ओ री! ललित लीलावती
चलित शीलावती
भ्रमित चेतना !
जब से तेरा
क्रीड़ास्थल
बाहर से आ भीतर बना है
तबसे
पुरुष की पीड़ा
और घनीभूत हुई है
मानो मस्तिष्क में
काट रहा हो
पड़ा पड़ा एक कीड़ा
इसलिए निवेदन है
अब पुरुष को
सानन्द अनन्तकाल तक
सो जाने दो !
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव