अपक्व कुम्भ को पकाने हेतु कुम्भकार अवा को साफ-सुथरा करता है। नीम, इमली आदि की लकड़ियों के बीच कुम्भ समूह को व्यवस्थित करता है। बबूल की लकड़ी कुम्भकार को अपनी अन्तर्वेदना कह, कुम्भ को जलाने के लिए मानसिक अस्वीकारता जताती है। किन्तु शिल्पी के समझाने पर स्वीकारता प्रकट करती है।
शिल्पी णमोकार मन्त्रोच्चारण के साथ ही अग्नि जलाता है किन्तु वह झट से बुझ जाती, अनेक बार यही होने पर शिल्पी को ज्ञात हुआ लकड़ी से कि अग्नि भी जलाना नहीं चाहती। कुम्भकार को किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ देख कुम्भ स्वयं निवेदन करता है अग्नि से-कि मुझे नहीं मेरे दोषों को जलाना है। कुम्भ की बात सुन सुर सुराती सुलगती अग्न्।ि अवा के बाहर काला अंधकार छा जाता है, भीतर धूम ही धूम । वमन का कारण अन्तरङ्ग अरुचि, निर्धूम अग्नि का दर्शन, अग्नि में रस गुण, गंध गुण का अनुभव, अग्नि को जन्म दे अग्नि में लीन हुई लकड़ियाँ, अग्नि की अति पर कुम्भ की भावना-विश्व भर का तामस, समता में बदले अग्नि कहती है कि ध्यान की बात और ध्यान से बात करने में अन्तर है। कुम्भ अध्यात्म की अगाधता और दर्शन की अबाधता पाने निवेदन करता है सो अग्नि द्वारा इन दोनों की मीमांसा-अध्यात्म स्वाधीन नयन है तो दर्शन पराधीन उपनयन इत्यादि।