Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 9. मीमांसा : दर्शन और अध्यात्म की

       (0 reviews)

    ध्यान की बात सुनकर कुम्भ सोचता है - बड़े-बड़े विद्वानों, दार्शनिकों, तत्त्व ज्ञानियों से भी ऐसी अनुभूतिपरक पंक्तियाँ प्रायः सुनने को नहीं मिलीं, जो आज अग्नि से सुनी। दर्शन की गहराई और अध्यात्म की गंभीरता समझने हेतु वह अग्नि से निवेदन करता है क्या दर्शन और अध्यात्म, सिक्के की तरह एक ही जीवन के दो पहलू हैं? क्या इनमें पूज्य और पूजक भाव है? यदि है तो कौन पुजता है और कौन पूजता है? कार्य-कारण भाव है तो कौन कार्य, कौन कारण है? इनमें बोलता कौन है, मौन कौन रहता है? ध्यान का आनंद किससे आता है उसका अनुभव कौन करता है? मुक्ति और संतुष्टि किससे मिलती है? इन दोनों की मीमांसा (विचार पूर्वक तत्त्व, निर्णय) सुनने मिले इस युग को बस।

     

    कुम्भ की प्रार्थना पर अग्नि देशना देना प्रारम्भ करती है-सो सुनिएगा- दर्शन और अध्यात्म न ही एक सिक्के के दो पहलू के समान हैं, न ही उनमें पूज्य-पूजक भाव है और न ही कार्य-कारण भाव, दोनों पृथक्-पृथक् अपनी सत्ता लिए हैं। दर्शन का जन्म मस्तिष्क से होता है जबकि अध्यात्म का जन्म आत्म कल्याण की भावना रखने वाले हृदय से जैसे-लहर के बिना सरोवर रह सकता है, रहता है उसी प्रकार दर्शन के बिना भी अध्यात्म रह सकता है किन्तु सरोवर के बिना लहर नहीं होती उसी प्रकार बिना अध्यात्म ज्ञान के दर्शन भी संभव नहीं हैं। अध्यात्म स्वतंत्र नेत्र के समान है तो दर्शन पराधीन उपनयन (चश्में) के समान है।

     

    दर्शन में शुद्ध तत्त्व की बात नहीं किन्तु सत्य और असत्य के आसपास ही दर्शन घूमता रहता है जबकि अध्यात्म सदा सत्य, चैतन्य रूप प्रकाशित रहता है। निर्विकल्प स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है तो अनेक संकल्प-विकल्पों में लीन दर्शन होता है। आत्म तत्त्व को छोड़ बाहरी पर पदार्थों की ओर अभिमुख, बहुश्रुत- ज्ञानवान ही दर्शन का सेवन कर सकता है, करता है। जबकि अंतरात्मा में लीन, बाहरी सम्बन्ध से जिसकी दृष्टि हट गयी है ऐसे चैतन्य के प्रकाश, सिद्धत्व की अनुभूति अध्यात्म में होती है।

     

    "दर्शन का आयुध शब्द है-विचार,

    अध्यात्म निरायुध होता है

    सर्वथा स्तब्ध-निर्विचार!

    एक ज्ञान है, ज्ञेय भी

    एक ध्यान है, ध्येय भी।"( पृ. 289)

    दर्शन का शस्त्र विचार, सोचना-समझना है तो अध्यात्म शस्त्र रहित, विचार शून्य, निश्चल होता है। दर्शन ज्ञान है तो ज्ञेय (जानने योग्य) भी। अध्यात्म ध्यान है तो ध्याने योग्य भी। दर्शन उस तैरने वाले व्यक्ति के समान है जो सदा बाहर की ओर ही देखता है। अध्यात्म उस डुबकी लेने वाले व्यक्ति के समान है जिसका बाहरी सम्बन्ध छूट जाता है और वह सरोवर के भीतरी भाग का ही अनुभव करता है।

     

    अग्नि के मुख से अध्यात्म और दर्शन की व्याख्या सुन कुम्भ कह पड़ा- अहा! हा!! वाह ! वाह !! कितनी गहरी व्याख्या है यह साधुवाद' अग्नि को। फिर क्या अग्नि साधुवाद को स्वीकार कर और तीव्रता से धधकने लगी। बाहर भले ही प्रात:कालीन शीतल-मधुर हवा बह रही है पर उसका अवा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। उसकी उष्णता बढ़ती ही जा रही है दिन हो या रात, प्रताप हो या प्रभात, भीतर कुछ भी अंतर नहीं रहा, अध्यात्म में लीन योगी की तरह। रुक- रुक कर दिशा बदलते काल का, मौसम का परिवर्तन रुक ही गया। अवा के भीतर सदा एक जैसा ही मौसम (वातावरण) बना हुआ है अखण्डकाल की तरह।



    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...