकवि आचार्य विद्यासागर
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