अग्नि की बात सुनकर कुम्भ के बल को और साहस मिला, उत्साह में नयी जागृति आई और वह कह उठा - इच्छित फल जब तक न मिले तब तक पुरुषार्थ करते रहना ही पुरुषार्थ की चरम सीमा है। इस सूक्ति को मैं सदा स्मरण में रखता हूँ, इसलिए मार्ग में आराम नहीं करता मैं, और न करूंगा। प्रभु से सिर्फ इतनी ही प्रार्थना है कि मुझमें अपूर्व शक्ति का उद्भव हो -
"भुक्ति की ही नहीं,
मुक्ति की भी
चाह नहीं है इस घट में
वाह-वाह की परवाह नहीं है
प्रशंसा के क्षण में।
दाह के प्रवाह में अवगाह करूं
परन्तु,
आह की तरंग भी
कभी नहीं उठे
इस घट में........संकट में।
इसके अंग-अंग में
रग-रग में
विश्व का तामस आ भर जाए
कोई चिन्ता नहीं,
किन्तु, विलोम-भाव से
यानी
ता......म.......स स...........म.......ता...!" ( पृ. 284)
विषय भोगों की ही नहीं किन्तु मुक्ति की भी चाह नहीं है इस मन में और न ही औरों के द्वारा की गई प्रशंसा की। बस इतनी इच्छा है कि अग्नि के बहाव में डुबकी लगाऊँ तो भी इन संकट के क्षणों में मुख से आह न निकले अर्थात् पीड़ा की अभिव्यक्ति न हो। इस तन के अंग-अंग में रोम-रोम में विश्व का अंधकार समा जाए इसकी कोई चिन्ता/परवाह नहीं है, किन्तु विपरीत भाव से यानी तामस .......समता रूप में परिवर्तित हो जाए।
हे भगवन् ! अब व्यक्तिगत प्रतिष्ठा, ख्याति की चाह से पूरी तरह उदासी आ चुकी है, कर्तव्य मात्र करने का भाव मन में रहता है। अतः आपके मुख की मुस्कान-मात्र मेरे लिए पर्याप्त नहीं है, अब आपके मुख से कुछ वचन, प्रवचन सुनने मिलें, बस और कुछ चाह नहीं है। संसार के सभी बंधन, सभी सीमाओं से परे होना चाहता हूँ, रूप, रस, गंध, स्पर्श से परे शुद्ध आत्मा की प्राप्ति करना चाहता हूँ। समस्त परिग्रह से रहित कषाय रूपी जंग से दूर शुद्ध-लोहे के समान बस ध्यान रूपी अग्नि में पचना अर्थात् लीन होना चाहता हूँ।