आलोक का अवलोकन
आँखें करतीं
अकुलातीं, विकलित होतीं
एक पर टिकती नहीं
उस की ऊर्जा बिकती है
पल-पल परिवर्तित हो
पर पर जा टिकती है
यही कारण है
हे! आलोक पुंज !
आलोक तुम से
नहीं चाहता यह
विशुद्धतम तम-तम में
आँखें पूरी खुलती हैं
एक पर टिकतीं अनायास ।
अपलक निश्चल होती है
अवलोकन पूरा होता है
मनन मन्थन अबाधित चलता है
अनुभूति में मति ढलती है
इसलिए
आलोक बाधक है
अलिगुण कालिख अन्धकार !
साधक है इस साधक को
अपना आलोक
इन आँखों पर मत छोडो...!
ओ! आलोक-धाम!
बिजली कौंधती है तब !
आँखें मुँदती हैं !