धूम्र से मूर्छित-सी हुई कुम्भ की नासा ने भी घुटन न होने से रसना का ही समर्थन किया और अग्नि की शुद्ध गंध को सूंघने हेतु उतावली करती है वह। धूम्र के कारण कुम्भ की आँखें बंद हुईं थी, सो वे भी खुल गईं, जैसे अंधकार के हटते ही सूर्योदय होने पर कमल खिल उठते हैं। आँखें खुलते ही कुम्भ ने सब ओर देखा निधूम अग्नि को, दूसरा दृश्य कहीं नहीं दिखा बस चारों ओर अग्नि ही अग्नि ।
अनेक प्रकार की भिन्न-भिन्न लकड़ियाँ अब लकड़ियाँ नहीं रहीं अपितु अग्नि को पी लिया या इस तरह कहें कि अग्नि को जन्म देकर अग्नि में ही विलीन हो गईं वे।
"प्रति वस्तु जिन भावों को जन्म देती है
उन्हीं भावों से मिटती भी वह,
वहीं समाहित होती है।
यह भावों का मिलन-मिटन
सहज स्वाश्रित है
और
अनादि-अनिधन........!" (पृ. 282)
बीज पेड़ को जन्म देकर, मिट्टी घट रूप परिवर्तित होकर, बूंद सरिता सागर बन स्वयं मिट जाती है अथवा उसी भाव रूप परिणत हो जाती है। नये रूप को पाना, पुराने रूप को छोड़ना यह प्रक्रिया सहज ही निज परिणामों पर आधारित है। ऐसा अनादिकाल (जिसका कोई प्रारम्भ न हो ऐसा काल) से होता आ रहा है और आगे भी अनंतकाल ( जिसका कोई अन्त न हो ऐसा काल ) तक होता रहेगा।
अग्नि को चखने, छूने, सँघने और देखने से प्राप्त अपनी उन्नति की अनुभूति, मन की प्रसन्नता व्यक्त करने हेतु उद्यमशील कुम्भ को देख संकोच करती हुई अग्नि कहती है कि-अभी मेरी गति में अधिकता नहीं आई है और जब तक मैं अपनी चरम सीमा पर नहीं पहुँचती हूँ तब तक तुम्हारी परीक्षा पूर्ण नहीं हो सकेगी। मेरा जलाना शीतल ठंडे पेय की याद दिलाता है। मेरा जलाना कटु काजल का स्वाद दिलाता है अर्थात् मेरा सम्पर्क पाते ही कंठ सूखने लगता है मुख का स्वाद कड़वा हो जाता है और ठंडे पानी की याद आती है। किन्तु नियम है
"प्रथम चरण में गम-श्रम
... निर्मम होता है,
मेरा जलाना जन-जन को जल
...बाद पिलाता है
एतदर्थ ........ क्षमा धरना......क्षमा करना
धर्म है साधक का
धर्म में रमा करना।" (पृ. 283)
प्राथमिक दशा में किया हुआ पुरुषार्थ दुखी करता है, कठोर-कष्टदायी लगता है किन्तु मेरे द्वारा जलाये जाने के बाद ही तुम्हारा जीवन सबको शीतल जल पिलाने में कारण बनेगा। इसलिए मुझमें अति आवे इससे पहले ही मैं तुमसे क्षमा माँगती हूँ, तुम क्षमा धारण करना और मुझे क्षमा करना। क्योंकि साधक का परम धर्म है क्षमा धारण करना और क्षमा रूपी धर्म में लीन रहना।