ओ माँ।
सार्वभौमा
भली कहाँ गई तू !
चली।
इसे विसार छोड़कर
निराधार
इधर यह
भटक रहा है
इधर उधर गली गली
तुझे ढूँढ़ता कहाँ है वह
गूढ़ता निगूढ़ता
अकेला बावला बन
जिधर जिधर
दृष्टिपात किया।
उधर उधर
शून्य! शून्य!! शून्य!!!
केवल शून्य !
क्या शून्य में लुप्त गुप्त हुई ?
किधर गई किधर देखें ?
अधर में मुझे मत लटका !
हे! अधर-पथ-गामिनी
मौन मुस्कान
कम से कम
दिखा दे
अधर पर
अमूर्त केन्द्र की ओर
अमूर्त इन्द्र को
गतिमान प्रगतिमान
होने की
विधि दिखा दे
या
मौन सांकेतिक
भाषा में वह
लिखा दे
हे अनन्त की जननी !
अनन्तिनी !
अनन्तकाल के लिए
अपने अविचल अंक में
| आश्रय दे
इसे बिठा ले
यह समय, अभय हो
पल्यंक-आसन लगा
उस अंक में
शीतल शशांक-सा
पर ! आशंक
आत्माभिभूत हो सके
इस में अनावरण का वातावरण
आविर्भूत हो सके
पूतपना
प्रादुर्भूत हो सके
हो सके।
इतनी कृपा कर देना।
कौन-सा पथ है तेरा
जिस पथ पर चिह्नित
पद-चिह्नों को
कैसे चिन्हूँ ?
यह पूरा श्लथ है
अंश!...!
अपने वंश से
अज्ञात! परिचित कहाँ है ?
अनाथ है
अपने अंश को
कम से कम
अपने वंश का
ज्ञान करा दे !
अनुमान करा दे माँ !
हे! अंशवती !
हे! हंसमती !
सोमाँ !...
ओ माँ !
ओ! चाँदनी !
चिदानन्दिनी !
यह चेता
चातक !
चारु चरित से
चलित विचलित
हो गया है
चिर से
इसे कब फिर से!.....वह
शरद् धवल
पयोधर-सी
पावन पूत
हे! पयोधरा !
पयोधर पिला
पूत को पुष्ट नहीं बनाओगी
अभिभूत...!
पूत .... कब बनाओगी ?
हे! विमल यशोधरा
हे! पयोधरा
भाँति भाँति के/भावों से
बार बार यह
बालक, माँ !
बाधित न हो
रहे अबाधित
सदा भावित
शीतल अंचल में
छुपा ले इसे...!
भोले बालक को
हे! जगदम्बा !
बहु भावों से
भावित-भाल तेरा
कृपा-पालित कपाल तेरा
सब इंगनों का
अंकन ! मूल्यांकन...!
कठिनतम कार्य है माँ...!
यह निर्बल मन मेरा
बंकिम है
शंकित है
अंतिम भंगिम् ।…
भाल पर
उन इंगनों को
कैसा ......? कब ?
कर पाता .... अंकित
हे ! आदिम अन्तिम माता !
प्रमाता की माँ !
अतुल दर्शक
दर्शक हर्षक
तरल सजीव
करुणा छलकती
नयनों में
अपलक
एक झलक
बिलखते-बिलखते
नयनों को
लखने दे
परम करुणा रस को
भाव से
और चाव से
चरचर, चरचर
चखने दे
ओ चेतना !
ध्रुव केतना !
मम ता .... ऽऽऽ मम ता
ओ ममता की मूर्ति
मत छोड़ना मम ममता।