मणिमय मौलिक
दिव्यालौकिक
मनहर हार
जब से तुम से
प्राप्त हुआ है
उसे बस!
अपहरण करना चाहती है
मुझे वरण करना चाहती है
अनन्त भविष्य में
मेरे चरण-शरणा
गहना चाहती है
स्वयं अकेली
जीवित रहने को
स्वीकृति है।
इच्छा है
पर! धृति नहीं है
अक्षमा !
विलम्ब हुआ
सेव्य की गवेषणा में
कारुणिक आँखों से
मन ही मन...
मानो ! मौन कहती
माँग रही है
पुनः पुनः क्षमा...!
मृदु-मुक्ति-रमा !
परन्तु यह सब
इसे कब स्वीकार है ?
यह स्वयं ही
श्रीकार है
इस गूढ़ गोपनता को
इसने सूँघा है
इस की नासिका
सोई नहीं अब !
उत्थानिका है
और
एक और कारण है
दासी दास बनना
इतनी परतन्त्रता नहीं
जितनी, कि
ईश स्वामी बनना
परतन्त्रता की अन्तिम सीमा है।
इसलिए
अक्षतवीर्य हूँ और रहूँ…
अविवाहित!
अबाधित बनने
विवाह करना
रमणी-रमण में रमना
मातृ-सेवा से वंचित रहना है ना !
यह एक महती
असह्य वेदना है
मेरे लिए...।
हे चितिजननी !
अंग-अंग को
अनंग-अंगार
अंगारित कर न ले
अंगातीत अनुभव क्षण में
संगातीत-भावित-मन में
अंकुरित विकार कर न ले
और
महदाकार धर न ले
इससे पूर्व
सरस-शान्त-सुधा
कृपावती ! कर कर कृपा
इसे पिला दे...।
हे! यतिगणनी !
फलस्वरूप
रति, रति-पति के प्रति
मति में रतिभाव
हो न सके प्रादुर्भाव !
बस !
इस मति की रति
विषय-विरति में
सतत निरत रहे
हे रतिहननी !
जिनमें परम शान्त रस
पर्याप्त मात्रा में
छलक रहा हो
जिनमें चिति गोपन-पन
ऊपर आने को
मचल रहा हो
ऐसे श्रुति-मधुर
अश्रुत-पूर्व
आतम गीत.....संगीत
सुना-सुना कर
संकट कंटक विहीन
अपने अंक में
इसे बुला ले !
सुचिर काल तक
इसे सुला ले !
हे! मन्मथ-मथनी !
मार्दव माता
मतिशमनी !
फलतः निश्चित
समग्र ऊर्जा
ऊर्ध्वमुखी हो
आतम पथ पर
यात्रित हो।
मूर्त का बहिष्कार
अन्तर्मुहूर्त में
त्रुटित गात्रित हो।
परिधि से हट कर
सिमिट-सिमिट कर
अमिट केन्द्र में,
एकत्रित हो।
आगामी अनन्तकाल तक
एकतंत्रित हो।
हे! चितिजननी ।