कुम्भ को अग्नि में पकाना है, पकाने हेतु प्राँगण में अवा’ है। कुम्भकार ने नीचे से लेकर ऊपर तक, अच्छी तरह से अवा को देखा और शीघ्रता से बिना देर किए, निर्धारित समय-सीमा के अन्दर कुम्भ को अवा के भीतर पहुँचाने हेतु, उसे झाड़-पोंछ कर साफ-सुथरा, जीवजन्तु रहित बनाता है वह। अवा के निचले भाग में बबूल की लकड़ियाँ एक के ऊपर एक रखी गईं, जिन्हें लाल-पीली नीम की पतली-पतली लकड़ियों का सहारा दिया गया। बीच-बीच में देवदारु जल्दी से आग पकड़ने वाली चन्दन-सी लकड़ियाँ भी बिछाई गईं। इमली की चिकनी लकड़ियाँ जो धीरे-धीरे जलने वाली हैं, अवा के किनारे चारों ओर खड़ी की गई हैं और अवा के बीचों-बीच कुम्भ समूह को अच्छी तरह से एक के ऊपर एक, आजू-बाजू में जमाया गया है सावधानी पूर्वक।
अवा में सजाई गई सभी लकड़ियाँ अन्तर मन से दुखी हैं और उन सबकी तरफ से बबूल की लकड़ी, रुन्धे हुए गले से अपनी अन्तिम वेदना कुम्भकार को दिखाती हुई, शोकाकुल मुद्रा सहित कुछ कहने की हिम्मत करती है -
"जन्म से ही हमारी प्रकृति कड़ी है
हम लकड़ी जो रहीं
लगभग धरती को जा छू रही हैं
हमारी पाप की पालड़ी भारी हो पड़ी है।" (पृ. 271)
धरती की कोख से उत्पन्न होते से ही हमारा शरीर, सख्त कठोर रहा है, अभी भी हमारा जीवन पाप से भरता जा रहा है। हम ऊपर उठने के बजाय नीचे धरती, जमीन को ही छूती जा रही हैं। पुण्य और इस पतित-पापी जीवन के बीच में क्षेत्र की ही नहीं अपितु काल की भी दूरी बढ़ती जा रही है अर्थात् दूर-दूर तक आत्मकल्याण होने, धर्ममय जीवन बनने की बात समझ नहीं आ रही है।
स्वभाव से ही हम कड़ी हैं और कभी-कभी अपराधियों को पीटने के लिए हमें और कड़ी बनाया जाता है। खेद की बात तो यह है कि प्रायः अपराधी बच जाते हैं और निरपराधी ही पिटते हैं जिन्हें पीटते-पीटते हम टूट भी जाती हैं। ऐसी व्यवस्था को, सत्ता को हम सही प्रजातन्त्र-प्रजा की हितकारी कैसे कहें? यह तो साफ-साफ धन की शक्ति का दुरुपयोग अथवा अपनी मनमानी करना ही है।
और किये गये अनर्थ का फल कालान्तर' में हमें भी मिलेगा ही, किन्तु अब जो हमें साधन बनाकर कुम्भ को जलाने की योजना बनी है, उससे इस जीवन में हत्या की एक और कड़ी जुड़ी जा रही है। पाप रूप विष से भरे हुए इस जीवन में कण्ठ तक पीड़ा भर आई है। विष हो या अमृत कुछ भी अब भीतर नहीं जा सकता कारण की भीतर स्थान ही नहीं है और विष से भरे जीवन में कुछ समय तक अमृत का प्रभाव पड़ना भी संभव नहीं है और यह भी सत्य है कि -
"आशातीत विलम्ब के कारण
अन्याय न्याय-सा नहीं
न्याय अन्याय-सा लगता ही है।" (पृ. 272)
निर्दोषता के निर्णय हेतु अदालत की शरण ली जाए और ठीक समय पर निर्णय हो जावे, उचित बात समझ आ जावे तो ठीक है। अन्यथा उम्मीद से अधिक देरी होने पर सही निर्णय-न्याय भी अन्याय-सा लगने ही लगता है और इस कलिकाल' में हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हो रहा है।