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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. अज्ञात पुरुष सागर-तट पर निर्निमेष ! निहार रहा है वस्तु-स्वरूप रूप-लावण्य ज्ञात करना चाह रहा है और ..... वह ..... स्वयं उधर से...। ठहर ठहर कर गहर गहर कर अपार सागर रहस्यमय गाथा गाता .... गाता ! जा रहा है ...... जा रहा है लहर लहर चुन तट तक लाकर लौट रहा है, लौट रहा है… लहरों को मुड़कर कहाँ निहारता है ? कब निहारा ? लहर लहर है नहीं नहर है नहरों में लहर हैं लहरों में नहर नहीं लहर जहर हैं कहाँ खबर है ? किसे खबर है ? उसी जहर से अपना गागर भरता जाता, भरता जाता यह संसार। प्रहर-प्रहर पर मरता जाता, मरता जाता ... यह संसार ! दु:ख से पीड़ित आह! भरता मैं हूँ शाश्वत सत्ता अविनश्वर जल का आकर। पर प्रायः अज्ञात। मेरा ज्ञात होना ही मोक्ष है, अक्षय मोह का क्षय है अब तो ज्ञात कर ले कम से कम अपने पर, महर महर कर ले हे अज्ञात पुरुष ! अपने पर महर महर कर ले।
  2. हथेलियों से सम्भव नहीं स्निग्धता की अधिकता माटी में और लाना है ना! गोंद बनाना है उसे पगतलियों से ही सम्भव है यह कारण कि कर्तव्य के क्षेत्र में कर प्रायः कायर बनता है और कर माँगता है कर वह भी खुल कर! इतना ही नहीं, मानवत्ता से घिर जाता है मानवता से गिर जाता है, इससे विपरीत-शील है पाँव का परिश्रम का कायल बना यह पूरा का पूरा, परिश्रम कर प्रायः घायल बनता है और पाँव नता से मिलता है। पावनता से खिलता है। लो! यकायक यह क्या घटने को...! श्वास का सूरज वह अस्ताचल की ओर सरकता-सा... शिल्पी का दाहिना पद चेतना से रहित हो रहा है खून का बहाव था जिसमें उस पद में अब... खून का जमाव हो रहा है। Isn't possible with the palms, The affluence of smoothness Is to be added to the Soil, indeed! It has to be made into gum It's possible only through the soles Due to the reason that, In the field of duty The hand generally appears to be timid, And The hand asks for hand, And that too, in a frank manner ! Not only this much, It is surrounded with arrogance It falls down from humanity; On the contrary, there is the conduct of the foot, Being fully convinced with diligence It, in its completeness, by taking pains, Is generally injured And The foot bends upon humility Delights in purification. Lo! all of a sudden, what is it going to happen ! That sun of breathing Crawling down the Western horizon... The right foot of the Artisan Is getting benumbed, Where-in there was circulation of blood Now, therein The accumulation of blood is appearing.
  3. कई गुणा अधिक साहित्यिक रस को आत्मसात् करता है श्रद्धा से अभिभूत श्रोता वह। प्रवचन-श्रवण-कला-कुशल है; हंस-राजहंस सदृश क्षीर-नीर-विवेक-शीलवाला! यह समुचित है कि रसोइया की रसना रस-दार रसोई का रसास्वादन कम कर पाती है। क्योंकि, प्रवचन-काल में प्रवचनकार, लेखन-काल में लेखक वह दोनों लौट जाते हैं अतीत में। उस समय प्रतीति में न ही रस रहता है। न ही नीरसता की बात, केवल कोरा टकराव रहता है लगाव रहित अतीत से, बस! शिल्पी का आगमन हो रहा है। माटी की ओर! फूली माटी को रौंदना है रौद-रौंद कर उसे लोंदा बनाना है रौंदन क्रिया भी वह The hearer, who is subdued with faith, Assimilates the literary essence In a largely multiplied quality. He is an expert in the art of sermon-hearing; Like a swan-flamingo Discerning the milk from water ! It is quite proper that The tongue of a butler Can take only a little of relish From the tasteful foodstuffs. Because The preacher at the time of preaching, The author at the time of his writing-period Both of them return back into the past. In that period of conviction There remains neither the taste Nor the sense of tastelessness, Only a bare clash looms large Upon a non-attached past, indeed ! The Artisan's arrival is taking place Towards the Soil ! The swollen soil is to be trampled, Having trampled it It has to be kneaded into lumps, That process of trampling too -
  4. साहित्य का मन्थन करता मन्मथ-मन्थक बना वह उसका माथा...! साहित्य-रस में डूबा भोर-विभोर हो एक टाँग वाला, पर नर्तन में तत्पर है काँटा! मन्द-मन्द हँसता-हँसता उसका हंसा एहसास कराता है शिल्पी को कि सदा-सदियों से हंसा तो जीता है दोषों से रीता हो, परन्तु सबकी वह काया पीड़ा पहुँचाती है सबको इसीलिए लगता है, अन्त में इस काया का दाह-संस्कार होता हो। हे काया! जल-जल कर अग्नि से, कई बार राख, खाक हो कर भी अभी भी जलाती रहती है आतम को बार-बार जनम ले-ले कर! इधर, यह लेखनी भी कह उठी प्रासंगिक साहित्य-विषय पर, कि लेखनी के धनी लेखक से और प्रवचन-कला-कुशल से भी While stirring the literature Its forehead... Obtained the form of Cupid's churning-stick ! Absorbed into the taste of literature. Being deeply charmed The single-legged one, yet Engaged into dancing, the thorn ! Smiling gracefully Its individual soul Makes the Artisan feel That The Hamsā, that is-Soul-lives everlastingly Sustaining no blemish at all, But that body of everybody Causes pains to one and all Hence, it seems that this dead body Is put to burning ceremony in the end. O Body ! being burnt once and again into flames, Turning into ashes and dust even several times - Thou still inflameth the Spirit' frequently By taking births once and again. Hither, this pen too started saying something About the topic of literature, under reference, that More than the writer rich in penmanship And More than an eloquent propounder of sacred texts even,
  5. 18 फ़रवरी २०१८ परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार दोपहर लगभग 2:45 बजे हुआ। पूज्य आचार्य श्री जी का स्वास्थ्य कुछ नरम-गरम चल रहा है, इसके बाबजूद भी चर्या यथावत चल रही है। यही कारण है कि आज भी विहार कर रहे है। ● आज का रात्रि विश्राम- नेवधा में संभावित। निकटतम मुख्य स्थान- ● भाटापारा - 33 किमी, कल दोपहर पश्चात मंगल प्रवेश संभावित। ● बिलासपुर- लगभग 70-75 किमी। परम् पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार आज दोपहर में थोड़ी देर पहले ही रायपुर से बिलासपुर की ओर हुआ। आज का रात्रि विश्राम- नरहट (7.5 किमी) ज्ञान गंगा स्कुल मे सम्भावित |
  6. ‘‘हित से जो युक्त-समन्वित होता है वह सहित माना है और सहित का भाव ही साहित्य बाना है, अर्थ यह हुआ कि जिसके अवलोकन से सुख का समुद्भव-सम्पादन हो सही साहित्य वही है अन्यथा, सुरभि से विरहित पुष्प-सम सुख का राहित्य है वह सार-शून्य शब्द-झुण्ड...! इसे, यूँ भी कहा जा सकता है कि शान्ति का श्वास लेता सार्थक जीवन ही सर्जक सृष्टा है शाश्वत साहित्य का। इस साहित्य को आँखें भी पढ़ सकती हैं कान भी सुन सकते हैं इसकी सेवा हाथ भी कर सकते हैं यह साहित्य जीवन्त है ना!” इस बार...तो...काँटा कान्ता-समागम से भी कई गुणा अधिक आनन्द का अनुभव करता है फटा माथ हो कर भी “ That which is united and co-ordinated with the welfare Is regarded to be benevolent, And The purport of the benevolent Is the profession of literature, It really means that The true literature is only that By studying which Happiness should be originated and attained Otherwise, Like a flower devoid of sweet smell It is the deprivation of happiness A cluster of words without sum and Substance...! This point may also be put thus That A fruitful life, indeed, Breathing peacefulness, Is the creator of immortal literature, Such a literature May be read also by the eyes May also be heard by the ears The hands may also serve it, Indeed, such a literature is alive!” Well...this time...the thorn Feels indeed much delighted Even many times more Than that of the re-union with one's better-half, Despite having its forehead crumbled, -
  7. मणिमय मौलिक दिव्यालौकिक मनहर हार जब से तुम से प्राप्त हुआ है उसे बस! अपहरण करना चाहती है मुझे वरण करना चाहती है अनन्त भविष्य में मेरे चरण-शरणा गहना चाहती है स्वयं अकेली जीवित रहने को स्वीकृति है। इच्छा है पर! धृति नहीं है अक्षमा ! विलम्ब हुआ सेव्य की गवेषणा में कारुणिक आँखों से मन ही मन... मानो ! मौन कहती माँग रही है पुनः पुनः क्षमा...! मृदु-मुक्ति-रमा ! परन्तु यह सब इसे कब स्वीकार है ? यह स्वयं ही श्रीकार है इस गूढ़ गोपनता को इसने सूँघा है इस की नासिका सोई नहीं अब ! उत्थानिका है और एक और कारण है दासी दास बनना इतनी परतन्त्रता नहीं जितनी, कि ईश स्वामी बनना परतन्त्रता की अन्तिम सीमा है। इसलिए अक्षतवीर्य हूँ और रहूँ… अविवाहित! अबाधित बनने विवाह करना रमणी-रमण में रमना मातृ-सेवा से वंचित रहना है ना ! यह एक महती असह्य वेदना है मेरे लिए...। हे चितिजननी ! अंग-अंग को अनंग-अंगार अंगारित कर न ले अंगातीत अनुभव क्षण में संगातीत-भावित-मन में अंकुरित विकार कर न ले और महदाकार धर न ले इससे पूर्व सरस-शान्त-सुधा कृपावती ! कर कर कृपा इसे पिला दे...। हे! यतिगणनी ! फलस्वरूप रति, रति-पति के प्रति मति में रतिभाव हो न सके प्रादुर्भाव ! बस ! इस मति की रति विषय-विरति में सतत निरत रहे हे रतिहननी ! जिनमें परम शान्त रस पर्याप्त मात्रा में छलक रहा हो जिनमें चिति गोपन-पन ऊपर आने को मचल रहा हो ऐसे श्रुति-मधुर अश्रुत-पूर्व आतम गीत.....संगीत सुना-सुना कर संकट कंटक विहीन अपने अंक में इसे बुला ले ! सुचिर काल तक इसे सुला ले ! हे! मन्मथ-मथनी ! मार्दव माता मतिशमनी ! फलतः निश्चित समग्र ऊर्जा ऊर्ध्वमुखी हो आतम पथ पर यात्रित हो। मूर्त का बहिष्कार अन्तर्मुहूर्त में त्रुटित गात्रित हो। परिधि से हट कर सिमिट-सिमिट कर अमिट केन्द्र में, एकत्रित हो। आगामी अनन्तकाल तक एकतंत्रित हो। हे! चितिजननी ।
  8. इस युग में भी सत-युग सा सुधार तो हुआ है पर लगता है उधार हुआ है, अन्यथा कभी का हुआ होता उद्धार...। प्रभु के कदमों पर चलने वाले कदम कम नहीं हैं। उन कदमों में मखमल मुलायम अच्छी अहिंसा पलती है साथ ही साथ उन कलमों में हिंसा की दुगनी ज्वाला जलती है इस युग में भी सत युग सा सुधार तो हुआ है पर लगता है उधार हुआ है !
  9. मोक्ष का धाम है।” यह सुन कर तुरन्त! धन्य हो! धन्य हो! कह उठ कंटक पुनः। ‘‘आज इसने सही साहित्य-छाँव में अपने आपको पाया है झिल-मिल झिल-मिल मुक्ता-मोती-सी लगती हैं आपके मुख से निकलती शब्द-पंक्तियाँ ये। लक्षणा का उपयोग-प्रयोग विलक्षण है यह, बहुतों से सुना, पर बहुत कम सुनने को मिला यह। और व्यंजना भी आपकी निरंजना-सी लगती है विविध व्यंजन विस्मृत होते हैं यदि सुविधा हो, बड़ी कृपा होगी, उदार बन कर अभिधा की विधा भी सुधारूँ- सुनाओ...तो...सुनूँ... स्वामिन्! ‘साहित्य' इस शब्द पर हो तो फिर कहना ही क्या, सर्वोत्तम होगा सम-सामयिक!'” शिल्पी के शिल्पक-साँचे में साहित्य शब्द ढलता-सा! Is the Abode of Final Liberation.” On hearing this, at once ! Well ! well indeed ! Exclaimed the thorn again. “Today, it [ the thorn] has Found itself Under the true shade of literature, These rows of words Emerging from your mouth Appear like pearls, Having a glimmering lustre, The usage and application Of this suggestive metaphor is uncommon I heard from many persons, but It came rarely as such to my hearing. And Your subtle expression too, seems to be faultless, The different tasteful eatables get into oblivion. If it's convenient, It will be so kind of you- By becoming large-hearted, Let me amend my style of literal expression- Kindly relate... so that...I may hear, my Lord! If it is related to the word ‘Literature Then, it is so good, - The contemporary shall be the best!” The word Sahitya [Literature] looked as if being cast Into the skilful mould of the Artisan !
  10. ऊर्ध्वमुखी हो ऊर्ध्व उठा है इतना कि जिसे अशन-वसन की ललन-मिलन की परस-हसन की और प्रभु पद दर्शन की तक इच्छा नहीं शेष...! गुण-सुरभि से सुरभित फुल्लित फूल-परागी कहाँ है वह वीतरागी कहीं हो उसे हो नमन पराग प्यासा अलि बन रागी !
  11. आलोक का अवलोकन आँखें करतीं अकुलातीं, विकलित होतीं एक पर टिकती नहीं उस की ऊर्जा बिकती है पल-पल परिवर्तित हो पर पर जा टिकती है यही कारण है हे! आलोक पुंज ! आलोक तुम से नहीं चाहता यह विशुद्धतम तम-तम में आँखें पूरी खुलती हैं एक पर टिकतीं अनायास । अपलक निश्चल होती है अवलोकन पूरा होता है मनन मन्थन अबाधित चलता है अनुभूति में मति ढलती है इसलिए आलोक बाधक है अलिगुण कालिख अन्धकार ! साधक है इस साधक को अपना आलोक इन आँखों पर मत छोडो...! ओ! आलोक-धाम! बिजली कौंधती है तब ! आँखें मुँदती हैं !
  12. स्थिर मन ही वह महामन्त्र होता है और अस्थिर मन ही पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है, एक सुख का सोपान है एक दु:ख का ‘सो' पान है।” पुनः शूल जिज्ञासा व्यक्त करता है कि “मोह क्या बला है और मोक्ष क्या कला है ? इनकी लक्षणा मिले, व्याख्या नहीं, लक्षणा से ही दक्षिणा मिलती है। लम्बी, गगन चूमती व्याख्या से मूल का मूल्य कम होता है सही मूल्यांकन गुम होता है मात्रानुकूल भले ही दुग्ध में जल मिला लो दुग्ध का माधुर्य कम होता है अवश्य! जल का चातुर्य जम जाता है रसना पर!” कंटक की जिज्ञासा समाधान पाती है शिल्पी के सम्बोधन से- “अपने को छोड़ कर पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही मोह का परिणाम है और सबको छोड़ कर अपने आप में भावित होना ही A serene mind is truly A Mahā-mantra - an efficacious incantation And A fickle mind is really A realm of sin, full of wantonness, The one is a stair for happiness The other is, hence, a drink of sufferings.” Again the thorn expresses its curiosity That "What calamity the 'delusion' is And What art is the Supreme Salvation' ? The true indications of these are required, not explanations, The genuine attributes win over the award. By the lengthy and Sky-touching elucidation The value of the ‘fundamental decreases, The true evaluation is found missing. It doesn't matter if you mix-up The milk with water in due quantity - The sweetness of the milk surely decreases ! The smartness of the water is frozen over the tongue!” The inquest of the thorn is rectified In the addressing of the Artisan- “Leaving behind our own 'Self' To be infatuated with alien objects, indeed, Is the result of delusion' And Abandoning entirely everything else To contemplate within our own True 'Self', indeed
  13. हे! अमरता हे! अमलता समलता का जीवन जीता असह्य सहता विरह वेदना युगल कर तल मलता मलता मरता मरता बचा है क्षीणतम श्वास इस घट में ऐसा भाग्य किसने रचा है ? जिसके सम्मुख मौन वेद, पुराण, ऋचा हैं तू कहाँ गई थी अपना कलेजा साथ ले जाती अपना दिल ..... धड़कन!। तो यह सब क्यों......यों.. घटित होती अनहोनी-सी ओ! परम-सत्ता! स्वाभिमान से घुली गंभीर ध्वनि ध्वनित हुई सम्बोधन के रूप में अरूप शून्य में से कि अरे! लाला वाणी में जरा सा संयम ला...........ला...। बना बावला कहीं ..... का... मैं भ्रमणशीला नहीं हूँ विभ्रमशीला नहीं हूँ सदा सर्वथा सहज सजीली मेरी लीला काला पीलापन लाला नीलापन महासत्ता में सम्भव नहीं है विलोम परिणमन पर का अनुगमन प्रभावित हो पर से पर के प्रति नमन… परिणमन...! असम्भव! त्रैकालिक अपनी सीमा इयत्ता का उल्लंघन! हाँ ! व्यक्तित्व की सत्ता में यह सब कुछ होना सम्भव है तभी भटक रहा है तू भव भव पराभूत हो किये बिना अपना अनुभव नाना विकारों में नाना प्रकारों में बार-बार हो उद्रभव उचित ही है कि कोमल-कोमल कोंपल पल-पल पवनाहत हो क्यों ना दोलायित हो अपना परिचय देते मौन खोल देते गांभीर्य त्याग भोले बालक-सम बोल-बोल लेते फूले वे डाल-डाल के गोल-गोल हैं गाल-गाल भी चंचलता में झूले वे अपनी अपनी सीमा परिधि सहज चाल को भूले वे पर! पर क्या ? तरु का स्कन्ध !... निस्पन्द! स्तब्ध! होता है कब हुआ ? वह स्पन्दित ! पुरुषार्थ के बल केवल बल का विस्फोटक हो जा हे! भव्य ! भावी-भवातीत शिव शंकर ! हे! शंभव ! अब तो कर ले आत्मीयता का अव्यय भव-वैभव का अनुपम अनुभव! हृदय में उठती हुई तरंगमाला समर्पित करती हुई लघु सत्त्ता ओ महाशक्ति! अपनी शक्ति से या युक्ति से इसे प्रभावित कर दो शासित कर दो अपने शासन से ऐसा सम्मोहित कर दो कि यह अर्पित हो सके सेवक बन कर पाद-प्रान्त में सरोष स्वरों में महासत्ता का उत्तर! सर्वंसहा हूँ सर्वं स्वाहा नहीं हूँ लेना नहीं देना ही जानती हूँ जीवन मानती हूँ महा सत्ता माँ दूसरों पर सत्ता चलाना हे वत्स ! हिंसक कार्य मानती है आरूढ़ हो सिंहासन पर शासक बन शासन चलाना परतन्त्रता का पोषण है स्वतन्त्रता का शोषण है यही माँ का सदा सदा बस उद्घोषण है सत्पथ दर्शक दिव्यालोक रोशन है ! रोशन है ! !
  14. प्रकृति के प्यार ने रंगीन राग ने अरूपी पुरुष को चिदम्बर को न केवल... ..... पापी पाखण्डी और रूपी बनाया है परन्तु पुरुष की परख करना भी कठिन हो गया है आज ! बहुरूपी बनाया है चितकबरा बेशक !...
  15. पश्चाताप के साथ कंटक कहता है कि “अहित में हित और हित में अहित निहित-सा लगा इसे, मूल-गम्य नहीं हुआ चूल-रम्य नहीं लगा इसे बड़ी भूल बन पड़ी इससे। प्रतिकूल पद बढ़ गये वह पीछे...बहुत... दूर अनुकूल पथ रह गया गन्ध को गन्दा कहा चन्द को अन्धा कहा पीयूष विष लगा इसे भूल क्षम्य हो स्वामिन्! और इसे एक अच्छा मन्त्र दो, परिणामस्वरूप आमूल जीवन इसका प्रशम-पूर्ण शम्य हो फिर, क्रमशः जीवन में वह भी समय आये- शरणागतों के लिए अभय-पूर्ण शरण्य हो। परम नम्य हो यह भी।” इस पर शिल्पी कहता है, कि “मन्त्र न ही अच्छा होता है। न ही बुरा अच्छा, बुरा तो अपना मन होता है The thorn adds with a sense of remorse That “It seemingly felt The useful hidden into the harmful And The detrimental hidden into the beneficial, The approach couldn't reach the root The crest didn't appear to it pleasant, It committed a blunder. The adverse steps covered up, A long distance...backward... The favourable path remained behind, The fragrance was said to be filthy The moon was declared blind, It seemingly felt The nectar to be poison, The error be pardoned, my Lord! Let it be blessed with an excellent Mantra-incantation, As a result of which Its life, from top to bottom, Should be pacified and blissful Then, gradually, that period Should come in the life-span – Which should be an abode of shelter Fear-free for the fugitives It should be also highly venerable.” On hearing this, the Artisan says that : “A Mantra - incantation - is neither good Nor bad Good or bad, indeed, Is our own mind.
  16. विपरीत रीत बनी दशा में अमा की घनी निशा में स्वयं को देखा था कि मैं अकेला प्रकाश पूँज हूँ ललाम हूँ शेष सब शाम शाम किन्तु ज्ञात हुआ आज! पौर्णिमा केवल आप हो उद्योत इन्दु ! और यह टिम टिमाता खुद खद्योत है।
  17. प्रभु के विभु त्रिभुवन के निकट जाना चाहते हो तुम .....! उस मंदिर में जाने, टिकट पाना चाहते हो तुम...! वहाँ जाना बहुत विकट है। मानापमान का अवसान ! अनिवार्य है, सर्वप्रथम...! वहाँ विराजमान हैं भगवान ! जिस मंदिर का चूल ! शिखर ! गगन चूम रहा है और प्रवेश द्वार... । धरती सँघ रहा है वहाँ जाना बहुत विकट है।
  18. बोध के फूल कभी महकते नहीं, फिर ! संवेद्य-स्वाद्य फलों के दल दोलायित कहाँ और कब होंगे...? लो सुनो, मनोयोग से! लेखनी सुनाती है, कि बोध का फूल जब ढलता-बदलता जिसमें, वह पक्व फल ही तो शोध कहलाता है। बोध में आकुलता पलती है शोध में निराकुलता फलती है, फूल से नहीं, फल से तृप्ति का अनुभव होता है, फूल का रक्षण हो और फल का भक्षण हो हाँ! हाँ!!! फूल में भले ही गन्ध हो पर, रस कहाँ उसमें ! फल तो रस से भरा होता ही है, साथ-साथ सुरभि से सुरभित भी...! क्षत-विक्षत शूल का दिल हिल उठा, दिल का काठिन्य गल उठा शिल्पी के इस शिल्पन से अश्रुत-पूर्व जल्पन से। The flowers of perfect awakening never smell Sweet Then ! Where and when shall swing The sensitive and delicious bunches of fruits...?” Come, listen attentively! The pen relates, that When the flower of perfect awakening Gets moulded and transformed, That ripened fruit, therein, Is, indeed, called purification. Intellect rears restlessness Purification bears the fruit of perfect repose, Not through the flowers, but through the fruits. Contentment is felt, The flower ought to be protected And The fruit should be eaten; Yes! O yes !! The flower may well bear fragrance But, where is the juice in it! The fruit is verily full of flavour, It's perfumed as well! With sweet smell too...! The heart of the wounded thorn Was shaken about, Its hardness melted away- With this craftsmanship of the Artisan With the conversation unheard-of before.
  19. ओ माँ। सार्वभौमा भली कहाँ गई तू ! चली। इसे विसार छोड़कर निराधार इधर यह भटक रहा है इधर उधर गली गली तुझे ढूँढ़ता कहाँ है वह गूढ़ता निगूढ़ता अकेला बावला बन जिधर जिधर दृष्टिपात किया। उधर उधर शून्य! शून्य!! शून्य!!! केवल शून्य ! क्या शून्य में लुप्त गुप्त हुई ? किधर गई किधर देखें ? अधर में मुझे मत लटका ! हे! अधर-पथ-गामिनी मौन मुस्कान कम से कम दिखा दे अधर पर अमूर्त केन्द्र की ओर अमूर्त इन्द्र को गतिमान प्रगतिमान होने की विधि दिखा दे या मौन सांकेतिक भाषा में वह लिखा दे हे अनन्त की जननी ! अनन्तिनी ! अनन्तकाल के लिए अपने अविचल अंक में | आश्रय दे इसे बिठा ले यह समय, अभय हो पल्यंक-आसन लगा उस अंक में शीतल शशांक-सा पर ! आशंक आत्माभिभूत हो सके इस में अनावरण का वातावरण आविर्भूत हो सके पूतपना प्रादुर्भूत हो सके हो सके। इतनी कृपा कर देना। कौन-सा पथ है तेरा जिस पथ पर चिह्नित पद-चिह्नों को कैसे चिन्हूँ ? यह पूरा श्लथ है अंश!...! अपने वंश से अज्ञात! परिचित कहाँ है ? अनाथ है अपने अंश को कम से कम अपने वंश का ज्ञान करा दे ! अनुमान करा दे माँ ! हे! अंशवती ! हे! हंसमती ! सोमाँ !... ओ माँ ! ओ! चाँदनी ! चिदानन्दिनी ! यह चेता चातक ! चारु चरित से चलित विचलित हो गया है चिर से इसे कब फिर से!.....वह शरद् धवल पयोधर-सी पावन पूत हे! पयोधरा ! पयोधर पिला पूत को पुष्ट नहीं बनाओगी अभिभूत...! पूत .... कब बनाओगी ? हे! विमल यशोधरा हे! पयोधरा भाँति भाँति के/भावों से बार बार यह बालक, माँ ! बाधित न हो रहे अबाधित सदा भावित शीतल अंचल में छुपा ले इसे...! भोले बालक को हे! जगदम्बा ! बहु भावों से भावित-भाल तेरा कृपा-पालित कपाल तेरा सब इंगनों का अंकन ! मूल्यांकन...! कठिनतम कार्य है माँ...! यह निर्बल मन मेरा बंकिम है शंकित है अंतिम भंगिम् ।… भाल पर उन इंगनों को कैसा ......? कब ? कर पाता .... अंकित हे ! आदिम अन्तिम माता ! प्रमाता की माँ ! अतुल दर्शक दर्शक हर्षक तरल सजीव करुणा छलकती नयनों में अपलक एक झलक बिलखते-बिलखते नयनों को लखने दे परम करुणा रस को भाव से और चाव से चरचर, चरचर चखने दे ओ चेतना ! ध्रुव केतना ! मम ता .... ऽऽऽ मम ता ओ ममता की मूर्ति मत छोड़ना मम ममता।
  20. विनयोपजीवी उस पुट ने- कोटि-पुटी अभ्रक-सा तन-वितान को पार कर काँटे की सनातन चेतना को प्रभावित किया। उत्तुंग ऊँचाइयों तक उठनेवाला ऊर्ध्वमुखी भी ईंधन की विकलता के कारण उलटा उतरता हुआ अति उदासीन अनल-सम क्रोध-भाव का शमन हो रहा है। पल-प्रतिपल पाप-निधि का प्रतिनिधि बना प्रतिशोध-भाव का वमन हो रहा है। पल-प्रतिपल पुण्य-निधि का प्रतिनिधि बना हुआ बोध-भाव का आगमन हो रहा है, और अनुभूति का प्रतिनिधि बना हुआ शोध-भाव को नमन हो रहा है सहज-अनायास! यहाँ !! प्रकृत को ही और स्पष्ट प्रकाशित करती-सी यह लेखनी भी उद्यम-शीला होती है, कि बोध के सिंचन बिना शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, यह भी सत्य है, कि शब्दों के पौधों पर सुगन्ध मकरन्द-भरे Subsisted by humility, that covering,- Which seemed like a highly fluxed mica, Having passed through the expanse of body, Effected The eternal consciousness of the thorn. Even the supine sense of fury- Which soared to prominent heights Coming down, in a contrary manner, Is getting pacified Like a very chilly fire Due to the absence of fuel. At every moment Is being vomited the sense of revenge Which is the agent of the store of sins. At every moment is taking place the arrival of The sense of great awakening Which represents the treasure of virtuous acts, And Here, naturally and easily ! The salutation is being extended To the sense of purgation, Which represents deeper perception ! Manifesting more lucidly what is above-mentioned This pen too makes its enterprising effort, that Without being sprinkled with divine wisdom These plants of words Never get flourished, It's also true that On the plants of words Fragrant and pollinated-
  21. ओ री! ललित लीलावती चलित शीलावती भ्रमित चेतना ! जब से तेरा क्रीड़ास्थल बाहर से आ भीतर बना है तबसे पुरुष की पीड़ा और घनीभूत हुई है मानो मस्तिष्क में काट रहा हो पड़ा पड़ा एक कीड़ा इसलिए निवेदन है अब पुरुष को सानन्द अनन्तकाल तक सो जाने दो !
  22. सत्ता पलट तो गई है भोग का वियोग हुआ योग का संयोग हुआ किन्तु उपयोग का ! उपयोग कहाँ हुआ ? भोक्ता पुरुष ने उपयोग का उपभोग नहीं किया मात्र परिधि पर.. परिणाम हुआ है बस ! अभी केन्द्र में सूम्-साम है, शाम है ! हे ! घनशाम तुम-सा अनन्त इसे भी हो जाने दो...!
  23. अपरिचित होकर भी परिचित-सी लगती है अतल सागर सत्ता से निकली इधर... मेरी ओर एक सजीव लहर आ रही है हर क्षण, हर पल अश्रुत-पूर्व श्रुतिमधुर गीत गहर गहर कर गा रही है वासना की नहीं उपासना की रूपवती मूर्ति मेरे लिए पीयूष भरी आँखें लिए जहर नहीं महर ला रही है देखो ना ! मोह-मेघ की महाघटायें दुर्वार घूँघट पूरी शक्ति लगा चीरती चीरती चिदानन्दिनी शरद चाँदनी नजर आ रही है !
  24. चपला हरिणी दृष्टि अबला हठीली बाहर सरला तरला भीतर गरला गठीली ऊपर सौम्य छबीली ..... सुन्दर… कुटिल कुरूप कटीली अन्दर...! पर! आज पूर्ण परिवर्तन प्रतिलोम चाल चलती यह एक बहाना है चरण रज सर पर चढ़ाती मौन कह रही आज हुआ भला जीवन को अर्थ मिला जो कुछ था व्यर्थ, टला व्यष्टि से दृष्टि हटी समष्टि का पान करती गुण-गान करती करती सक्रिय चरण की पूजन क्रियाहीन को क्रिया मिली दृष्टि को मिली चरण-शरणा निरावरणा निराभरणा ।
  25. इस भूल के लिए शूल से क्षमा-याचना तो करे, माँ!” अब माटी का सम्बोधन होता है: “अरे सुनो! कुम्भकार का स्वभाव-शील तुम्हें कहाँ ज्ञात है? जो अपार अपरम्पार क्षमा-सागर के उस पार को पा चुका है क्षमा की मूर्ति क्षमा का अवतार है।” इतने में ही कोपाग्नि को पी, पचानेवाली अनुकम्पा पीयूषभरी वाणी निकली शिल्पी के मुख से, जिसमें धीर-गम्भीरता का पुट भी है- ‘‘खम्मामि, खमंतु मे- क्षमा करता हूँ सबको, क्षमा चाहता हूँ सबसे, सबसे सदा-सहज बस मैत्री रहे मेरी! वैर किससे क्यों और कब करूँ ? यहाँ कोई भी तो नहीं है। संसार-भर में मेरा वैरी!” For this error Tender his apology with the thorn, Omother !” Now, thus addresses the Soil : “Hark, listen ! Whence do you know The nature and morality of the Artisan ? An embodiment of forgiveness An incarnation of forbearance is he, Who has reached across the other side Of the unbounded, the infinite Sea of forgiveness.” Meanwhile, the utterances, Which were digestive of the fire of anger, And which were full of the nectar of compassion, Dropped out of the Artisan's lips, Wherein There was a flow of patience and earnestness too - “Khammāmi, Khamantu me - that is, I pardon, let me be pardoned I forgive all others, Hope to be forgiven by all, Friendliness should prevail naturally Among all of us for ever! Why, when and with whom should I Enter into animosity ? Here, in the world at large, There is none to be envisaged as my enemy!”
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