अपरिचित होकर भी
परिचित-सी लगती है
अतल सागर सत्ता से निकली
इधर...
मेरी ओर एक
सजीव लहर आ रही है
हर क्षण, हर पल
अश्रुत-पूर्व
श्रुतिमधुर गीत
गहर गहर कर गा रही है
वासना की नहीं
उपासना की रूपवती मूर्ति
मेरे लिए
पीयूष भरी
आँखें लिए
जहर नहीं
महर ला रही है
देखो ना !
मोह-मेघ की महाघटायें
दुर्वार घूँघट
पूरी शक्ति लगा
चीरती चीरती
चिदानन्दिनी
शरद चाँदनी
नजर आ रही है !