हे! अमरता
हे! अमलता
समलता का जीवन जीता
असह्य सहता
विरह वेदना
युगल कर तल
मलता मलता
मरता मरता
बचा है क्षीणतम श्वास
इस घट में
ऐसा भाग्य किसने रचा है ?
जिसके सम्मुख मौन
वेद, पुराण, ऋचा हैं
तू कहाँ गई थी
अपना कलेजा
साथ ले जाती
अपना दिल ..... धड़कन!।
तो यह सब
क्यों......यों..
घटित होती
अनहोनी-सी
ओ! परम-सत्ता!
स्वाभिमान से घुली
गंभीर ध्वनि
ध्वनित हुई
सम्बोधन के रूप में
अरूप शून्य में से
कि
अरे! लाला
वाणी में जरा सा
संयम ला...........ला...।
बना बावला
कहीं ..... का...
मैं भ्रमणशीला नहीं हूँ
विभ्रमशीला नहीं हूँ
सदा सर्वथा
सहज सजीली
मेरी लीला
काला पीलापन
लाला नीलापन
महासत्ता में
सम्भव नहीं है
विलोम परिणमन
पर का अनुगमन
प्रभावित हो पर से
पर के प्रति नमन…
परिणमन...!
असम्भव!
त्रैकालिक
अपनी सीमा
इयत्ता का
उल्लंघन!
हाँ !
व्यक्तित्व की सत्ता में
यह सब कुछ
होना सम्भव है
तभी भटक रहा है
तू भव भव
पराभूत हो
किये बिना
अपना अनुभव
नाना विकारों में
नाना प्रकारों में
बार-बार हो उद्रभव
उचित ही है
कि
कोमल-कोमल
कोंपल
पल-पल
पवनाहत हो
क्यों ना दोलायित हो
अपना परिचय देते
मौन खोल देते
गांभीर्य त्याग
भोले बालक-सम
बोल-बोल लेते
फूले वे
डाल-डाल के
गोल-गोल हैं
गाल-गाल भी
चंचलता में
झूले वे
अपनी अपनी
सीमा परिधि
सहज चाल को
भूले वे
पर! पर क्या ?
तरु का स्कन्ध !...
निस्पन्द! स्तब्ध! होता है
कब हुआ ? वह स्पन्दित !
पुरुषार्थ के बल
केवल बल का
विस्फोटक हो जा
हे! भव्य !
भावी-भवातीत
शिव शंकर !
हे! शंभव !
अब तो कर ले
आत्मीयता का
अव्यय भव-वैभव का
अनुपम अनुभव!
हृदय में उठती हुई
तरंगमाला
समर्पित करती हुई
लघु सत्त्ता
ओ महाशक्ति!
अपनी शक्ति से
या युक्ति से
इसे प्रभावित कर दो
शासित कर दो
अपने शासन से
ऐसा सम्मोहित कर दो
कि यह
अर्पित हो सके
सेवक बन कर
पाद-प्रान्त में
सरोष स्वरों में
महासत्ता का उत्तर!
सर्वंसहा हूँ
सर्वं स्वाहा नहीं हूँ
लेना नहीं
देना ही जानती हूँ
जीवन मानती हूँ
महा सत्ता माँ
दूसरों पर सत्ता चलाना
हे वत्स !
हिंसक कार्य मानती है
आरूढ़ हो
सिंहासन पर
शासक बन
शासन चलाना
परतन्त्रता का पोषण है
स्वतन्त्रता का शोषण है
यही माँ का सदा सदा बस
उद्घोषण है
सत्पथ दर्शक
दिव्यालोक
रोशन है ! रोशन है ! !