उपरोक्त प्रसंग को देख अवा के भीतर बहने वाली हवा से ध्वनि निकलती है कि काल का प्रवाह, नदी प्रवाह की तरह सदा बहता रहता है और बहता-बहता कह रहा है कि -
"जीव या अजीव का यह जीवन
पल-पल इसी प्रवाह में
बह रहा
बहता जा रहा है,
यहाँ पर कोई भी
स्थिर-ध्रुव-चिर
न रहा, न रहेगा, न था
बहाव बहना ही ध्रुव
रह रहा है,
सत्ता का यही, बस
रहस रहा, जो
विहँस रहा है।" (पृ. 290)
जीव हो या पुद्गल सभी का जीवन प्रतिक्षण इसी काल के प्रवाह में बह रहा है, बहता ही जा रहा है, यहाँ कोई भी स्थिर, बहुत काल तक ठहरने वाला नहीं है, न पहले था और न ही आगे रहेगा। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, इन्द्र, अहमिन्द्र आदि सभी आयु पूर्ण कर मरण को प्राप्त होते ही हैं। बड़े-बड़े महल, भवन, वन-उपवन भोगोपभोग सामग्री सब कुछ तो नश्वर, बिजली की चमक के समान क्षणभंगुर है। यह परिवर्तन होता आ रहा है, होता रहेगा यही ध्रुव सत्य है। सत्ता का यही रहस्य है जो यहाँ प्रकट हो रहा है।
यह क्या? अचानक पीड़ा का काल, कुछ माँगने की आवाज, कहाँ से आ रही है, किसकी है, किस कारण से, क्या खोजने निकली है? पुरुष की है या स्त्री की । पुरुष की तो नहीं लगती क्योंकि अनुपात से पतली लग रही है कानों को। इसकी स्पष्टता प्रकट होती है - सो कुम्भ के मुख से निकली लग रही है - कि ओ धरती माँ, तू सदा अपनी सन्तान के प्रति दया धारण करती है, मुझ शिशु की दुःख भरी आवाज तुम्हारे कानों तक नहीं आ रही है क्या? मंजिल मिलना तो दूर मार्ग में जल भी नहीं मिल रहा है, फल-फूल की क्या अपेक्षा रखें। यहाँ तो छाया की भी गरीबी दिख रही है। हे माँ! मुझे मृत्यु के मुख में न ढकेलो, भविष्य में प्रकाश मिलेगा ऐसी आशा देकर जीवन में अन्धेरा न फैलाओ। अब यह उष्णता सही नहीं जा रही है, सहनशीलता की धीरे-धीरे कमी आती जा रही है। इस जीवन को जलाओ मत, अब तो ठंडा जल पिलाकर जीवन दान दो इसे माँ।
याचना सुनकर भी जब धरती माँ की ओर से कोई आश्वासन और आशीष के वचन नहीं मिले तो कुम्भ ने कुम्भकार को स्मरण में ला कहा - क्या रक्षा के सभी स्थान / आश्रय कहीं दूर चले गए हैं ? कुम्भ के कर्ता और पालक होकर भी आप इसे भूल गए। बिना जल ग्रहण किए अब मेरे प्राण किसी का भी सम्मान नहीं कर पाएंगे यानी शरीर से बाहर निकल जाएंगे, किसी का सहारा नहीं बनेंगे। उज्वल भविष्य की कोई इच्छा नहीं रही, ये प्राण अब अग्नि परीक्षा नहीं दे सकते, छोटा-सा नियम-संकल्प भी सुमेरु पर्वत जैसा बड़ा और कठिन लगने लगा है। मेरी श्रद्धा भी अस्त-व्यस्त-सी होती डगमगा रही है।
अपनी प्यास बुझाए बिना दूसरों की प्यास बुझाना, एक कल्पना-सा और जल्पना-सा अर्थात् मात्र वचनों की अभिव्यक्ति-सी लग रही है और कुम्भ की दशा लगभग रोने जैसी होने लगी कि-उदारहृदयी' कुम्भकार कुछ गंभीर हो, कुम्भ के हृदय की पीड़ा दूर करने हेतु, कुम्भ में धीरज धारण करने की क्षमता प्रकट हो, उसकी भूख-प्यास मिटाने हेतु कुछ भोजन-पानी लेकर अवा की ओर पहुँचता है कि कुम्भकार जो गहरी नींद में सोया हुआ था उसकी नींद टूटती है और उसकी स्वप्न दशा छूट जाती है।
जब चाहे, मन चाहे स्वप्न कहाँ दिखते हैं तभी स्वप्न की दशा पर प्रथम तो शिल्पी को हँसी आई, फिर उसकी आँखें गंभीरता से भर गईं। जिन आँखों में पुराना बीता हुआ जीवन ही नहीं किन्तु भावी जीवन भी स्वप्न-सा लगने लगा और कुम्भ का भविष्य क्या होगा अच्छा या बुरा? यह शंका कुम्भकार के मन को भारी कर गई।