अज्ञात पुरुष
सागर-तट पर
निर्निमेष !
निहार रहा है
वस्तु-स्वरूप
रूप-लावण्य
ज्ञात करना चाह रहा है
और ..... वह ..... स्वयं
उधर से...।
ठहर ठहर कर
गहर गहर कर
अपार सागर
रहस्यमय गाथा
गाता .... गाता !
जा रहा है ...... जा रहा है
लहर लहर चुन
तट तक लाकर
लौट रहा है, लौट रहा है…
लहरों को मुड़कर कहाँ निहारता है ?
कब निहारा ?
लहर लहर है
नहीं नहर है
नहरों में लहर हैं
लहरों में नहर नहीं
लहर जहर हैं
कहाँ खबर है ?
किसे खबर है ?
उसी जहर से
अपना गागर
भरता जाता, भरता जाता
यह संसार।
प्रहर-प्रहर पर
मरता जाता, मरता जाता ... यह संसार !
दु:ख से पीड़ित
आह! भरता
मैं हूँ शाश्वत सत्ता
अविनश्वर जल का आकर।
पर
प्रायः अज्ञात।
मेरा ज्ञात होना ही
मोक्ष है, अक्षय
मोह का क्षय है
अब तो ज्ञात कर ले
कम से कम
अपने पर,
महर महर कर ले
हे अज्ञात पुरुष !
अपने पर
महर महर कर ले।