प्रात:कालीन प्रभु प्रार्थना को पूर्ण कर कुम्भकार ने बाहर आ प्रांगण में देखा चारों ओर प्रभातकालीन सुनहरी धूप फैलने जा रही है। प्रत्यूष काल में ही उसका मन उतावला हो गया, आज अवा को खोलकर देखना है। कुम्भ ने अग्नि परीक्षा दी और अग्नि ने कुम्भ की परीक्षा ली, शत-प्रतिशत सफलता का विश्वास है फिर भी विपरीत स्वप्न दिखने से मन को धीरज कहाँ?
अपनी ओर बढ़ते शिल्पी के कदमों को देख कुम्भ की ओर से अवा बोलता है कि-हे शिल्पी महोदय ! प्रायः स्वप्न निष्फल ही होते हैं उनका कुछ भी फल नहीं होता। इन पर अधिक विश्वास करना हानि-कारक है। ‘स्व' यानि अपना ‘प' यानि पालन संरक्षण ‘न' यानी नहीं अर्थ यह हुआ-
"जो निजी-भाव का रक्षण नहीं कर सकता
वह औरों को क्या सहयोग देगा?
अतीत से जुड़ा
मीत से मुड़ा
बहु उलझनों में उलझा मन ही
स्वप्न माना जाता है।" (पृ. 295)
जो अपनी ही सुरक्षा, अपने भावों का रक्षण नहीं कर सकता वह स्वप्न दूसरों की क्या रक्षा करेगा, क्या सहयोग देगा? भूतकालीन संकल्प -विकल्पों में डूबा, अपनी प्रिय वस्तु से बिछुड़ा, अनेक प्रकार की उलझनों में उलझा मन ही स्वप्न का रूप धारण करता है। स्वप्न दशा में जागृति छूटती है आत्म साक्षात्कार (सम्यग्दर्शन में कारण) भी नहीं हो पाता और सिद्धमन्त्र भी अकार्यकारी हो जाते है।
यूँ अवा की बात सुन शिल्पी अवा के निकट पहुँचता है, न कोई चीख, न कोई भीख, न कोई यातना (पीड़ा), ना कोई याचना (माँग), न प्यास से पीड़ित प्राण, न शोक, न रोग, न रोता हुआ मुख। वह तकलीफ भरा दृश्य कुछ भी तो नहीं, जो स्वप्न में इन आँखों ने देखा, कानों ने सुना और हाथों ने छुआ था। स्वप्न का फल पूर्णतः गलत निकला, स्वप्न का घातक फल टला।