मैं कहाँ कह रहा हूँ कि मुझे जलाओ किन्तु मेरे भीतर जो दोषों का समूह है उसे जलाओ, क्योंकि दोष जले बिना मैं निर्दोष नहीं हो सकता हूँ, मेरे दोषों को जलाना ही मुझे जीवनदान देना है। स्व-पर दोषों को जलाना ही परम धर्म माना है सन्तों ने, क्योंकि दोष अजीव/पौद्गलिक हैं, कर्मों के निमित्त से उत्पन्न होने वाले हैं, वस्तु का स्वभाव नहीं, कथंचित् बाहर से ही आते हैं। गुण जीव का स्वभाव है, अतः गुणों का स्वागत होना चाहिए। तुम्हारे इस जलाने रूप कार्य से तुम्हें परमार्थ मिलेगा तो मुझे अर्थ यानि जीवन । तुम्हारी कृपा से मुझमें जल धारण करने की शक्ति प्रकट होगी, इसलिए तुम्हारी स्वीकृति और सहयोग अत्यन्त आवश्यक है।
कुम्भ की बात अग्नि को समझ में आई और इधर शिल्पी का मुख खिल गया, निराशा आशा, विश्वास में परिवर्तित हुई और अग्नि भी प्रमाद छोड़ निष्प्रमादी बनी अपने कर्तव्य में जुटी। देखते ही देखते सुरसुराती सुलगती हुई अग्नि विकराल रूप धारण कर सारी लकड़ियों को उदरस्थ करती हुई अवा को घेर लेती है। अवा अषाढ़ माह में उमड़ते, डराते हुए-से काले-काले घने बादलों की भाँति धुंए को उगलने लगा। अवा के चारों ओर लगभग 30-40 गज का क्षेत्र प्रकाश से रहित हो गया, ऐसा लग रहा है मानो नरक की सप्तम महातम पृथ्वी का अंधकार ही ऊपर आ गया हो।
धूम्र से घिरा अवा शिल्पी को नहीं दिखा तो वह सोचता है, जब बाहर ऐसी भयंकर दशा है तो भीतर क्या हो सकती है? अनुमान ही लगाया जा सकता है। तेज गति से धुआँ अवा में घूमने लगा, भीतर-बाहर बस धुआँ ही धुआँ दिख रहा है। कुम्भकार का माथा भी घूमने लगा है, फिर कुम्भ की बात क्या कहें?
कुम्भ के मुँह में, पेट में, कान-नाक के छेदों में धूम ही धूम घुट रहा है, आँखों से आँसू नहीं किन्तु असु अर्थात् प्राण ही बाहर निकलने को हैं। लेकिन बाहर से भीतर जाने वाला धुआँ प्राणों को बाहर नहीं निकलने दे रहा है, धुएँ की तेज गन्ध से नासिका की नाड़ी भी मंद पड़ गई। फिर भी कुम्भ ने पूरी शक्ति लगाकर धूम्र को पेट में भरा मानो कुम्भ ने कुम्भक प्राणायाम ही किया हो, जो कि योग का मूल और ध्यान की सिद्धि में श्रेष्ठ साधन माना जाता है।