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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. 1. उच्च कुलों में जनम ले, नदी निम्नगा होय । शान्ति पतित को भी मिले, भाव बड़ों का होय ||1|| शब्दार्थ - निम्नगा - नीचे बहने वाली पतित - गिरे हुए अर्थ - जिस प्रकार ऊँचे पर्वतों से जन्म लेने वाली नदी नीचे की ओर आकर प्राणियों को तृप्त करती है उसी तरह महापुरुष भी पतितों के लिए कल्याण की भावना रखकर उन्हें शन्ति प्रदान करते हैं ||1|| 2. एक साथ सब कर्म का, उदय कभी ना होय। बूंद बूंद कर बरसते, घन वरना सब खोय ||2|| | शब्दार्थ - घन - बादल बरसते - वर्षा करते वरना - अन्यथा अर्थ - जिस प्रकार बादल बूंद-बूंद बरसकर जल वर्षा करते हैं, एक साथ नहीं, अन्यथा सब कुछ प्रलय रूप में नष्ट हो जायेगा उसी प्रकार सभी कर्म एक साथ उदय में नहीं आते हैं ।।2।। 3. आत्मामृत तज विषय में रमता क्यों यह लोक। खून चूसती दुग्ध तज, गौ थन में क्यों जोंक ||3|| शब्दार्थ - आत्मामृत - आत्मा रूपी अमृत विषय - इन्द्रिय रूपी विषयभोग अर्थ - आचार्य कहते हैं कि हे संसारी प्राणी ! तू गोथन से प्राप्त होने वाले अमृतमयी दूध को छोड़कर मून चूसने वाली निकृष्ट जोंक की भाँति आत्मारूपी अमृत को त्यागकर विषय भोगों में क्यों रमता है?।।3।। 4. जठरानल अनुसार हो, भोजन का परिणाम। भावों के अनुसार ही, कर्म बन्ध फल काम। ||4|| शब्दार्थ - जठरानल - पेट की अग्नि (जठराग्नि) परिणाम - फल, पाचन काम - कार्य अर्थ - जिस प्रकार किए गए भोजन का पाचन जठराग्नि के अनुसार होता है। उसी प्रकार कर्म बन्घ का फल तथा कार्य जीव के भावों के अनुसार ही होता है ||4|| 5. शील नशीले द्रव्य के, सेवन से नश जाय। संत-शास्त्र संगति करे, और शील कस जाय ||5|| शब्दार्थ - शील - चरित्र संत - साधु नश - नष्ट संगति - साथ कस - पुष्ट अर्थ - मादक और उत्तेजक वस्तुओं के सेवन से शील नष्ट हो जाता है किन्तु साधु एवं शास्त्रों की संगति करने से शील और अधिक पुष्ट हो जाता है। ||5|| 6. एक तरफ से मित्रता, सही नहीं वह मित्र। अनल पवन का मित्र ना, पवन अनल का मित्।||6|| शब्दार्थ - अनल - अग्नि पवन - वायु अर्थ - एक पक्षीय मित्रता वास्तविक एवं सच्ची मित्रता नहीं है जैसे वायु और अग्नि की मित्रता। वायु तो अग्नि का मित्र है। क्योंकि वह उसको प्रज्ज्वलित करने में सहायक है किन्तु अग्नि वायु के प्रवाह में किसी तरह भी सहायक नहीं होती है। ||6|| 7. वश में हों सब इन्द्रियाँ, मन पर लगे लगाम। । वेग बढ़े निर्वेग का, दूर नहीं फिर धाम ||7|| शब्दार्थ - लगाम - नियन्त्रण वेग - संसार, शरीर और भोग निर्वेग - संसार, शरीर और भोगों से रहित धाम - मोक्ष स्थान अर्थ - जब मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेता है और मन पर नियंत्रण कर लेता है तो संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो जाने से उसके लिए मोक्षधाम दूर नहीं रहता ||7|| 8. विगत अनागत आज का, हो सकता श्रद्धान। शुद्धात्म का ध्यान तो, घर में कभी न मान||8|| शब्दार्थ - विगत - भूतकाल अनागत - भविष्यकाल अर्थ - तत्व का श्रद्धान तो भूत, भविष्य एवं वर्तमान तीनों कालों में घर पर रहते हुए हो सकता है, किन्तु शुद्धात्मा का ध्यान (अनुभूति) गृहस्थ को कभी भी संभव नहीं है ||8|| 9. सन्तों के आगमन से, सुख का रहे न पार। सन्तों का जब गमन हो, लगता जगत असार ||9|| शब्दार्थ - असार - सारहीनी आगमन - आना पार - छोर, सिरा अर्थ - जब सन्तों का किसी स्थान पर आगमन होता है तोभक्तजनों के सुख का पारावार नहीं रहता है किन्तु जब वे उस स्थान से प्रस्थान करते हैं तो उन्हें सम्पूर्ण जगत असार प्रतीत होने लगता है ||9|| 10. नीर नीर है क्षीर ना, क्षीर क्षीर ना नीर।। चीर चीर है जीव ना, जीव जीव ना चीर ||10|| शब्दार्थ नीर पानी क्षीर - दूध चीर - वस्त्र जीव - आत्मा अर्थ- जल जल है, दूध नहीं तथा दूध दूध है, जल नहीं है। उसी प्रकार वस्त्र वस्त्र है, आत्मा नहीं। आत्मा आत्मा है, वस्त्र नहीं है। अतः हे मानव! काया की ओर दृष्टि न डालकरआत्मा की ओर निहार। ||10 || 11. बान्धव रिपु को सम गिनो, संतों की यह बात। फूल चुभन क्या ज्ञात है, शूल चुभन तो ज्ञात ||11|| शब्दार्थ- बान्धव - मित्र/सगे सम्बन्धी रिपु - शत्रु शूल - काँटा अर्थ- लोक में काँटों की चुभन तो सभी व्यक्ति अनुभव करते हैं। अर्थात् शत्रु की शत्रुता तो सभी को स्पष्ट ज्ञात होती है, किन्तु फूलों की चुभन अर्थात् मित्र का भी शत्रुवत् आचरण किसको ज्ञात होता है? संतों को यह बात विदित होती है। जिसके परिणामस्वरूप वे शत्रु एवं मित्र को समान दृष्टि सेदेखते हैं अर्थात् समता का आचरण करते हैं। ||11|| 12. नाम बने परिणाम तो, प्रमाण बनता मान। उपसर्गों से क्यों डरो, पाश्र्व बने भगवान ||12|| | शब्दार्थ - उपसर्ग - वह अव्यय जो शब्द के पहले लगकर शब्द का अर्थ बदल दे, अपशकुन प्रमाण - पूरा एवं सच्चा ज्ञान परिणाम - फल अर्थ- जिस प्रकार ‘परि' उपसर्ग लगाने से 'नाम' शब्द ‘परिणाम बन जाता है तथा 'प्र' उपसर्ग लगाने से 'मान' प्रमाण अर्थात् ज्ञान बन जाता है। पार्श्वनाथ भगवान उपसर्गों को सहन कर भगवान बन गए । हे मानव! फिर तू उपसर्गों से क्यों डरता है? उपसर्ग तो शब्दों को भी पूज्यार्थक बना देते हैं |12|| 13. आप अधर मैं भी अधर, आप स्ववश हो देव। मुझे अधर में लो उठा, परवश हूँ दुर्दैव ||13|| शब्दार्थ- अधर - मॅझधार परवश - दूसरों के वश अर्थात् कर्म के अधीन दुर्दैव - दुर्भाग्य स्ववश - अपने अधीन अर्थ - हे भगवन्! आप तो केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर अधर में विराजमान हैं और मैं भी अधर में लटका हूँ अर्थात् मॅझधार में फंसा हूँ, किन्तु मैं कर्म के अधीन हूँ। हे प्रभो! मुझे भी अधर में उठा लो अर्थात् अपने समान बना लो।।13।। 14. व्यास बिना वह केन्द्र ना, केन्द्र बिना ना व्यास। परिधि तथा उस केन्द्र का, नाता जोड़े व्यास ||14|| शब्दार्थ- व्यास - केन्द्र को स्पर्श करती हुई परिधि के बिन्दुओं को मिलाने वाली रेखा केन्द्र - वृत्त का मध्य बिन्दु परिधि - 1. वृत्त की रेखा, 2. गोलाकार वस्तु के चारोंओर खिंची हुई रेखा अर्थ- व्यासके बिना केन्द्रका अस्तित्व नहीं और केन्द्र के बिना व्यास नहीं होता। वस्तुतः व्यास परिधि एवं केन्द्र में सम्बन्ध स्थापित करता है।।14।। 15. केन्द्र रहा सो द्रव्य है, और रहा गुण व्यास।। परिधि रही पर्याय है, तीनों में व्यत्यास।15।। शब्दार्थ- पर्याय - द्रव्य की अवस्था विशेष का नाम है। द्रव्य - जो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है। गुण - जो एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से पृथक करता है। व्यत्यास- परस्पर विभिन्न होते हुए भी अभिन्न है। अर्थ- केन्द्र से तात्पर्य द्रव्य है और गुण व्यास का प्रतीक है। वस्तु के परिणमन स्वरूप पर्याय उसकी परिधि है। ये तीनों परस्पर विभिन्न होते हुए भी अभिन्न है।।15।। 16. व्यास केन्द्र या परिधि को, बना यथोचित केन्द्र। बिना हठाग्रह निरख तू निज में यथा जिनेन्द्र ।।16।। शब्दार्थ- यथोचित - जैसा उचित लगे । हठाग्रह - जिद, हठपूर्वक प्रार्थना | निरख - देख । निज - अपना । अर्थ - व्यास (गुण), केन्द्र (द्रव्य) अथवा परिधि (पर्याय) में से यथोचित किसी एक को अपने ध्यान का केन्द्रबिन्दु बनाकर तू बिना किसी हठाग्रह के अनेकान्त दृष्टि से उसे देख औरजिनेन्द्र भगवान की भाँति निज में लीन हो ।।16।। 17. विषम पित्त का फल रहा, मुख का कडुवा स्वाद। विषम वित्त से चित्त में, बढ़ता है उन्माद ||17 || शब्दार्थ - पित्त - शरीर में रहने वाली एक धातु विषम - असंतुलित चित्त - मन । उन्माद - उन्मत्त वित्त - धन अर्थ - जब शरीर में पित्त का प्रकोप बढ़ता है तो मुख का स्वाद कड़वा हो जाता है। इसी प्रकार अन्याय द्वारा अर्जित धन से मन उन्मत्त हो जाता है।।17।। 18. कानों से तो हो सुना, आँखों देखा हाल। फिर भी मुख से ना कहे, सज्जन का यह ढाल ||18|| शब्दार्थ - ढाल - सुरक्षा शस्त्र अर्थ - सज्जनों का यह सुरक्षा शस्त्र है कि स्वयं अपने कानों से सुना गया एवं निज आँखों से देखा गया किसी का भी दोष वे अपने मुख से किसी के सामने व्यक्त नहीं करतेहैं। ।।18।। 19. बाल गले में पहुँचते, स्वर का होता भंग। बाल गेल में पहुँचते, पथ दूषित हो संघ।।19।। शब्दार्थ- भंग - टूटना, कुछ समय के लिए रुकना औरउचित ढंग से न चल सकना गेल - मार्ग | पथ - रास्ता, मार्ग संघ - समुदाय अर्थ - जिस प्रकार गले में बाल पहुँचने से स्वर भंग हो जाता है। उसी प्रकार यदि अज्ञानी लोग मार्ग में आ जाते हैं तो संघ और पंथ दूषित हो सकते हैं। ।।19।। 20. चिन्ता ना परलोक की, लौकिकता से दूर। लोकहितैषी बस बनँ, सदालोक से पूर।।20 || शब्दार्थ- 1. हितैषी - कल्याण करने की इच्छा रखने वाला 2. सदालोक - सम्यकज्ञान का प्रकाश 3. पूर - पूर्ण अर्थ - हे भगवन्! मुझे परलोक की चिन्ता नहीं हैं। मैं लौकिकता से दूर हूँ। मैं सदैव जन-जन का कल्याण करने वाला बनूं और सम्यकज्ञान के प्रकाश से परिपूर्ण रहूँ। ।।20।।
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    ज्ञानसागर जी की ज्ञानसाधना
  3. ब्रह्मचारी विद्याधर को जिन पावन करकमलों ने मुनि - आचार्य विद्यासागर बनाया ऐसे दादागुरु महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के 46वें समाधि दिवस पर संयम स्वर्ण महोत्सव समिति द्वारा निर्धारित कार्यक्रम की रूपरेखा "महाकवि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की जीवन झलकियां "-आर्यिका पूर्णमति जी ससंघ https://vidyasagar.guru/files/file/104-1 श्री ज्ञान विद्या प्रश्नोतरी https://vidyasagar.guru/files/file/102-1 आचार्य ज्ञानसागर जी की तस्वीरें https://vidyasagar.guru/gallery/album/203-photo-album/ आचार्य ज्ञानसागर जी की पूजन https://vidyasagar.guru/files/file/100-1 आचार्य ज्ञानसागर की आरती https://vidyasagar.guru/files/file/101-1 आचार्य ज्ञानसागर जी के भजन https://vidyasagar.guru/musicbox/play/297-audio/ हायकू चित्र प्रतियोगिता https://vidyasagar.guru/files/file/103-1   पुस्तकें 1. ज्ञानसागर जी की ज्ञानसाधना https://vidyasagar.guru/files/file/99-ज्ञानसागर-जी-की-ज्ञानसाधना/ 2. ज्ञान का सागर https://vidyasagar.guru/books/gyan-ka-sagar/ 3 प्रणामांजलि https://vidyasagar.guru/pathyakram/pranamanjali/ पूज्य साहित्य मनीषी आचार्य प्रवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज का जीवन परिचय https://vidyasagar.guru/acharya-gyansagarji/
  4. 1. पूज्यपाद गुरुपाद में, प्रणाम हो सौभाग्य। पाप ताप संताप घटे, और बढ़े वैराग्य ||1|| शब्दार्थ - पूज्यपाद - पूज्य है चरण गुरुपाद - गुरुदेव के चरण ताप - मानसिक कष्ट संताप - क्लेश वैराग्य - राग के बिना या राग रहित अर्थ - पूज्य हैं चरण जिनके ऐसे गुरुदेव के चरणों में मेरा नमन हो। यह मेरा परम सौभाग्य है। इनको नमन करने से पाप, ताप और संताप की हानि होती है तथा वैराग्य की वृद्धि होती है ।।1।। 2. मत डर मत डर मरण से, मरण मोक्ष सोपान। मत डर मत चरण से, चरण मोक्ष सुख पान ||2|| शब्दार्थ - मोक्ष - मुक्ति, जन्म-मरण से छुटकारा सोपान - सीढ़ी चरण - आचरण अर्थ - हे भव्य जीव! तू मरण से डरना मत क्योंकि उत्तम मरण ही तो मोक्ष की सीढ़ी है और तू उत्तम आचरण करने से भी मत डर क्योंकि उत्तम आचरण करने वाला मोक्षसुखामृत (मोक्ष सुख रूपी अमृत) का पान करता है ।।2।। 3. यथा दुग्ध में घृत तथा, रहता तिला में तेल। तन में शिव है ज्ञात हो, अनादि का यह मेल।।3।। शब्दार्थ - दुग्ध - दूध घृत - घी तन - शरीर शिव - आत्मा अनादि - जिसका कोई प्रारम्भ न हो मेल - मिलन अर्थ - जैसे दूध में घी तथा तिल में तेल रहता है उसी प्रकार शरीर में आत्मा निवास करती है। यह भी जान लें कि उनका यह मेल अनादिकाल से है ।।3।। 4. ऐसा आता भाव है, मन में बारम्बार। पर दुःख को यदि ना, मिटा सकता जीवन भार ||4|| शब्दार्थ- पर - दूसरा/पराया बारम्बार - बार-बार | अर्थ - मेरे मन में बार-बार बस एक ही भाव आता है कि यदि मैं दूसरों की पीड़ा दूर नहीं कर सका तो मेरा यह जीवन भार के अतिरिक्त कुछ नहीं है ।।4।। 5. पानी भरते देव हैं, वैभव होता दास। मृग-मृगेन्द्र मिल बैठते, देख दया का वास ।।5।। शब्दार्थ- पानी भरते - नतमस्तक हो जाते वैभव - ऐश्वर्य मृग - हिरण मृगेन्द्र - सिंह/शेर अर्थ - जहाँ दया निवास करती है उसके सामने देव भी नतमस्तक हो जाते हैं। सम्पूर्ण वैभव उसका दास बन जाता है। तथा उस स्थान पर शेर और हिरण भी मित्र जैसे आचरण करने लगते हैं ।।5।। 6. तत्व दृष्टि तज बुध नहीं, जाते जड़ की ओर। सौरभ तज मल पर दिखा, भ्रमर भ्रमित कब और? ।।6।। शब्दार्थ- तज - छोड़कर बुध - बुद्धिमान लोग सौरभ - सुगन्ध भ्रमर - भौंरा भ्रमित - आकर्षित अर्थ - बुद्धिमान लोग तत्व दृष्टि को छोड़कर कभी भी जड़ की ओर दृष्टि नहीं करते। पुष्प की सुगन्ध को छोड़कर भौंरा क्या कभी मल की ओर आकर्षित होता है? ।।6।। 7. सब में वह ना योग्यता, मिले न सबको मोक्ष । बीज सीझते सब कहाँ, जैसे टर्रा मोठ।।7।। शब्दार्थ - सीझते - पकते टर्रा मोठ - उबालने पर भी नहीं सीझने वाली मूंग अर्थ - मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता सबमें नहीं होती इसलिये प्रत्येक जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे सभी बीजों में सीझने की योग्यता नहीं होती, टर्रा मोठ लाख प्रयास के बाद भी नहीं सीझ पाती।।7।। 8. किस किस को रवि देखता, पूछे जग के लोग। जब जब देखें देखता, रवि तो मेरी ओर।।8।। शब्दार्थ - रवि - सूर्य जग - संसार अर्थ - इस जगत के लोग प्रश्न करते हैं कि सूर्य किस-किस को देखता है क्योंकि मैं जब भी सूर्य की ओर देखता हूँ तो ऐसा लगता है कि सूर्य मेरी ही तरफ देख रहा है ।।8।। 9. कंचन पावन आज पर, कल खानों में वास। सुनो अपावन चिर रहा, हम सबका इतिहास ।।9।। शब्दार्थ - कंचन - स्वर्ण पावन - पवित्र/शुद्ध अपावन - अपवित्र/अशुद्ध चिर - लम्बा वास - निवास/रहना अर्थ - जिस तरह स्वर्ण आज शुद्ध है लेकिन अपने बीते हुए दिनों में खान में पड़ा हुआ था, उसी तरह हम सब का इतिहास भी लम्बे समय से अपवित्र रहा है। हम भी स्वर्ण की तरह पवित्र हो सकते हैं।।9।। 10. क्या था क्या हूँ क्या बनूं, रे मन अब तो सोच। वरना मरना वरण कर, बार-बार अफसोस 10|| शब्दार्थ - वरण - चुनना अफसोस - पछतावा अर्थ - हे मन! तू अब तो यह विचार कर कि तू क्या था, क्या है और क्या बनेगा? वरना बार-बार मरण का वरण करके अफसोस ही करता रहेगा।।10।। 11. सब कुछ लखते पर नहीं, प्रभु में हास–विलास। दर्पण रोया कब हँसा, कैसा यह संन्यास ||11 || शब्दार्थ - लखते - देखते हास-विलास - हर्षित या प्रमुदित संन्यास - परित्याग करना अर्थ - वीतराग दृष्टि की महानता देखो! प्रभु तीनों लोकों के पदार्थो को देखते हुए भी हर्षित या प्रमुदित नहीं होते। दर्पण के समक्ष कितनी भी सुन्दर या असुन्दर वस्तु आ जाए वह न तो कभी रोता है न ही हँसता है।।11।। 12. आस्था का बस विषय है, शिव पथ सदा अमूर्त। वायुयान पथ कब दिखा, शेष सभी पथ मूर्त ||12|| शब्दार्थ - शिव–पथ - मोक्ष मार्ग अमूर्त - जो आँखों से देखने में न आए वायुयान - हवाई जहाज मूर्त - जो आँखों से देखने में आए अर्थ - मोक्षमार्ग अमूर्त है, वह दिखाई नहीं देता लेकिन आस्था का विषय बनता है। जिस तरह वायुयान को छोड़कर शेष सारे मार्ग दिखाई देते हैं फिर भी वायुमार्ग पर सभी विश्वास करते हैं।12।। 13. उपादान की योग्यता, निमित्त की भी छाप । स्फटिक मणि में लालिमा, गुलाब बिन ना आप ||13|| शब्दार्थ - उपादान - किसी कार्य के होने में जो स्वयं उस कार्य रूप परिणमन करे निमित्त - जो कार्य के होने में सहयोगी हो। स्फटिक मणि -एक तरह का सफेद बहुमूल्य तथा पारदर्शी पत्थर लालिमा - लाली। अर्थ - उपादान कारण में यद्यपि कार्य रूप परिणत होने की योग्यता है। लेकिन निमित्त कारण के बिना भी कार्य नहीं होता। जिस तरह स्फटिक मणि में लालिमा गुलाब की उपस्थिति के बिना संभव नहीं है।।13।। 14.खून ज्ञान, नाखून से, खून रहित नाखून। चेतन का संधान तन, तन चेतन से न्यून||14|| शब्दार्थ- 1. चेतन - आत्मा 2. संधान - खोज का साधन 3. न्यून - रहित अर्थ - शरीर में खून की मात्रा का ज्ञान नाखूनों को देखकर हो जाता है जबकि नाखून स्वयं रक्तविहीन होते हैं। शरीर आत्मा की खोज का साधन होते हुए भी स्वयं चेतना रहित होता है।।14।। 15. आत्मबोध घर में तनक, रागादिक से पूर। कम प्रकाश अति धूम्र ले, जलता अरे कपूर ।।15।। शब्दार्थ - आत्मबोध - आत्मा का ज्ञान तनक - कम पूर- ज्यादा रागादिक - राग-द्वेष धूम्र - धुआँ अर्थ - घर में रहकर आत्मा का ज्ञान कम होता है और राग-द्वेष ज्यादा होते हैं। जैसे कपूर जलकर प्रकाश तो कम देता है। लेकिन धुआँ अधिक प्रदान करता है।।15।। 16. भटकी अटकी कब नदी, लौटी कब अध बीच। रे मन! तू क्यों भटकता, अटका क्यों अधकीच? ||16।। शब्दार्थ - अधकीच - पापरूपी कीचड़ अटकी - रुकती अध बीच - बीच रास्ता अर्थ - नदी जब अपने उद्गम स्थान से निकलकर चलना प्रारम्भ कर देती है तो वह रास्ते में कहीं भी नहीं रुकती, न ही अपने पथ से भटकती है और न ही थककर या हार मानकर बीच रास्ते से लौटती है। फिर हे मन! तू क्यों भटकने लगता है, कहीं भी अटक जाता है और पापरूपी कीचड़ मेंहँस जाता है।।16।। 17. गौ-माता के दुग्ध सम, भारत का साहित्य । शेष देश के क्या कहें, कहने में लालित्य ।।17।। शब्दार्थ - गो - गाय सम - समान लालित्य - सुन्दर, रमणीय अर्थ - भारत देश का साहित्य गौ माता के दूध के समान उज्ज्वल है, जबकि अन्य देशों के साहित्य के बारे में क्या कहा जाए, वह तो सिर्फ सुनने मात्र में ही सुन्दर लगता है।।17।। 18. अनल सलिल हो विष सुधा, व्याल माल बन जाए। दया मूर्ति के दरस से, क्या का क्या बन जाए ||18 || शब्दार्थ - 1. अनल - अग्नि 2. सलिल - पानी 3. सुधा - अमृत 4. व्यालव्याल - सर्प 5. माल - हार 6. दरस - दर्शन | अर्थ - अग्नि पानी हो जाती है, विष अमृत बन जाता है। सर्प गले | का हार बन जाता है। दया मूर्ति जिनेन्द्र देव के दर्शन से कुछ भी। सम्भव हो सकता है।।18 ।। 19. जलेबियाँ ज्यों चासनी, में सनती आमूल ।। दया धर्म में तुम सनो, नहीं पाप में भूल ||19।। शब्दार्थ - आमूल - पूरी तरह सनती - डूबती/डूबी हुई सनो- डूब जाओ अर्थ - जिस तरह जलेबियाँ पूर्ण रूप से चासनी में सनी हुई होती हैं, उसी तरह तुम भी दया धर्म में पूर्ण रूप से डूब जाओ। पाप में भूलकर भी लिप्त मत होओ।।9।। 20. पूर्ण पुण्य का बन्ध हो, पाप मूल मिट जात। दलदल पल में सब धुले, भारी हो बरसात||20|| शब्दार्थ - पूर्ण पुण्य - अतिशय पुण्य दलदल - कीचड़ पल - क्षण अर्थ - हे भव्य जीव! तू अतिशय पुण्य का बन्ध कर, जिससे पाप समूल नष्ट हो जाए। जिस तरह तेज बरसात से समस्त कीचड़ साफ हो जाता है। ।।20।।
  5. आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने पपौराजी में प्रवचन में कहा कि वर्षों पूर्व यहां हमारा चातुर्मास हुआ था। उसका स्मरण ताजा हो रहा है। आपकी बहुत सालों से भावना थी आशीर्वाद की। आज की प्रात:काल की पूर्णिमा के मंगल अवसर पर इंदौर में भी आर्यिका के सान्निध्य में शिलान्यास होने जा रहा है। वे लोग यहां के शिलान्यास का स्मरण कर रहे हैं। कार्य वहां का भी सानंद संपन्न हो जाए, आशीर्वाद उनका मिल रहा है। महाराजश्री ने कहा कि गुरुजी ने संघ को गुरुकुल बनाने का कहा था। यहां से धर्म-ध्यान मिलता है। हमें गुरुजी का जो आशीर्वाद मिला है, वरदान मिला है, गुरुजी की जहां पर कृपा होती है, वहां पर मांगलिक कार्य होता है। भावों के साथ यहां की जनता तपस्यारत थी। भावों के साथ तन-मन-धन के साथ अपने भावों की वर्षा की है। आज पूर्णिमा है, वह भी रविवार को आ गई है। तिथियां अतिथियों को बुला लेती हैं। महाराजश्री ने कहा कि गुरुजी ने सल्लेखना के समय हमसे कहा था तो हमने पूछा था कि हमें आगे क्या करना है? उन्होंने कहा था जो होता है, जिसका पुण्य जैसा होता है, उसकी भावना बलवती होती रहती है। यहां का कार्य संपन्न है। आज हर मांगलिक कार्य आप लोगों की भावना व उत्साह को देखकर कार्य करने को कटिबद्ध हो गए हैं। वैसे काम छोटा लगता है लेकिन काम की गहराई की नाप भी निकाली जाती है, भावों की गहराई भी देखी जाती है। कल 5-6 महाराजजी आ गए हैं, उनका भी समागम हो गया है। भावों में कभी दरिद्रता नहीं रखी जाना चाहिए। महाराजश्री ने कहा कि बुंदेलखंड बाहर के प्रदेश वालों को प्रेरित करता रहता है। यहां के लोगों के समूह ने उदारता के साथ जो धनराशि दी है, वह गौरव का विषय है तथा जो कुछ अधूरा है, वह पूर्ण होने जा रहा है। जैन जगत जागरूक व समर्पित है। करोड़ों रुपए बड़े बाबा के पास आ गए और आते जा रहे हैं। जनता अभी थकी नहीं है। सात्विक भोजन हो रहा है। बच्चों को आगे के जीवन में और अच्छे संस्कार बढ़ाते जाएं। सहयोग बहुत दूर से भी मिल रहा है। देव भी उनके चरणों में सहयोग वहां देते रहते हैं। उनके चरणों में रहते हैं। जहां दया, धर्म, संस्कार व अहिंसा धर्म की विजय होती है, वे सहयोग में रहते हैं। यहां पर आसपास छोटे-छोटे गांवों में 4-5 हजार समाज के घर हैं। यहां के लोगों ने बीड़ा उठाया है। उत्साह के साथ आए हैं और आएंगे। अभी मंगलाचरण हुआ है। महाराजश्री ने कहा कि यहां पर प्रतिभास्थली की पूर्व पीठिका की कार्यस्थली बनी है। सेवा की गतिविधियां ब्रह्मचारिणी संभालेंगी। अध्ययन के साथ संचालन करेंगी। एकाध महीने का समय बचा है। निवृत्त होकर मंगलाचरण बढ़ाएंगी। इंदौर में शिलान्यास संपन्न होकर तैयार हो रहा है। वे यहां पर भी आई हैं। 110 छात्राओं के आवेदन आए हैं। 54 आवेदनों का चयन हो गया है। यह आंकड़ा 9 का है तथा अखंड है। महाराजश्री ने आगे कहा कि यह संख्या उत्साह का कार्य है। रात-दिन एक करके व अपनी भावनाएं उड़ेल करके कार्य अवश्य तैयार करेंगे। यह सब कुछ गुरुदेव की कृपा से हो रहा है। हम तो बीच में आकर लाभ ले रहे हैं। मूल स्रोत तो गुरुजी ही हैं। हमें फल की इच्छा नहीं है लेकिन उत्साह गुरुजी से मिलता रहता है। आपकी उत्साह, भावना व प्रवृत्ति बढ़ती चली जाए।
  6. पूज्यश्री के विचार समझते हुए श्रावकों ने उनसे मंत्रणा की। फलत: वहाँ चौबीस तीर्थंकरों के लिये चौबीस वेदियाँ और चौबीस प्रतिमाएँ कराई निर्मित गईं। अचानक ६ जनवरी ९९ को मुझे सांगानेर से एक पत्र मिलता हैं, उसमें बिल्टी के साथ सूचना थी कि ‘सुधा का सागर' की सौ प्रतियाँ मेरे लिये भेजी गई हैं। मैं पुत्रों को बुलाता हूँ, श्री आजाद, श्री भारत भूषण और श्री चंद्रशेखर आते हैं। उनसे कहता हूँ कि पत्र में लिखित गैरेज (ट्रान्सपोर्ट) जिसके रास्ते में पड़ती हो, वह पुस्तकों का पैकेट लेता आवे। चंद्रशेखर पत्र ले लेते हैं, उसके रास्ते में वह गैरेज है। शाम को वे पैकेट सहित लौटते हैं। भारत भूषण पैकेट खोलते हैं। मैं पुस्तकें देखने लगता हूँ, पुष्पाजी उन्हें एक अलमारी में जमाती हैं। अब हमें खुशी हैं, हमारे पास हमारी पुस्तक है।दूसरे दिन फिर पत्र पढ़ता हूँ, इसमें मदनगंज निवासी श्री निहाल चंद पहाड़िया की चर्चा है जो करीब ५१ वर्ष के हैं। वे स्व. पन्नालाल पहाड़िया और श्रीमती ज्ञानदेवी के सुपुत्र हैं। हाल ही में करीब दस लाख की राशि से श्री के.डी.जैन स्कूल मदनगंज के प्रांगण में पू. आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का स्टेच्यू स्थापित करा रहे हैं, प्रेरणा मिली पू. सुधासागरजी से। श्री निहालचंदजी सन् ९५ में मुनिवर के निकट आ चुके थे। चौका, आहारदान, चिकित्सा सेवा, वैयावृत्ति के कार्यों ने उन्हें मुनिभक्त घोषित कर दिया। संयोग यह कि निहालजी की माता, श्रीमती ज्ञानदेवीजी पू. ज्ञानसागरजी को आहार देने का सौभाग्य पाती थीं। अब निहालजी वह क्षण पू. सुधासागरजी से पा रहे हैं। निहालजी ने सागानेर में भगवान १००८ श्री आदिनाथ स्वामी की प्रतिमावाली वेदी पर सोने की पेन्टिंग का कार्य कराया है। उनके अगले पत्र के साथ एक हिन्दुभाई के त्याग का प्रसंग सामने आया, जिसे पू. क्षु. गम्भीरसागरजी की प्रेरणा ही कही जावेगी, जिसमें श्री जेठा लोबचन्दानी लिखते हैं- मैं पहली बार महाराज सुधासागरजी, गम्भीरसागरजी और धैर्यसागरजी के दर्शनार्थ नसियाजी (अजमेर) गया। वहाँ महाराजजी के प्रवचन सुने तो बहुत प्रभावित हुआ, अत: मैं हफ्ते में कई बार उनके दर्शन करने जाने लगा। साधुत्रय के चरणसान्निध्य से मुझे अलौकिक आनन्द मिलता था। उनके शब्द मुझे झकझोर देते थे, अतः उनके चरणों के समीप उपस्थित होकर, स्वप्रेरणा से मैंने जीवन भर के लिये मांस, मदिरा, बीड़ी, सिगरेट, पान, तम्बाकू, गुटका और चाय का त्याग कर दिया। मुझे महाराज का आशीष मिला। मैं प्रसन्न हूँ, चैन से रहता हूँ। और पूर्व से अधिक स्वस्थ हूँ। दूसरा प्रसंग था, श्री ग्यारसीलाल लुहाड़िया (जैन) का । ५० वर्षीय ग्यारसीजी, मदनगंज-किशनगढ़ के निवासी हैं, वे स्व.श्री भंवरलालजी लुहाड़िया के पुत्र हैं। वे बतलाते हैं कि पू. ज्ञानसागरजी ने मदनगंज किशनगढ़ में दो चातुर्मास किये थे। उस समय इस नगर में बिजली नहीं थी, अत: अध्ययन कार्य लालटेन की रोशनी में किया करते थे। गुरुवर के साथ उस समय तीन क्षुल्लक जी थे, जिनमें से दो के नाम याद हैं - क्षुल्लक श्री सन्मतिसागरजी और क्षुल्लक श्री सुखसागरजी। वे अपने साथ तीर्थंकरों की मूर्तियाँ लेकर नहीं चलते थे। जब भी उनका विहार होता था तो श्रावक गण उन्हें छोड़ने साथ-साथ चलते थे, मगर ज्ञानसागरजी एक मील चलने के बाद ही रुकते और नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ कर, श्रावकों को लौट जाने की आज्ञा दे देते थे। वे कहते थे कि साधुओं को तो भ्रमण - तीर्थाटन करना ही होता है, परन्तु श्रावक तो घर, व्यापार, कृषि से जुड़े हैं, अत: उन्हें वहाँ के लिये भी समय देना जरूरी है। तीसरा प्रसंग है, श्री सुशीलकुमार बड़जात्या नसीराबाद का। ४५ वर्षीय बड़जात्या स्व. श्री सूरजकरणजी के पुत्र हैं। उन्होंने लिखा है। कि पू. आचार्यश्री ज्ञानसागरजी जब अंतिम दिनों में नसीराबाद में थे, तब वे ससंघ १८ माह वहाँ रुके थे। उनके संघ में तब आचार्य श्री विद्यासागरजी यहाँ मुनि के रूप में आये थे और आचार्य के रूप में लौटे थे। अन्य साधुओं में- मुनि विवेकसागरजी, मुनि सुपार्श्वसागरजी, ऐलक सन्मति सागरजी, क्षुल्लक सम्भवसागरजी, क्षुल्लक सुखसागरजी, क्षुल्लक आदिसागरजी एवं ब्र. प्यारेलालजी । श्री बड़जात्या लिखते हैं कि मुनि स्वरूपानंदजी भी संघस्थ थे, पर बाद में वे पुनः गृहस्थावस्था में आ गये थे। मुनि विवेकसागरजी आचार्य विद्यासागर के संघ से पृथक् हो | गये थे, उन्होंने तीन आर्यिका दीक्षाएँ कराई थीं, जिनमें प्रथम आर्यिका पू. विशालमतीजी, द्वितीय पृ. विज्ञानमती जी एवं तृतीय पू. विद्युत मतीजी थी। मुनि सुपार्श्वसागर दक्षिण के थे। पत्र-संस्मरणों का लम्बा सिलसिला चला साल भर तक। इस ग्रन्थ को पूर्ण करते समय उनके दिनांक १४-३-९९ के पत्र को मैंने अंतिम संस्मरण माना है, जो इसतरह है- वे लिखते हैं कि मदनगंज | किशनगढ़ में ८७ वर्षीय श्रावक श्री मन्नालाल बेद (ऊटंडावाले) रहते | हैं, जो प्रारंभ से ही पू. ज्ञानसागरजी और पू. विद्यासागरजी से जुड़े रहे हैं, उन्होंने बतलाया है कि ज्ञानसागरजी संस्कृत में लावणी और गजल लिखनेवाले, उस दौर के एक मात्र महाकवि थे देश में। वे भेद-विज्ञान की व्याख्या में पारंगत थे। एक विशेष बात मदनजी के पत्र में है, जो सम्भवत: सही हो, कि जब पू. विद्यासागरजी ब्रह्मचारी के रूप में, विद्याधर नाम से यहाँ पहुँचे थे, तब मन्ना वेद ने भी ज्ञानसागरजी से विद्याधर की सिफारिश की थी कि उन्हें पढ़ाने की कृपा करें । श्री कजोड़ीमलजी ने तो की ही थी।-“हरि अनंत, हरि कथा अनंता' की तरह यह कथा भी बढ़ती ही जा रही है, अत: प्रयास कर इसे यहाँ समाप्त करता हूँ। लिखने में और अभिव्यक्त करने में अनेक त्रुटियाँ मैंने की होंगी, जिन्हें हृदय में स्थान देकर मुस्काना होगा। संतों की तीन पीढ़ियों के तीन आदर्श यतियों की तीन जीवन गाथाएँ लिख कर मुझे साहित्य संसार के पुरोधाओं के समक्ष इस कार्य पर गर्व है। गर्व और गौरव के चलते, अपनी सरलता को मैं जीवन्त बनाये रहूँ और मेरा मन “मुनि-रमण-भूमि' बना रहे। ऐसा ध्यान करता हूँ। आप पूछेगे- मैंने जीवन गाथाओं का लिखना ही क्यों पसन्द किया? उत्तर मेरी तरह ही सरल है- बाजार में अनेक वस्तुएँ होती हैं। खरीदने या लेने के लिए, पर ग्राहक उनमें से छाँट-छाँट कर अच्छी अच्छी ही उठाता है। मेरा यह कथन कवि सुन्दरदास के दोहे से स्पष्ट कर लीजिए सुन्दर सौदा कीजिए, भली वस्तु कुछ खाटि। नाना विधि का टाँगरा, उस बनिया की हाटि ॥ बहुत से लोग ऐसी जीवन गाथाओं में पांडित्य-तत्त्व न देखकर, इन्हें महत्त्व देने से कतराएँगे, उनके लिये मैं महाकवि दादू की दो पंक्तियाँ यहाँ दे रहा हूँ । दादू निबरे नाम बिन, झूठा कथे गियान । बैठे सिर खाली करें, पंडित-वेद-पुरान ।। सो वे ध्यान रखें कि पांडित्य से ऊपर “साहित्य-तत्त्व' सदा रहा है, रहेगा। अब आप पूछेगे- सन्तों पर ही क्यों लिखते हैं, सामान्य श्रावकों, नागरिकों पर भी तो लिख सकते हैं? आप ठीक पूछ रहे हैं, मैंने बचपन में पढ़ा था कि सन्तगण आम्रवृक्ष की तरह होते हैं जो चोट खाने पर भी फल देते हैं। तुलसी संत सुअंब-तरु, फूल-फलहि परहेत। इतते ये पाहन हनत, उतते वे फल देत ।। सच, उक्त पंक्तियों पर मुझे आज भी विश्वास है, जिस दिन सन्त पत्थर के बदले पत्थर से प्रहार करना शुरु कर देंगे, मैं उन पर लिखना बन्द कर दूंगा। महावीर जयंती २९ मार्च, १९९९ २९३ सरल कुटी, गढ़ाफाटक जबलपुर (म.प्र.) ४८२००२ दूरभाष- ०७६१ - ३१२१७२
  7. 2000 लोग सभी राजनेतिक पार्टी के नेता आचार्य श्री विद्यासागर पदयात्रा आज क्षेत्रपाल जैन मंदिर से पपौरा जी के लिए हुई रवाना। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के संबोधन के बाद जिलाधिकारी श्री मानवेन्द्र सिंह ने झंडी दिखा किया रवाना। आज ललितपुर से पपौरा जी की पद यात्रा प्रारंभ हुयी जिसमे सर्व समाज ने बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी ली। प्रमुख गणमान्य लोगों मे श्री गुड्-डू राजा बुन्देला, पं राम स्वरुप देवलिया, मु.जलील जल्लू चच्चा, अजीज कुरेशी, तिलक यादव, हरदयाल सिंह लोधी, ज्योति सिंह लोधी, कल्पनीत सिंह, दुर्गा प्रसाद कुशवाहा, आदि हजारों जैन एवं जैनेत्तर लोगों के साथ उत्साह पूर्वक प्रारंभ हुयी। 50 bas 150 kar ललितपुर से पपौरा जी पदयात्रियों की संख्या 2000+
  8. सीकर में पू. ज्ञानसागर के प्रथम शिष्य (श्रावक) श्री धर्मचंद मिले थे, वे अपने घर ले गये, परिवार के लोगों से परिचय हुआ। शाम का भोजन वहीं सम्पन्न हुआ। वे जितने विद्वान हैं, उतने ही विनम्र। उनकी पूजा माता विदामी देवी जैन के दर्शन करना चाहते थे हम, क्योंकि वे पू. ज्ञानसागरजी के कृपा-क्षेत्र की महान गृहिणी रही हैं, उन्होंने अनेकों बार, उन्हें आहार देने का पुण्य सँजोया था। उन्हीं महिला रत्न के कारण ज्ञानसागरजी ने धर्मचंद को जैनधर्म की गूढ़ शिक्षा प्रदान की थी। हमारा अनुरोध सुन वे गम्भीर हो गये, बोले- अभी करीब दो ढाई माह पूर्व (११ जुलाई ९८) को उनका निधन हो गया। हमें आत्मा में धक्का-सा लगा। विषय बदल दिया हमने। तब तक उन्होंने स्वत: बतलाया कि उनकी पत्नी श्रीमती विनोद देवी भी नहीं रहीं, माँ से ८ माह पूर्व (२१ दिसम्बर ९७ को) उनका निधन हो गया था। मुझे लगा मेरी इस जीवन कथा के दो पात्र बिछुड़ गये हैं। गतवर्ष १९९८ में, महावीर जयंती के बाद ही पू. आर्यिका श्री विद्युतमती के दर्शन, नसीराबाद यात्रा के समय किये थे, वे २८ अगस्त ९८ को स्वर्गलोक वासी हो गई हैं। नसीराबाद की भद्र श्राविका ५२ वर्षीय श्रीमती शांति देवी का संस्मरण- नसीराबाद अंग्रेजों के समय से ही सैनिक छावनी रहा है, अत: वहाँ नगर स्तर पर समय और स्थान की पाबन्दी बनी रहती थी। जब पू. ज्ञानसागरजी का निधन हुआ था, तब वहाँ के सदर क्षेत्र से डेढ़ कि.मी. तक मृतकों को जलाने (अग्नि देने) पर रोक थी। तब कतिपय प्रमुख जन वहाँ के ब्रिगेडियर से मिले और स्थान की स्वीकृति प्राप्त की, तब जाकर पू. ज्ञानसागरजी की देह का अग्नि संस्कार सम्पन्न हुआ था। करीब १० बजे दिन में आचार्यश्री की समाधि हुई, दोपहर १२ से २.३० तब वैकुण्ठी ने विचरण किया और शाम ४ बजे अंतिम संस्कार किया जा सका। पू. ज्ञानसागरजी का अंतिम आहार नसीराबाद की धरती पर, श्री भंवरलाल छाबड़ा के यहाँ सम्पन्न हुआ था। पानी लिया था आहार में। श्रावकों के साथ-साथ स्वत: उनके शिष्य आचार्य विद्यासागर जी उन्हें अपने हाथों से आहार दे रहे थे। जैसा कि कथा में वर्णित है कि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की वैकुण्ठी में सभी वर्ग और जाति के धार्मिक जन शामिल थे। मदनजी लिखते हैं कि श्री गनीभाई लुहार पूरे समय तक वैकुण्ठी में रहे और अपने हाथों से सभी कार्यों में सहयोग करते रहे। चिता बनाने में और मृत देह को जलाने में अंतिम क्षण तक वहाँ ही बने रहे और कार्य करते रहे। नसीराबाद में जिस स्थान पर पू. ज्ञानसागरजी का स्मारक बन रहा है, वह सैकड़ों साल से बाघसुरी के नाम से जाना जाता रहा है जो एक व्यक्ति की निजी जमीन का भू-भाग है, पर उन सज्जन महोदय ने वह वाघसुरी नि:शुल्क भेंट कर दी थी। वे सज्जन महोदय धन्य हैं। यादों की यात्रा आँखों में चलती रही और ट्रेन की यात्रा पातों पर। ट्रेन ने हमें जबलपुर पहुँचा दिया। हम एक सफल यात्रा पर मुग्ध थे। याद आ रहे थे पू. सुधासागरजी, पू. गम्भीरसागरजी और पू. धैर्यसागरजी। दो माह ही बीते होंगे कि पं. भूरामलजी के वंशज श्री ताराचंदजी देवधर (बिहार) से सरलकुटी पधारे। दो दिसंबर ९८ की बात है। रात्रि विश्राम किया। उनके साथ उनकी धर्मपत्नी श्रीमती गुणमाला जैन और मामा-मामी (श्रीमान बाबूलालजी दाँतारामगढ़ (राज.) व श्रीमती ललिता देवीजी) भी थे। मेरे पूछने पर उन्होंने बतलाया कि माता घृतवरी के जीते जी, पं. भूरामल जी ने इसलिये दीक्षा नहीं ली थी, क्योंकि पूज्य माँ ने अपने प्यारे लाल' को कसम जो दी थी। उसका उन्होंने निर्वाह भी किया और माता के निधनोपरान्त ही मुनिपद की दीक्षा की ओर मन किया था। ताराचंदजी की मामीजी एवं पत्नी ने संयुक्त रूप से जानकारी दी थी कि जब देवीलाल जन्मे थे और माता जापे (प्रसव) में थी, तभी उनके पिता श्री चतुर्भुजजी का निधन हो गया था। श्री देवीलालजी, जो कि भूरामलजी के सबसे छोटे भ्राता थे, ताराचंद उन्हीं के सुपुत्र हैं। वे तीन भाई हैं - ताराचंद, संतोषकुमार और अशोककुमार। मुझे लगा कि जब आचार्य श्री के वंशज ही ‘सरल कुटी’ पहुँच गये हैं तो क्यों न उनसे पूज्य श्री के पाँचों भाइयों की वंशपरम्परा के अनुवर्ती सदस्यों की जानकारी ले लें। वे बोले- “पू. सुधासागरजी कहते हैं कि आचार्य श्री की वंश-परम्परा में आप लोग नहीं, हम लोग हैं। आप लोग पं. भूरामल के वंश के हैं, हम लोग आचार्य ज्ञानसागर के वंशज हैं।' मुझे पू. सुधासागरजी का तर्क न्यायसंगत लगा, अतः मैंने प्रश्न को परिवर्तित कर रखा- ठीक है, पं. भूरामल और उनके भाइयों की जानकारी दीजिए। हम सब तर्क के प्रभाव में आकर हँसते हैं। फिर वार्ता प्रारंभ होती है- श्री भूरामलजी पाँच भाई हैं, उनके वंशज इस तरह हैं - प्रथम श्री छगनलालजी - उनकी एक पुत्री है जिनका विवाह धूलियान में श्री ज्ञानचंदजी से सम्पन्न हुआ था। - द्वितीय श्री पं. भूरामलजी हैं, जो उम, भर बाल ब्र. रहे, पर उनके वंशजों में आचार्य विद्यासागर और मुनि सुधासागरजी सहित आचार्यश्री के समस्त शिष्यगणों को कहा जा सकता है| - तृतीय श्री गंगाबक्शजी - उनके दो पुत्र श्री महावीरप्रसादजी एवं श्री नेमीचंदजी । प्रथम के चार पुत्र प्रेमचंद, पवन, सुरेश और रमेश । द्वितीय के तीन प्रमोद, बंटी, पिन्टू। गंगाबक्श जी की एक पुत्री हैश्रीमती भगवती देवीजी जो दुर्ग में श्री छीतरमलजी बाकलीवाल को ब्याही हैं। - चतुर्थ श्री गौरीलालजी, उनकी एक पुत्री- श्रीमती गुणमालाजी उनके पति श्री मोहनलाल भरर्तया, भिवन्डी।। - पाँचवे श्री देवीलालजी - उनके तीन पुत्र उक्तानुसार हैं। उनमें से प्रथम, ताराचंद के राजेश और राजीव नाम के बेटे हैं। राजेश की गोद में ऋषभ है। राजीव की में सिद्धार्थ। ताराचंद के द्वितीय भाई संतोष के पुत्र रोहित और राहुल हैं। तीसरे भाई अशोकजी के पुत्र रवि हैं। श्री ताराचंदजी परम धार्मिक एवं कट्टर मुनिभक्त हैं। परम पूज्य आचार्य विद्यासागरजी महाराज के गुरु स्व. आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज, गृहस्थ जीवन में आपके पिताजी देवीदत्तजी के, ज्येष्ठ भ्राता आप राजस्थान के सीकर जिला के राणौली नाम स्थान के निवासी हैं। आप का जन्म देवधर में हुआ था। ताराचंदजी दूसरे दिन प्रात: कुण्डलपुर के लिए प्रस्थान कर गये। ‘जीवनी' लेखन के तारतम्य में पं. भूरामलजी के वंशजों का ‘सरल-कुटी' में आना, परोक्ष रूप से, पं. भूरामलजी की गोपन उपस्थित कह दें तो ? तब तक फिर एक पत्र पर नजर चली गई उसमें लिखा था कि ११ अक्टूबर ९८ को सीकर में, दस हजार के जन समूह के मध्य, पू. सुधासागरजी के सान्निध्य में श्री रतनलालजी पाटनी के द्वारा पुस्तक ‘सुधा का सागर' का लोर्कापण किया गया। उसी दिन प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की २१ फुट उतंग पद्यासन-प्रतिमा का वहाँ धूमधाम से “प्रतिभावलोकन समारोह आयोजित किया गया। तत्कालीन उपमुख्यमंत्री एवं अन्य नेता तथा अधिकारी उपस्थित रहे। इसी दिन श्रीमान् अशोक पाटनी, आर. के. मार्बल्स किशनगढ़ द्वारा मार्बल्स उद्योग में कीर्तिमान स्थापित कर गिनीज बुक में नाम दर्ज कराने के उपलक्ष्य में अखिल भारत वर्षीय दिगम्बर जैन समाज द्वारा ‘जैन गौरव' की उपाधि से अलंकृत किया गया। इसी उपलक्ष्य में श्रीमान् अशोक पाटनी द्वारा विश्व का प्रथम ११ फुट उतंग प्रतीक चिह्न भेंट किया गया । १५ लाख रुपये की लागत का यह प्रतीक चिह्न चाँदी, सोने एवं रत्नों से जड़ित बनाया गया। अन्य पत्र देखता हूँ। उसमें समाचार है, कि अतिशय तीर्थ क्षेत्र रेवासा में पू. मुनिवर सुधासागरजी ने भाव व्यक्त किये हैं कि भगवान सुमतिनाथ की प्राचीन मूर्ति के कारण प्रकाशित यह स्थल 'भव्योदय तीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध होवे।
  9. हमें खुशी होती है कि सीकर में एक संगोष्ठी के कारण हमें राणोली के दर्शन हो गये थे। सत्य यह है कि पू. ज्ञानसागरजी की जीवनी का लेखन उस समय तक आधा ही हो पाया था कि अचानक जैन समाज सीकर से मुझे “आचार्य विद्यासागर वांगमय राष्ट्रीय संगोष्ठी'' के निमित्त आमंत्रण आया, जिसमें आचार्य विद्यासागरजी के महाकाव्य ‘“मूकमाटी में प्रकृति चित्रण'' पर मुझे एक आलेख बाँचना था। गोष्ठी के आधारभूत कार्यकर्ताओं में प्रमुख नाम स्पष्ट करना चाहता हूँ-श्री शशिकुमार दीवान (अध्यक्ष-समिति), श्री महावीर प्रसाद (मंत्री), डॉ. रमेशचंद जैन एवं डॉ. कपूरचंद जैन (संयोजक), डॉ. संतोषकुमार जैन सह संयोजक, श्री सुआलाल बड़जात्या एवं श्री मुकेश कुमार जैन (व्यवस्थापक)। वहाँ पहुँचने पर, गोष्ठी के दिन चार महत्त्वपूर्ण नाम और सामने आये - सत्र अध्यक्षद्वय श्री डॉ. सत्येन्द्र चतुर्वेदी एवं डॉ. नलिन शास्त्री, पुण्यार्जक श्री अशोक कुमार विनाक्या एवं सत्र संचालक श्री पं. अरुणकुमार शास्त्री। इन सबके ऊपर वे नाम थे, जिनके पावन आशीष से गोष्ठी को स्वरूप मिला था- परमपूज्य मुनिपुंगव सुधासागरजी महाराज और उनके संघस्थ साधु, क्षुल्लक श्रेष्ठ श्री गम्भीरसागरजी, क्षु. श्रेष्ठ श्री धैर्यसागरजी एवं ब्र. संजय भैया। इसी संगोष्ठी में मुझे आयोजकों द्वारा “साहित्य कुमुद चंद्र अलंकरण दिया गया था एक भव्य समारोह में, वह भी पूज्य सुधासागरजी और उनके संघ के मंगल सान्निध्य में। सीकर लौट पू. मुनिवर से चर्चा की और राणोली का वर्णन तथा प्रसंग कथा के अंत में पृथकू से लिखने का भाव बनाया। आशीष लिया। सीकर में साधुत्रय की कृपा से कई संस्मरण लोगों से प्राप्त हुए, जिनकी प्रामाणिकता पर स्वत: संतों ने विचार किया, बाद में लेखनी ने स्पर्श दिया। सीकर से जबलपुर लौटते समय मेरा मन संस्मरणों का पिटारा बन गया था, सारे रास्ते में मन में दृश्य बनाकर उन्हें अपने नेत्रों से देखता रहा। मुझे अपनी वह यात्रा याद हो आई जब में १२ अप्रैल ९८ को अजमेर गया था। वहाँ पहले वह स्थल जाकर देखा था, जहाँ कभी (३० जून ६८ को) पूज्य विद्यासागरजी महाराज की मुनि दीक्षा हुई थी। पू. सुधासागरजी के आशीष से उस स्थल का भी विकास किया जा रहा है। वहाँ भविष्य में एक बड़ी योजना आकार पा सकेगी, भक्तगण देखेंगे, आनंदित होंगे। उसी समय मुझे १३ अप्रैल ९८ को नसीराबाद जाने का सौभाग्य भी मिला था, जहाँ एक मंदिर में पू. ज्ञानसागरजी समाधिस्थ हुए थे, वहाँ उस मंदिर का विकास कार्य तो पू. सुधासागरजी के आशीष से हो ही रहा है, जिस भूमि पर पू. ज्ञानगसारजी को अग्नि दी गई थी, वह पूरा भूखण्ड भी प्राप्त (अर्जित) कर लिया गया है। वहाँ एक विशाल स्मारक निर्माणाधीन देखने मिला, जिसमें ज्ञानगसारजी की जीवनी को पाषाण चित्रों पर उकेर कर भित्तिकाओं पर स्थित किया जाना है। मध्य में एक विशाल स्टेचू होगा आचार्य ज्ञानसागरजी का, उसके आजू-बाजू के कोणों में पं. भूरामल और ब्र. भूरामल के स्टेचू शोभायमान किये जा सकेंगे। बहुत बड़ी लागत से उक्त कार्य भक्त जन करेंगे, उनके साथ मुनि सुधासागरजी का आशीष जोगी है। याद आया, सीकर में मेरे पास तक पहुँचाया गया, श्री रतनलाल झाँझरी का संस्मरण, जो आजादी के पूर्व का था। श्री झांझरी अभी ७३ वर्ष के वृद्ध हैं, पूर्व में राणोली ही रहते थे। वे लिखते हैं- जब राणोली में ठाकुरसाब राज करते थे, तब जैन समाज के साठ घर थे गाँव में। तब की घटना है- बड़ा जैन मंदिर की दीवार में से एक पीपल का वृक्ष ऊग कर, उस समय तक काफी बड़ा हो गया था, फलत: दीवार में दरारें आने लग गई थीं। दीवार गिरने के भय से कुछ जैन युवकों ने पीपल काट दिया। अन्य एक सम्प्रदाय के लोगों को पीपल काटे जाने का बहाना मिल गया, फलतः उन्होंने ठाकुरसाब से शिकायत कर दी। शिकायत के समाचार से अनेक विघ्नसंतोषी जन जैन-समाज के लोगों की उपेक्षा करने लगे। पू. भूरामलजी को यह ग्रामीणों का साम्प्रदायिकता पूर्ण आक्रोश अच्छा नहीं लगा, अत: उन्होंने जैन समाज को निर्भय बनने और स्वालम्बी होने के सूत्र दिये। फिर कुछ मित्रों के साथ ठाकुरसाब से मिलने गये, उनके मन में आये कलुष को अपनी निर्मल वाणी से धोने का प्रयास किया। ठाकुरसाब ने तब कहा कि हम बनारस से पंडितों को बुलाये देते हैं, उनके साथ बैठकर मंत्रणा कर लीजिए। कुछ ही समय में ठाकुरसाब द्वारा आमंत्रित तीन ब्राह्मण पंडित राणोली पहुँच गये। गढ़ में सभा बुलायी गई, सभी जाति के प्रमुख जन बुलाये गये। बनारस के पंडितों के समक्ष जैनसमाज से मात्र एक ही पंडित थे- श्री भूरामलजी। बनारस के तीन विद्वानों ने राणोली के एक विद्वान से चर्चा की। उनकी चर्चा मंत्रणा में बदल गई। दो घंटों तक विचार विमर्श हुआ। अंत में चारों पंडितों की बातों का निष्कर्ष ठाकुर साब ने जनता को सुनाया- “पीपल का अपना महत्त्व है, यह पूर्ण रूप से निर्विवाद है। पर देवस्थान का भी अपना महत्त्व होता है। अत: यदि पीपल के कारण देवस्थान को कोई क्षति होती तो उसका दोष भी हम सभी को लगता। इसलिये जो कार्य जैनयुवकों ने किया है, उस पर आक्रोश करना या दोष मढ़ना उचित नहीं है। गाँव में सभी समाजों के लोग मिलकर रहें और ध्यान रखें कि हमारी ग्रामीण एकता को खंडित करने जैसा, एकता की दीवाल पर विद्वेष का पीपल न उग पावे, अन्यथा दरारें बढ़ती ही जावेंगी।” ठाकुरसाब का आशय सभी को उचित लगा और उसी दिन से पूरे गाँव में एकता स्थापित हो गई। बनारस के पंडित विदा हो गये, राणोली का पंडित लोगों के मन मस्तिष्क पर छा गया। इस घटना के बाद ही पं. भूरामलजी ने जैन विवाह पद्धति' पर एक पुस्तक लिखी और समाज को ब्राह्मण और नाई के बिना, विवाह शादी की क्रियायें करने का आत्म-जागरण प्रदान किया। उक्त समयकाल की ही बात है कि एक तरफ अंग्रेज और दूसरी तरफ ठाकुर जमीनदार वगैरह गरीब जनता को दबा कर रखते थे। कोई व्यक्ति, समाज, सभा आदि कार्य स्वतंत्र रूप से करना चाहता था तो लोग अध्यक्ष बनने तैयार न होते थे कि कहीं जमीनदार साब बुरा न मान जायें या अंग्रेज ऑफीसर न आ जाये। ऐसी विषम स्थिति में पं. भूरामलजी खुलकर सामने आये और अंग्रेजों या जमीनदारों के उत्पातों की चिन्ता किये बगैर, अनेक सभाओं की अध्यक्षता करते रहे। पर वे नेता नहीं बने, पंडित के सच्चे आचरण जीवित रखे, फलत: उन पर कोई नाराज न हो सका। ऐसे जनप्रिय' (प्यारे) थे हमारे पंडितजी। सोचते-सोचते थकावट आ गई मस्तिष्क में सो पढ़ने के लिए पुस्तक खोजने लगा। बैग में अनेक पुस्तकें और कागज भरे पड़े थे। एक हलके हरे रंग का कागज हाथ में आ गया। देखा- मुनि उत्तमसागरजी द्वारा लिखित एक सुंदर काव्य है, शीर्षक है- “सुधासिन्धु-अष्टक' पू. उत्तमसागरजी भी आचार्य विद्यासागरजी के शिष्य परिकर' से एक हैं। और पू. सुधासागरजी से काफी कनिष्ठ (जूनियर) हैं। उनके मनोभाव उस हरे कागज पर पढ़ने लगता हूँ। "सुधा सिन्धु अष्टक" विद्यादधि का मंथन करके, “परम-सुधा" रस प्राप्त किये। निजानुभव की मिश्री मिलाकर, भविजन को नित पिला रहे।। ख्याति लाभ के स्वार्थ बिना ही, करे धर्म का हर पल काम। ऐसे मुनि श्री सुधासिन्धु' को, मेरा शत-शत बार प्रणाम ।।१।। जैनागम के सही अर्थ को, जनघ-मानस को बता रहे। "समंतभद्र" सम जिनशासन का, डंका घर-घर बजा रहे।। मिथ्यातम के गजदल को, जो सिंहनाद से भगा रहे। ऐसे “गुरुवर सुधासिन्धु" के पद पर सर हम झुका रहे ।।२।। त्याग-तपस्या भी अनुपम है, और साधना भी भारी। निर्झर व्रत निर्भीक वक्ता, अरु गुरु के आज्ञाकारी।। न्याय तर्क सिद्धांत नीति, षट्दर्शन के भी हैं ज्ञाता। इन मुनिपुंगव "सुधासिंधु" के चरणों में मेरा माथा ।।३।। 'धैर्य' वीर 'गंभीर' सिन्धु हैं, अरु ओजस्वी वाणी है। तीर्थोद्धारक धर्म प्रचारक, श्रमणों में हैं श्रेष्ठ श्रमण।। इन मेधावी परम “सुधासागर” को, मेरा कोटि नमन ।।४।। चर्या-चर्चा एकसी दिखती, जिनके जीवन में । हर प्रश्नों के उत्तर भी हैं, इनके हिलाकर प्रवचन में ।। इनके केवल दर्शन से ही, मिट जाता संसार भ्रमण। इन जग हितकर “सुधासिन्धु' को, मेरा बारम्बार नमन ।।५।। मात्र ज्ञान ही नहीं देते, ये देते हैं संस्कार सही। ज्ञान और संस्कार प्राप्त कर, पाते भविजन मोक्ष मही ।। आत्मध्यान की कला सिखाकर, करते हैं जो चित्त चमन। इन जग हितकर "सुधासिन्धु" को, मेरा बारम्बार नमन ।।६।। सत् युग की सत् परम्परा को, जीवित रखते इस जग में। नव गजरथ के साथ पंच-कल्याण कराये इस युग में ।। अतिशय युत तलघर प्रतिमा के, करा दिये जग को दर्शन । बाल ब्रह्मचारी श्रीमुनिवर, “सुधासिंधु को कोटि नमन ।।७।। नये तीर्थ अरु विद्यालय के, बने प्रणेता निज बल से। धुला रहे मिथ्यामतियों को, सही धर्म के शुचि जल से ।। इनकी अनुपम शक्ति देखकर, हुआ हर्ष युत गुरु का मन । इन जग तारक "सुधासिंधु" को, ‘उत्तमांग' से कोटि नमन ।।८।। परम सुधारस के लिये, प्यासे मेरे नैन । दर्शन देकर प्यास को, हरो मिटे बैचेन ।। तब तक बन्थलीवाले श्री मदनलाल जैन (छाबड़ा) अब मदनगंज-किशनगंज निवासी के पत्रों का पैकेट हाथ में आ गया। उनके अनेक पत्र इस पैकेट में, मैंने रख छोड़े थे। उनका ६/९/९८ का पत्र पुन: पढ़ने लगता हूँ, वे लिखते हैं - पू. सुधासागरजी के सीकर वर्षायोग के समय श्रावक संस्कार शिविर का संयोजन किया गया था जिसमें पू. आचार्य ज्ञानसागरजी के जीवन काल की झलक स्पष्ट करनेवाले ४३ मॉडल प्रदर्शन हेतु रखे गये थे। पत्र में मदनजी का परामर्श अच्छा लगा, वे कहते हैं कि मॉडल इतने अच्छे हैं कि उनके छायाचित्र तैयार कर जीवनी में प्रकाशित किये जा सकते हैं। सीकर में मैं उक्त ‘ प्रदर्शनी ’ हाल ही में देखकर लौटा था, पाषाण पटों पर रेखांकित चित्र स्थायीप्रभाव के योग्य हैं। उनकी प्रदर्शनी हर नगर, शहर, तीर्थ पर आयोजित की जाती रहे।
  10. “महाकथा” के बाद की कथा पं. भूरामल के गाँव तक लेखक की यात्रा (ले. - सुरेशचंद्रजैन ‘सरल') उनके गाँव ‘राणोली' तो जाना ही था, पर निमित्त न बन पा रहा था, सो जीवनी रूपी कथा का लेखन चालू कर देने के बाद भी मन में एक जिज्ञासा हर पल बनी रहती कि वहाँ जाऊँ ! २७ सितम्बर ९८ को मैं, श्रीमती पुष्पाजी के साथ वहाँ पहुँचा। जबलपुर से दिल्ली, वहाँ से सीकर और सीकर से राणोली। सौभाग्य से सीकर में हमें श्री ज्ञानचंदजी छाबड़ा (सीकर निवासी, पूना प्रवासी) मिल गये। वे पं. भूरामलजी के वंशज हैं। अत: सीकर से राणोली की यात्रा उन्हीं के साथ सम्पन्न हुई। वे हमारे गाइड बन, हमें सीधे उस पावन इमारत के समक्ष ले गये जिसमें महापंडित, महाकवि, महाचार्य, महामुनि परमपूज्य ज्ञानसागरजी का जन्म हुआ था, हाँ ! पं. भूरामल का जन्म। पत्थरों के जोड़ और संयोग से बनाया गया वह भव्य भवन अपने अतीत के वैभव की वर्षा करता मिला। जाते ही ऊँचा दाशा। सड़क से लगा हुआ साढ़े तीन फुट ऊँचा । दाशे के ऊपर छत, जो सात पिलर पर सधा हुआ है। सातों पिलर के सहयोग से उनके बीच में तीन घुमावदार दरवाजे (गेट) छ: सीढ़ियाँ चढ़कर हम दाशे पर पहुंचे। मुख्य गेट हमारे ऊपर। दाशे पर खड़े होकर सामने-सड़क की ओर देखा तो एक मैदान दीखा, जिसमें बायीं ओर पीपल का पुराना वृक्ष यादों का सेहरा बाँधे मटक रहा था और दाहिनी तरफ नीम के वृक्ष से मिठास बरस रही थी, प्राचीनता की मिठास। बाहर का दृश्य बाद में देखने का मन बनाया और हम भवन के भीतर प्रवेश कर गये। तब तक हमारे साथ श्री मदनलाल काला, श्री प्रभुदयाल रारा, श्री महावीर प्रसाद रारा और श्री फूलचंद छाबड़ा (समाज के मंत्री) भी साथ में हो लिये। सभी सज्जन कदमकदम पर मकान के विषय में जानकारी देते चल रहे थे। उनकी बातों से स्पष्ट हुआ कि भवन का भूमितल (ग्राउन्ड फ्लोर) काफी वर्षों पहले निर्मित हुआ था, पर उसके ऊपर की मंजिल (फर्स्ट फ्लोर) सन् १९४६ में बनवाया गया था। भवन में कुल सोलह कमरे हैं। एक प्रांगण है, जिसमें दो कमरे पार करते ही पहुँच जाते हैं। यह छोटा-सा है। मात्र ८x८ का। इसके चारों ओर कमरे हैं। आँगन के दो ओर से ऊपर जाने के लिये सीढ़ियाँ हैं। नीचे के कमरों को देखकर ऊपर पहुँचे, वहाँ निर्माण कार्य चल रहा था। कमरों के साथ-साथ कार्य का निरीक्षण करने का क्षण मिल गया। मैं पूछ बैठा- यह कार्य किस लिये चल रहा है, तब श्री ज्ञानचंदजी ने बतलाया कि पू. सुधासागरजी की प्रेरणा से पं. भूरामलजी के वंशजों ने यह भवन सार्वजनिक स्मारक बनाने के लिये समाज को दान कर दिया है, अब यह “महाकवि आचार्य ज्ञानसागर स्मारक राणोली' के नाम से जाना जाता है। जो यह कार्य चल रहा है, वह स्मारक की योजना के अंतर्गत ही है। ग्राम-पंचायत द्वारा इस भवन को क्रमांक प्रदान कर दिया गया है। यह अब मकान नं. २८८ कहलाता है। मैंने दरवाजे पर लगाये गये पीतल के नम्बारों की लघु प्लेट पढ़ी। ३५ गुणा ६० के भू-भाग पर निर्मित इस स्मारक के प्रथम छत के मध्य में महाकवि ज्ञानसागरजी की रन्टेचू (मूर्ति स्थापित की जावेगी, ‘वेदिका-आधार' निर्माण की ओर है, स्टेचू बन चुकी है। स्टेचू के ऊपर विशाल छतरी निर्मित होगी। उक्त स्थल के बाँयी ओर के कमरे में शिलालेख रखे हुए थे, जो भवन के कमरों में भित्ति पर लगाये जायेंगे। महाकवि पर पाषाण निर्मित चित्र वीथिका बनाना भी प्रस्तावित है। बचपन से लेकर समाधिमरण तक के सैकड़ों चित्र कीमती पाषाण पर कलाकारों द्वारा बना दिये गये हैं, जो शीघ्र ही यहाँ ‘चित्र-वीथिका का रूप पा सकेंगे। कुल पाँच स्टेचू की स्थापना और भवन निर्माण के कार्य के लिये सभी जन सहयोग कर रहे हैं, पर उक्त वंशजों का सहयोग सर्वोपरि है। श्री ज्ञानचंदजी बतलाते हैं कि प्रथम मंजिल पर आचार्यश्री ज्ञानसागरजी के संल्लेखना अवस्था को चित्रित करनेवाले स्टेचू रहेंगे, जबकि वहीं दाहिने हाथ के कमरे में उनकी क्षुल्लक अवस्था की स्टेचू स्थापित होगी। सबसे ऊपर छत पर पं. भूरामलजी की ब्र. अवस्था की स्टेचू रहेगी। स्मारक की भव्य योजना को पूर्ण रूप से समझ लेने के बाद, मुझे परमपूज्य मुनिरत्न सुधासागरजी को साधुवाद (धन्यवाद) कहने का मन हो पड़ा, जिनकी मंगलमयी प्रेरणा से यह कार्य चल रहा है। मुनिवर की यह प्रेरणा हजारों वर्ष तक जैनधर्म के महान यति ज्ञानसागरजी के प्रकाश को धूमिल नहीं होने देगी। क्या हर शिष्य अपने ‘दादागुरु' के लिये ऐसा कर सकता है? एक वजनदार प्रश्न मेरे मानस में गूंज गया। उत्तर बहुत देर तक नहीं मिला। फिर तालाब में घाट की ओर लौटती तरंगों की तरह स्वर मेरे मानस में आये, कोई उत्तर दे रहा था- अभी तो एक ही नाम है, सुधासागर। भवन में बाहर आ जाते हैं हम लोग। सड़क पर खड़े होकर पुन: देखते हैं, एक बोर्ड भवन पर राँगा गया दिखता है- “कार्यालय : महाकवि आचार्य ज्ञानसागर दिगम्बर जैन श्रमण संस्थान राणोली।” ज्ञानचंदजी मेरे चेहरे पर हो आई थकावट को पहिचान लेते हैं, वे हमें समीप ही स्थित श्री मदनलाल काला के निवास पर ले जाते हैं। काला और उनके पारिवारिक जन चाहत और प्यार की झर लगा देते हैं। हमारे शरीर का पसीना उड़ने लगता है। कंठों की प्यास समाप्त हो जाती है। कुछ ही क्षणों में तबियत सामान्य। मैं सोचने लगता हैं कि इन्होंने जो ‘चाय और पान कराया है, उसका नाम “चाहत और प्यार” सही है। चाय पान तो शरीर तक रहे, पर चाहत और प्यार अभी तक मन के कक्ष में चित्र-से सजे हैं। चाहत-प्यार, मेरा मतलब चाय-पान के बाद हम लोग गाँव का परिदृश्य देखने निकल पड़े। पहले वह गढ़ देखा जिस पर अंतिम शासक के रूप में राजा अमरसिंह राज कर चुके थे। गढ़ का कमानिया जैसा दरवाजा (गेट) और उस पर लगाये गये काले रंग के किवाड़ हमें बुलाते से लग रहे थे। यह नगर के मुख्य मार्ग से एक कि.मी. दूर है। गढ़ का अवलोकन कर हम लोग बाजार में से होते हुए उस नदी के समीप गये जिसका अब कोई नाम नहीं है, पर पं. भूरामलजी के जीवनकाल में उसे ‘खारी नदी' के नाम से पुकारा जाता था। यह नदी अब अपने पानी की मात्रा खो चुकी है, परन्तु पहले इसमें अधिक पानी रहता था। ग्राम राणोली को स्पर्श कर, यह एक किलोमीटर तक ही पहुँची कि एक अन्य नदी शोमवती दौड़कर इससे गले मिलती दिखी। है यहाँ संगम का दृश्य। फिर दोनों बहिने मिल कर एक हो जाती हैं और पुन: आगे बहने लगती हैं जैसे महाकवि का काव्य और महा-आचार्य का आचार्यत्व | एक होकर मेरी कथा में बहता है। दोनों नदियाँ ऐसी गड्डम गड्ड हुईं कि उनके पूर्व स्वरूप मिल कर, एक धारा बनाने में सफल हो गये। जैसे सन्तगण मिल कर एक धारा (धारणा) बना लेते हैं, मोक्षपथ की धारणा । धारा काफी दूर तक बहती जाती है ओर आगे जाकर माता जी सरोवर' में मिल जाती है। नदी की कहानी पूर्ण हुई। इसी तरह तो सन्त करते हैं, उनकी धारा बढ़ती जाती और अंत में समाधि-सरोवर (समाधिमरण) में विलीन हो जाती है। हम धाराओं के संकेतों को समझ कर पुन: गाँव की ओर आ गये। श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर जाने के लिए हमारा पुन: भूरामलजी के स्मारक (भवन) के सामने से निकलना हुआ, मैंने गाड़ी (कार) रुकवाली और ज्ञानचंदजी से कहा वह कमरा तो दिखाइए जिसमें श्री भूरामलजी जन्मे थे। वे मेरे साथ उतरे, भवन में गये और दिखला दिया। कहें - भवन में घुसते ही दाहिने हाथ पर जो द्वितीय क्रम पर कमरा है, उसमें जन्मे थे भूरा जी। १२४९ फुट के इस कमरे में विकारी हवा को प्रवेश के लिए कोई स्थान नहीं है। द्वार के स्थान पर एक पत्थर की चौखट है, उसमें पल्ले नहीं है। ठीक इस कक्ष के ऊपर ही पं. भूरामलजी के अध्ययन का कमरा है, जो दक्षिण भाग में कहा जावेगा। भवन की दोनों भीतरी दीवालें जो पत्थर की हैं, चूने से पोत दी गई हैं। हम भवन की भौगोलिक स्थिति लिखते हैं इसके पीछे बने पुराने मकानों में छीपे रहते हैं। भवन के दाहिनी तरफ नाई रहते हैं। बायें हाथ पर एक पुराना मकान है, जो श्री चतुर्भुजजी का ही है। हम भवन से पुनः बाहर आते हैं, मंदिर की ओर चल देते हैं। श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर, जिसमें अब बालिका विद्यालय भी चलता है, देखने मिल गया। इसके प्रांगण में भी महाकवि आचार्य ज्ञानसागरजी का स्टेचू श्री ज्ञानचंद छाबड़ा के सहयोग से स्थापित किया जा रहा है। मंदिर के विशाल परिसर में आयुर्वेदिक औषधालय भी स्थापित है। मंदिरजी के ठीक सामने दिगम्बर जैन भवन है- सड़क के पार । वह भी देखा। पू. सुधासागर जी सभी के जीर्णोद्धार के लिए प्रेरणाएं प्रदान कर रहे हैं। बड़ा मंदिर माने नसियाजी । इसके पार्श्व में सेठ श्री बख्शीरामजी, सरबसुखजी एवं श्रीलालजी बड़जात्या की श्रद्धा काम कर रही है। कहें श्री ज्ञानचंद छाबड़ा अपने पिताजी की स्मृति में वहाँ कार्य पूर्ण कराने का संकल्प ले चुके हैं। राणोली से वापिस हो रहे थे। पूरे गाँव को देखकर आभास हुआ कि यह लगभग २ किलोमीटर लम्बा और एक कि.मी. चौड़ा है। यों पूर्व में इसकी लम्बाई-चौड़ाई मात्र एक कि.मी. और आधा कि.मी. थी। नदी के उस पार हरिजन रहते थे, इस पार महाजन । यहाँ रेलवे स्टेशन भी है, जिसका नाम 'राणोली' ही है। गाँव के उत्तर में साँगरवा पहाड़ फैला है तो पश्चिम में रेवासा पहाड़। शेष दो दिशाओं में खेत ही खेत हैं। साँगरवा पहाड़ ६ कि.मी. पर है तो रेवासा ९ पर। ग्राम दर्शन, भवन दर्शन कर हार्दिक खुशी हुई। हमने श्री ज्ञानचंदजी को धन्यवाद दिया और प्रस्थान कर दिया सीकर के लिए। २७ सितम्बर ९८ का वह दिन मैं कैसे भूल सकता हूँ, आप ही विचार करें। लौटते समय रास्ते में ज्ञानचंद ऑसौर उनके साथियों के संस्मरण | याद आने लगे - इन्होंने बतलाया था कि भूरामलजी के बाल्यकाल के समय गाँव में कोई स्कूल नहीं था, फलत: ग्राम के धीमान लोगों के पास आ-जा कर ही शिक्षा प्राप्त की थी, बाद में बनारस जाना हुआ। राणोली में जिन मदनलाल काला से वार्ता हुई, उनके शब्द याद हो आये – सन् १९६० के आस-पास की बात है, मदनलालजी हिसार (हरियाणा) गये हुए थे, वहाँ के एक मंदिर में पं. भूरामलजी का ब्र. अवस्था का चित्र लगा हुआ था। उसे देख कालाजी बोल पड़े ‘‘ये तो हमारे गाँव के हैं' मंदिर में लोगों को ज्ञात होते ही समाज ने उन्हें बहुमान दिया। पूछ-परख पर ध्यान रखा। आदर-सत्कार की कमी न होने दी। इतना ही नहीं दो-चार दिन रुकने के उद्देश्य से गये कालाजी को, वहाँ के समाज ने अपने प्रेमानुरोध से बीस दिन तक रोका। कालाजी को सुन्दर आतिथ्य लाभ हुआ। वे ब्र. जी के प्रभाव को समाज के जन-जन में पा रहे थे। पं. भूरामलजी जब दुकानदारी करते थे, तब की एक घटना बतलाई थी उन लोगों ने। भूरामल जी को एक बार यू.पी. (उत्तरप्रदेश) जाना पड़ा, वहाँ चाँदपुर में व्यापारिक कार्य था। तब उनके निर्दोष, नि:स्वाद खान-पान के दर्शन हुए। वे रास्ते में शोधपूर्ण बनाया गया भोजन हर जगह तो नहीं उपलब्ध कर सकते थे, अत: साथ में चने और नमक रख कर ले गये थे। जहाँ, जिस नगर में साफ सुथरे श्रावकों का रहवास न होता, वहाँ वे चने उबालकर खा लेते थे, किन्तु सुस्वादु भोजन के चक्कर में यहाँ-वहाँ नहीं खाते थे। जिनका आहार इतना सादा और शुद्ध होता है, उनका मन भी साफ होता है। निष्कपट, नि::कषाय। हम राणोली के समीप से नई रेल लाइन को पार करते हैं। वहीं से स्टेशन दीखता है। रेल-फाटक्क पार करते ही हमारी गति बढ़ जाती है।
  11. उनके चातुर्मासों की समयावधि में कभी प्रदर्शन की होड़ देखने नहीं मिली। समाज का पैसा अनावश्यक रूप से व्यय कराने का कभी कोई संकेत नहीं दिया। यंत्र-मंत्र का चक्कर और पिच्छिका के स्पर्श से आशीर्वाद देने के अभिनय में नहीं पड़े। दुकान, प्रतिष्ठान, कार्यालय, कारखाना के उद्घाटनों के समय दिगम्बर साधु की उपस्थिति दी जाना उचित नहीं मानते थे। महाविद्यालयों में कार्यरत पूर्व विद्वानों के ग्रन्थों को समाप्त कर, उनकी सामग्री में थोड़ा-सा हेर-फेर करा कर, अन्य विद्वान के नाम से ग्रन्थ प्रकाशित करने की वीभत्स योजनायें उन्होंने कभी नहीं बनायीं, न उन पर किसी को कार्य करने दिया, न प्रोत्साहन दिया। आचार्य शांतिसागरजी महाराज की परम्परा को लेकर चलते रहे और समाधिस्थ होने के पूर्व वह श्रेष्ठ परम्परा अपनी शिष्य-पीढ़ी को मशाल की तरह पकड़ा गये। गुरुवर ज्ञानसागर के विछोह से संघस्थ सन्तों के हृदय पर भी कुछ हुआ था, जिसका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता । न वे सन्तगण कर सकते थे। बस, मोह और उदासीनता के मध्य, भावना का एक झूला (दोलन) इस डाल से उस डाल तक डोल रहा था। चौथा दिन ही चल रहा था कि अजमेर के श्रावक नसीराबाद जा पहुँचे, पू. आचार्य विद्यासागरजी के पास और प्रार्थना की- अजमेर विराजने की। देखते ही देखते, चरणों में श्रीफलों का ढेर लग गया। संघ के अन्य सदस्यों का मन टटोलते हुए आचार्यश्री ने श्रावकों के अनुरोध के समक्ष मौन रह कर जैसे अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी हो। दूसरे दिन नसीराबाद से विहार हो गया। छह जून १९७३ को गुरु ज्ञानसागर के अजमेर में, आचार्य विद्यासागर श्रावकों के समूह के साथ पहुँच गये। पहले केशरगंज के मंदिर के दर्शन किये, फिर नसिया जी के। कुछ दिनों का लाभ दिया नसिया के समीपी श्रावकों को। यह वही नसिया थी जहाँ गुरु ज्ञानसागरजी का पावन सान्निध्य मिला था विद्यासागर जी को। वहाँ, उनकी आँखें हर कक्ष में थम जाती थीं मगर उनका साधुत्व उन्हें जगाता रहता था। ‘ओ युवा सन्त ! अब यहाँ ज्ञानसागर नहीं मिलेंगे। तुझे स्वत: ज्ञानसागर बनना होगा। उन्हें उनका साधुत्व रोज पुकारता लगता था- 'हे महामुनि विद्यासागर ! तू आचार्य है, तुझमें विद्या है, तप है, संयम है, वे सब योग्यतायें हैं जो एक महान आचार्य में होना चाहिए, अत: तू संकोच न कर, अपने भीतर स्थापित हो गये ज्ञानसागर को बाहर निकाल और श्रावकों के समक्ष आत्मसुख बरसा दे कि तू ही विद्यासागर है और तू ही ज्ञानसागर है।' आत्मा से उठती ध्वनि पू. विद्यासागरजी रोज-रोज सुनते रहे। फिर कुछ इस तरह अपने पथ पर प्रवृत्त हुए कि “संसार' ने एक दिन स्वत: ही स्वीकार लिया कि गुरुदेव तुम, मात्र “तुम नहीं हो, तुम में वे भी हैं। सदा हैं, सदा रहेंगे। उसी वर्ष “चरित्र चक्रवर्ती'' की परम्परा अक्षुण्ण बनी रहने का विश्वास देश के जैन समाजा में जागृत हो गया। परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी की परम्परा में उनके कई शिष्य उनसे प्राप्त स्मशाल लेकर देश में समाज के सामने आये हैं, वे ऐसे विशाल वृक्ष बने कि उनकी अनेक डालियाँ पुन: पुन: विशाल वृक्षों की कतारें खड़ी कर सकीं। उन्हीं में से उनके एक प्रखर शिष्य आचार्य वीरसागर हुए, उनके प्रखर शिष्य आचार्य शिवसागर हुए, उनके प्रखर प्रथम शिष्य ज्ञानप्तदिवाकर आचार्य ज्ञानसागर हुए और उनके प्रखरतम शिष्य विद्यावारिधि आचार्य विद्यासागर हैं। आचार्य विद्यासागरजी ने वर्ष १९७३ से चल कर वर्ष १९९८ तक २५ वर्षों में अपने आपको इतना तपाया कि उनके व्यक्तित्व में, उक्त परम्परा से चले आ रहे सम्पूर्ण गुरुगण, अपने समस्त लौकिक गुणों के साथ, समाहित हो गये। विद्यासागरजी में शांतिसागर, वीरसागर, शिवसागर और ज्ञानसागर का सम्मिलित उजास हर भक्त ने देखा परखा समझा है। अस्तु। विद्यासागर रूपी विशाल-धर्म वृक्ष इतना फैला कि उसकी एक या दो नहीं, अनेक डालें सम्पूर्ण राष्ट्र को छाया प्रदान करने लगीं, उन्हीं में से एक राजस्थान के विशाल भू-भाग तक पहुँच चुकी है, जिसका नाम है- होनहार आचार्य, मुनि पुंगव १०८ श्री सुधासागरजी महाराज। यह बलिष्ठ डाली भविष्य का इतिहास लिखाने में निमित्त बनेगी, जब विद्वज्जन कहेंगे कि “चारित्र चक्रवर्ती' की परम्परा निर्बाध गति से चल रही है आज भी। वह आगे चलेगी, चलती रहेगी, है समाज को इतना विश्वास-परमप्रिय और परमपूज्य सुधासागरजी महाराज पर।
  12. उस दिन निर्वाण भूमि (श्मशान) से लौट कर जब श्रावकगण अपने घर पहुँचे तो अनेक गुणी श्रावकों को पहली बार अनुभव में आया था कि वे (श्रावक) घर आये जरूर हैं, पर सत्य यह है कि निज घर तो पहुँचे ही नहीं हैं। निजघर तो वे पहुँच रहे हैं जिन्हें अभी-अभी आग के हवाले करके आये हैं। श्रावक घर नहीं पहुँचे। उनके मन में पूज्य दौलतराम के शब्द उतर आये- “हम तो कबहूँ न निजघर आये। परघर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये।। हम तो..........। जब वे जमाने से आँखें मूंद चुके, तब सारा देश कह रहा थाआगम ही उनके नेत्र थे, चर्म-चक्षुओं के मूंद जाने से क्या होता है, उनकी प्रज्ञा चक्षुये सदा संही संकेत प्रदान करती रहेंगी। दूसरे दिन देश के अनेक नगरों-महानगरों और लघु ग्रामों में शोक सभायें हुईं। कहीं-कहीं समाचार दो-चार दिन विलम्ब से पहुँचा। जहाँ-वहाँ तब शोक लहर छा गयी। लगभग १५ दिनों तक देश में शोक सभाओं का क्रम चलता रहा। “ज्ञान' फैलाकर ‘‘दिवाकर चला गया था। मगर “ज्ञानदिवाकर' शब्द को ठोस अर्थ पहिना गया था। नसीराबाद के प्रबुद्ध समाज ने अपने प्रिय और पूजनीय सन्त की स्मृति में वहाँ एक “छतरी' का निर्माण कराया, जिसकी छाँव में गुरुवर के चरण कमल की तरह खिले रहते हैं। गुरुवर ज्ञानसागरजी नहीं थे, पर उनकी चर्चायें हर स्थल पर थीं। उनका कर्तृत्व मुस्कुरा रहा था। कागजों में से उनकी लेखनी पुकार - पुकार कह रही थी- वे सदा देश में रहेंगे। देश के ग्रन्थों में रहेंगे। ग्रन्थों को पढ़ने-गुनने वाले श्रावकों में रहेंगे। अपनी शिष्य परम्परा में शिष्यों के भीतर स्थापित मिलेंगे। हर नगर में उनकी चर्चा चल रही थी। कहीं दो महाजन मिलकर बतिया रहे थे, कहीं दो विद्वान, कहीं दो सन्त तो कहीं दो साहित्यकार।सभी की चर्चा में ऐसे तथ्य थे जो भविष्य के लिये 'पाठ' बन कर सभ्य समाज में स्थान ले सके। कतिपय प्रमाणित आलोचकों के मानस में भी गुरुवर के निधनोपरान्त विचारों की मथानी घूमी। वे गुरुवर की स्तुति कर रहे थे, मगर अपने तुलनात्मक लहजे में। उनकी वाणी से तब शाश्वत मूल्यों की स्थापना को बल मिला, कह रहे थे- वे सच्चे मायने में त्यागी थे, उन्होंने मंदिर निर्माण या ग्रन्थ प्रकाशन या अन्य कार्यों हेतु चन्दा नहीं माँगा। उन्होंने अपने या संघ के कार्य के लिये कभी कोई नौक नहीं रखा। स्वस्थ्य रहते हुए किसी मंदिर, धर्मशाला, संस्था परिसर में स्थायी रूप से नहीं रहे, जब रहने/रुकने की मजबूरी देह-तत्त्व के समक्ष आयी तो उन्होंने समाधि ले ली। रुपया पैसा तो दूर, सामान्य पदार्थ तक का कभी कोई संचय कर पास में नहीं रखे, न उनके संघस्थ सदस्यों ने कभी ऐसा किया। वे किसी श्रावक के निजी रहवास (भवनादि) में कभी नहीं रहे। अपने संघ के नाम से कभी कहीं, कैसी भी स्थिति में, चौका नहीं रखा। शिष्यों को मुनिदीक्षा यों ही तुरत-फुरत में कभी नहीं दी, कम से कम उन्हें साल भर पास रख कर परखा, शिक्षण दिया, तब दीक्षादि के विषय में सोचा। श्रावकों की सहायता से तीर्थयात्रा नहीं की, वे जहाँ रुकते थे, उसी स्थल तीर्थ की गरिमा प्रकट करने का सत् प्रयास करते रहते थे। वे जब क्षुल्लक अथवा ऐलक अवस्था में थे, तभी से वाहन का उपयोग नहीं करते थे। अपने संघ के सदस्यों की नित्य क्रियायें एक साथ करते-कराते थे। धार्मिक ग्रन्थों का क्रमिक अभ्यास कराने का, उनका विशेष गुण कौन भुला सकता है। कोई परिजन संघ में नहीं रह सकता था, अपरिग्रह की अलख उनके हृदय में सदा पूँजती रहती थी। अत: डायरी, पेन्सिल और कागज तो क्या, भक्ति पाठ की पुस्तकें तक परिमित मात्रा में ही स्वीकार करते थे। उनके संघ में मुनि, ऐलक, क्षुल्लक पृथक् स्थान पर एवं आर्यिकायें, क्षुल्लिकायें या ब्रह्मचारिणी बहिनें अन्य स्थान पर ससमूह रुकते थे। अध्ययन योग्य शास्त्रों-ग्रन्थों को सायास प्राप्त कर, अध्ययन क्रम के अनुसार, समूह में पढ़ाते थे। उनके संघ के त्यागी व्रती संघ छोड़ कर अन्य संघ न जावें, न ही अन्य संघों के सदस्य अपना संघ त्याग कर उनके संघ में आवे-जावें, ध्यान रखते थे। वे स्वत: स्वालम्बन पर विश्वास करते थे, शिष्यों को भी स्वावलम्बी बनने की शिक्षा देते थे। जो त्यागी गृह त्याग कर, घर की मोह ममता छोड़ कर, संघ में रहते थे, उन्हें ही रखते थे, इधर-उधर घूम कर, फिर संघ में लौट आने वाले त्यागियों के लिये उनके पास न स्थान होता था, न समय। वे वार्ता या प्रवचन के दौरान, या सन्त-समागम के अवसर पर वाणी की वाचालता और विकथाओं से बचे रहते थे। वे स्तोत्र पठन, जाप, सामायिक निश्चित समय पर नियमित रूप से करते थे और वैसा ही संघस्थ साधुओं को करने की प्रेरणा करते थे। अन्य संघ के त्यागी जनों को अपने संघ में प्रवेश नहीं देते। थे, पर जो अपने गुरुजनों से आज्ञा लाते थे, या जिनके गुरु समाधिस्थ हो जाते थे, उनकी पात्रता परख लेने के बाद, प्रार्थना स्वीकार करते थे। ऐसे त्यागियों से संकल्प कराते थे कि वे अब केवल गुरुवर के संघ में रहेंगे और आत्मकल्याण करेंगे। जो त्यागी केवल अध्ययन के लिये उनके संघ में आते थे, उन्हें अपने गुरु की आज्ञा लानी होती थी और स्थिरचित्त से अध्ययन में समर्पित होना होता था। गुरुवर अपने संघ के अधीन बसें, ट्रक या अन्य वाहन नहीं रखते थे, न किसी सज्जन का इस तरह का दान/सहयोग स्वीकारते थे। उक्त विचारों से गुरुवर की सही-सही छवि का खुलासा तो होता ही है, वर्तमान पीढ़ी को दिशा भी मिलती है। एक आलोचक होता तो बात यहीं समाप्त हो जाती, मुनियों के जितने भक्त होते हैं, शायद उतने ही आलोचक होते हैं। एक मायने में हर सच्चे भक्त के भीतर एक स्वस्थ आलोचक भी छुपा रहता है जो समय-समय पर उचित आलोचनायें प्रगट भी करता चलता है। दूसरे शहर के दूसरे आलोचक चर्चा कर रहे थे- पूज्य आचार्य ज्ञानसागरजी केशलुञ्चन का विज्ञापन नहीं करते-कराते थे, वे इस क्रिया को शांति युक्त एकान्त में करना उचित मानते थे। श्रावकों से प्रतिज्ञा करने का आग्रह नहीं करते थे। केवल प्रमाणित कथाओं पर उपदेश करते थे, कभी प्रामाणिक उपदेश नहीं दिया। चश्मे का उपयोग सहज ही नहीं कर लिया था, जब संघस्थ साधुओं ने और विद्वतवर्ग ने प्रार्थना की कि चश्मा आप अपनी सुविधा के लिये नहीं, अपूर्ण ग्रन्थों को पूरा करने, संशोधन करने के लिये, लीजिए, तब उन्होंने उस पर विचार किया था। आहारों के समय संकेत देकर आहार तैयार करवाने या लेने की बात उचित नहीं मानते थे, उनमें आहार के प्रति रुझान या लोलुपता रंचमात्र भी नहीं थी। वे अहिंसा महाव्रत में प्रकारान्तर से भी कोई दोष नहीं आने देते थे, फलतः विध्वंशक या रचनात्मक कार्य जिनके साथ हिंसा की सम्भावना होती थी, के लिये उपदेश या आदेश नहीं देते थे। चातुर्मास के समय श्रावकों का हित देखकर ही निर्णय लेते थे। वे सतत् विहारशील बना रहना ही उचित मानते थे, परन्तु काया-कष्ट के समक्ष आगमोचित विराम भी लेते थे। महिलाओं को चरण स्पर्श कर लेने की अनुमति नहीं देते थे, उचित दूरी और उचित स्थान पर ध्यान रखते थे। सवारी में या डोली में चलना अनुचित मानते थे। मूलगुणों की उपेक्षा कर उत्तरगुणों की ओर ध्यान नहीं देते थे। रात्रि काल में पूर्ण रूपेण मौन धारण करते थे। इशारे/संकेत/फुसफुसाहट को जीवन में स्थान नहीं दिया। ईर्या-समिति की मर्यादा में रहते थे, अत: चलते समय बातचीत नहीं करते थे। श्रावकों या उनके नौकरों से कहकर सिगड़ी या अँगीठी या हीटर पर पानी गर्म कर देने का आदेश नहीं देते थे। श्रावकों-सेठों-पंडितों के अनुरोध पर या निमंत्रण पर उनके कार्यक्रम में पहुँच जाने की अनुमति नहीं देते थे, न चातुर्मास करने की पूर्वाज्ञा। जैन संस्थाओं द्वारा आयोजित नाटक देखने या रेडियो से प्रसारित धार्मिक महत्त्व के समाचार या टेप-रिकार्ड पर किसी कवि विशेष की कविता सुनना उचित नहीं मानते थे। पत्र व्यवहार के लिये तनिक भी स्थान न था उनके जीवन में, धर्म-चर्चा और धार्मिक ग्रन्थों से सम्बंधित पत्र ही पढ़ना-पढ़वाना, गुरु आज्ञा के बाद, सम्भव था। आहार हो जाने के बाद, चौका लगानेवाले श्रावकों से दान की घोषणा की प्रेरणा नहीं करते थे। न ऐसा करना उचित मानते थे। किसी संस्था, ट्रस्ट या संस्थान से सम्बंध नहीं रखते थे। सत्य तो यह है कि भक्तों के संसार की तरह आलोचकों का संसार भी वृहत् होता है। तभी तो आलोचकों के तीसरे दल के कुछ नये प्रतिमान सुनने मिले, वे बतला रहे थे।
  13. निधन का समाचार शहर तो शहर अन्य शहरों में भी पहुँच गया। मगर कुछ सज्जन भ्रम में पड़ गये, उन्हें मालूम था कि पू. ज्ञानसागरजी मात्र जल पर जीवन यात्रा चला रहे हैं, अत: समझे कि उन्हीं की समाधि हो गई है। समाचार के भ्रम से वे भक्त जो पू. ज्ञानसागरजी के दर्शन कर लेना चाह रहे थे, अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर नसीराबाद जा पहुँचे। वहाँ पहुँचने के बाद भ्रम समाप्त हो गया। लोगों ने ज्ञानमूर्ति गुरुवर ज्ञानसागरजी के दर्शन किये, उनके हाथों से आशीष पाया और फिर उनके निर्देशानुसार पू. सुपार्श्वसागरजी की अंतिमयात्रा और अंतिम दर्शन के निमित्त से उनके समीप बने रहे। समाज ने धूमधाम से सुपार्श्वसागरजी की अंतिमयात्रा निकाली और अंतिमक्रिया सम्पन्न की। लोग गुरुवर ज्ञानसागरजी की जय बोलते हुए अपने-अपने घरों को वापिस हो पड़े। सरस्वती-सूनु, ज्ञान प्रभाकर, तप:सम्राट, चारित्र चक्रवर्ती वयोवृद्ध तपसी परमपूज्य ज्ञानसागरजी ने सुपार्श्वसागरजी के निधन के चार दिन बाद ही, २० मई ७३ को आचार्य विद्यासागरजी से अनुमति ले, समस्त प्रकार के खाद्य पदार्थों का त्याग कर दिया। तथा २७ जून को जल का भी त्याग कर दिया। सम्पूर्ण नगर में हाहाकार मच गया, पर मोहान्ध भक्तों को ज्यों ही स्मरण दिलाया गया कि यह त्याग ही तो तप की विधि है, इसी में से होकर आत्मा शिखर की ओर जाती है, तब कहीं उनका ज्ञान जागा। मातम समाप्त हो गया। गुरुवर की कृशकाया धीरे-धीरे इतनी क्षीण हो पड़ी कि उन्हें बैठाने के लिये भी स्वत: विद्यासागरजी को पल-पल साथ रहना होता, आहारादि जीवनदायक पदार्थों के त्याग कर देने के बाद भी पू. ज्ञानसागरजी का जीवन रथ चलता रहा और धीरे-धीरे एक या दो नहीं चार दिन बीत गये। उस समय तक उनके श्रीसंघ के सदस्यों में जो अन्य साधु संत थे, उनके नाम इस तरह हैं- पू. मुनि विवेकसागरजी, ऐलक सन्मतिसागरजी, क्षुल्लक विनयसागरजी, (बाद में ये मुनि विजयसागर हुए) क्षु. सम्भवसागरजी, क्षु. सुखसागरजी (बाद में समाधिस्थ हो गये) एवं क्षु. स्वरूपानन्दजी। ये समस्त सदस्य पू. आचार्य विद्यासागरजी के संघ के सदस्य कहलाने लगे थे। गुरुवर के महान त्याग ने सिद्ध कर दिया कि वे शरीर से ममत्व हटा चुके हैं और निवृत्ति की ओर चरण धर चुके हैं। सही अर्थों में वे शारीरिक आधि-व्याधि की ओर भी पूर्ण उपेक्षाभाव धारण कर चुके थे। उपाधि की उपेक्षा तो वे महान सन्त छह माह पूर्व, २२ नवम्बर ७२ को ही कर चुके थे। अब वे केवल अंतरात्मता की ओर कदम-कदम चल रहे थे। वे पूर्ण शांति किन्तु बहादुरी से अपने पथ पर थे। वीरता उनके अंतरंग से नि:सृत हो रही थी, वहाँ निराकुलता को ठौर नहीं थी। वे अपना ‘उपयोग' अंतर्मुखी करते चल रहे थे। वे उस क्षण एक साथ दो महान कलाओं का प्रतिपादन कर रहे थे। उनके जीवन ने “जीने की कला'' दी और दिया अहिंसाव्रत का बोध, तो उनकी सल्लेखना ने दिया “मरण कला का प्रादर्श। वे शनैः शनै: अदृश्य की ओर बढ़ रहे थे। वह एक जून ७३ का दिन था- शुक्रवार । सुबह १० बजकर २० मिनट पर उनकी आत्मा ने शरीर का वह जर्जर पिंजरा त्याग दिया। श्रीसंघ के मध्य उनका शरीर था, आत्मा सिद्धों की दिशा में पंछी की तरह उड़ गई थी। आचार्य विद्यासागरजी काफी समय पूर्व से उन्हें अपने सँधे कंठ से संस्कृत में भक्तामर आदि सुना रहे थे। वे सुन रहे थे, पर सुनाने और सुनने के मध्य एक पल ऐसा आया कि सुनानेवाले सुनाते रह गये, सुनने वाला जागा, उठा और ऊर्ध्व लोक की ओर विहार कर गया। मंदिर परिसर में हजारों भक्त खड़े थे। पूरा क्षेत्र जैनाजैन बंधुओं ने घेर सा लिया था। जो जहाँ था- काष्ठवत् रह गया था। एक सौ अस्सी दिन से जो काया काष्ठवत् रह कर समाधि में प्रवीण हुई थी, उसकी संचालक आत्मा यंत्रवत् चली गई थी। इस युग में दो ही आचार्य इस आगमनुसार संल्लेखना को पूर्ण कर सके, एक आचार्य शान्तिसागरजी एवं आचार्य ज्ञानसागरजी। नसीराबाद के समस्त सीमा क्षेत्र में वियोग का सागर उतर आया। हर आँख ने अश्रु बिन्दु के अर्घ्य चढ़ाकर श्रद्धांजलि प्रेषित की। हृदय की श्रद्धा आँखों के रास्ते होकर छलक रही थी। मातायें-बहिनें हिचकियाँ ले ले रो रही थीं, बच्चे उनके बहते आँसू देख किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े रह गये थे। नगर के लोग संताप की गवाही देने के लिये निकले आँसुओं को पोंछ-पोंछ कर, बड़े मंदिरजी की ओर भागे चले जा रहे थे, जहाँ अधिकांश वरिष्ठ जन पहले ही से उपस्थित थे। देखते ही देखते समाचार हवा के साथ उड़कर अन्यान्य नगरों में जा पहुँचा। नसीराबाद के समस्त फोन उस दिन एक साथ वापरे जा रहे थे। फोनों की घंटियाँ दूसरे नगर में जाकर घनघना रही थीं, लोग समाचार से अवगत हो रहे थे। नगर से बाहर जाने वाली हर बस, टैक्सी और रेले समाचार लेकर जा रही थीं। एक जून का दिन गर्मी का विशेष दिवस कहलाता है। मगर उस दिन की गर्मी कुछ अधिक ही आँच दे रही थी। मध्यान्त में अंतिम यात्रा निकाली गई। तब तक बाहर से काफी भक्तगण आकर उनके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त कर चुके थे। गुरुवर पद्मासन में निर्वाण डोली पर बैठे चले जा रहे थे। डोली को हजारों जन काँधा देने उतावले थे। हजारों भक्त शांतिपूर्वक जुलूस में पू. ज्ञानसागरजी की जय बोलते हुए चल रहे थे। लोग सत्य बोलो मुक्ति है - का निनाद समझ रहे थे। बड़ा मंदिर नगर की वायव्य दिशा में। बीच में नगर की बसाहट जुलूस नगर की सड़कों को अंतिम झलक का अवसर दिलाता हुआ, श्मशान पहुँच गया। समस्त संघ पाँव-पाँव साथ था। संघ के सदस्य धर्म और विवेक के सूत्रों से बँधे थे, उन्होंने प्रयास किया कि मोह की मारी थे आँखें कहीं अचानक मोह की कहानी कहने लगें, अत: सभी का ध्यान आत्मा पर था, दृष्टि गुरुवर पर । संघ के समीप ही सीकर निवासी श्रावक धर्मचंद थे, उनकी माताजी थीं, था पूरा श्रावक समाज। श्रावकों ने आचार्य विद्यासागरजी से मार्गदर्शन प्राप्त किया, फिर भग्नि-क्रिया पूर्ण की। देखते ही देखते अग्नि की ज्वालाओं ने ज्ञान सौर धर्म से लबालब अपने प्रिस्य सन्त को अपने में समेट लिया। एक (खर ज्ञानी साधु प्रकृति की प्रखरता में समा गया। तीव्र धूप को सहनेवाले नसीराबाद के महान श्रावक सन्त का वियोग नहीं सह पा रहे थे, मगर रोते-किलपते हुए एक-दूसरे से आँखें भी नहीं मिला पा रहे थे। श्मशान में शांतिसभा की गई। दो मिनट का मौन धारण कर श्रद्धांजलि दी गई। लोग अपने प्रिय को अग्नि की गोद में ध्यानस्थ अनुभूत कर रहे थे। धीरे-धीरे पाँव लौटने लगे मंदिरजी की ओर। सब मौन । सब चुप । न किसी की जय । न कोई शोर । न बाजे, न बेनर। यह थी वापसी की यात्रा श्रावक शांति से वापिस लौट आये। गुरुवर शांति से ‘‘निजघर' चले गये। दुख के मारे भक्तजन पूज्य कवि दौलतरामजी की पंक्तियाँ स्व. गुरुवर ज्ञानसागरजी की धीमी आवाज में सुनने का प्रयास कर रहे थे- जिया तुम चालो अपने देश । शिवपुर थारो शुभथान । कुछ भक्तों के मन में कविवर भागचंदजी की पंक्तियाँ अभिगुंजित हो रही थीं- ऐसे विमल भाव जब पावै, तब यह नरभव सुफल कहावै। जैनेतर जन भी जुलूस में थे, उनकी आँखों में भी श्रद्धा की गंगा थी, उनके कान भी गुरुवर की मंद-मंद आवाज सुन रहे थे- हम तो जाते अपने गाम, सबको राम-राम-राम। वापसी के बाद मंदिरजी में शोक सभा का आयोजन किया गया। लोगों ने उनकी महायात्रा को शरीर पर आत्मा की विजय निरूपित किया और उनके वियोग को जैन धर्म एवं जैन साहित्य की महान क्षति बतलाया। शाम हो गई थी। संघ सामायिक पर बैठ चुका था। श्रावक समूह स्मृतियों के रथ पर।
  14. वृद्ध संत का चलना-फिरना बन्द होता जा रहा था, जिन्होंने जीवन भर विहार किया हो उनके चरण कहीं, अधिक समय तक कैसे रुक सकते थे। नसीराबाद के उस ऐतिहासिक मंदिर में संत ज्ञानसागर अवश्य ही ठहरे हुए लग रहे थे, पर उनकी आत्मा एक लम्बी यात्रा की। तैयारी कर रही थी। तैयारी एक महायात्रा की। जब मुनि विहार करते हैं, तब भक्त गण साथ-साथ चलते हुए अपनी सेवा और विनय प्रस्तुति की इच्छा पूरी करते हैं, परन्तु जब आत्मा यात्रा करती है तब भक्तगण उत्सव मनाते हैं-जिसे मृत्यु महोत्सव कह दिया जाता है। मृत्यु महोत्सव ही महाविहार है, है वह यात्रा महाप्रयाण। भक्तों के भयभीत हृदय में इसी तरह के विचार आते थे और चले जाते थे। ठंड और बसंत के बाद ग्रीष्म ऋतु भी आ गई, नसीराबाद की धरती धर्म की भट्टी में पहले ही सोने की तरह तप चुकी थी, अत: उस पर ग्रीष्म का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा। गुरुवर के दर्शनार्थ अजमेर से उनके परम भक्त श्री भागचंद सोनी नसीराबाद पहुँचे। वह १३ फरवरी ७३ का दिवस था। गुरुवर की स्थिति देख कर सोनीजी ने एक दिन में तीन बार गुरुवर से चर्चा की, तब उन्हें संतोष हुआ। गुरुवर की मुक्त वाणी में उन्हें लगा कि स्वास्थ्य लाभ शीघ्र मिल जावेगा, अत: लौटते-लौटते उन्होंने गुरुवर से अजमेर पधारने की प्रार्थना की। ज्ञानमूर्ति मुस्कराने लगे भागचंद के भोलेपन पर, भक्ति प्रभावना पर, फिर बोले- “भागचंद आप किससे अनुरोध कर रहे हैं, मैं अब संघ में मुनि हूँ, आचार्य नहीं, आप आचार्य पू. विद्यासागरजी से चर्चा कीजिए।'' क्षण भर को भागचंदजी ठिठक गये, फिर उन्हें याद आया, हाँ, आचार्य तो पू. विद्यासागरजी हैं, मैं तो मोहवश यह त्रुटि कर बैठा। बाद में वे आचार्य विद्यासागरजी के पास पुन: गये और उनसे ससंघ अजमेर विहार' की प्रार्थना की। “संकोचश्री'' कहने का मतलब “आचार्यश्री'' तब भी भागचंद का भारी संकोच करते थे, अत: अधिक चर्चा न कर सके, मुस्कराकर बोले- “देखिये, क्या होता है ? जो होगा, वैसा निर्णय ले लूंगा।' श्री भागचंदजी संतोष की सांस लेकर लौट पड़े - नसीराबाद से। भागचंदजी सोनी एवं उन जैसे अनेक भक्तगण आचार्य ज्ञानसागरजी को पंचमकाल के आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य विद्यासागरजी को आचार्य समन्तभद्र मानते रहे हैं, जो आज भी पूर्ण रूपेण प्रासंगिक है। गुरुवर अस्वस्थ थे। आचार्य विद्यासागरजी उनकी वैयावृत्ति में लगे रहते, मगर धर्म से सम्बंधित समस्त कार्य व क्रियाओं के साथसाथ धार्मिक कार्यक्रमों पर पूरा ध्यान दे रहे थे। फरवरी माह में ही समाधिस्थ आचार्य श्री शिवसागरजी की पुण्य तिथि (फागुन वदी अमावस, दिन रविवार को) आचार्य विद्यासागरजी के सान्निध्य में मनाई गई। उस दिन पहले पं. चम्पालालजी श्रावकों की ओर से बोले थे, तो मुनि संघ की तरफ से ब्र. चिरंजीलाल औम स्वत: आचार्य विद्यासागरजी ने उद्बोधन दिया था, मगर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात थी कि समाधि को प्रस्तुत, क्षीणकाय, ज्ञानमूर्ति, आचार्य पू. ज्ञानसागरजी महाराज भी, विद्यासागरजी के अनुरोध पर, अपने मुनि-दीक्षा-गुरु आचार्य शिवसागरजी के विषय में धाराप्रवाहिक रूप में बोले और काँपती आवाज से कहा कि उन महान सन्त ने मुझे अज्ञान रूपी अंधकार से हटाकर ज्ञानरूपी उजास में ला दिया था, उन्होंने मुझे वह महान प्रशस्त पथ प्रदान किया था, जिस पर चल कर मैं यहाँ तक पहुँच चुका हूँ। गुरु गुण वर्णन करते हुए पू. ज्ञानसागरजी ने सम्पूर्ण श्रोताओं को मंत्रमुग्ध तो कर ही दिया था, बालाबाल जनों को सेवा मुग्ध करने में भी प्रभावक सिद्ध हुए थे। बीमारियाँ या रुग्ण काया सन्तों के कार्य में बाधक बनते हैं, पर सन्त उनसे घबड़ाते नहीं, अपनी धर्म-प्रणीत क्रियायें समय पर सम्पन्न करते चलते हैं। अत: नसीराबाद में हर माह कोई न कोई बड़ा, धार्मिक आयोजन हो ही जाता था। फरवरी माह गया तो मार्च माह आ गया। श्रीसंघ ने इस माह की झोली में भी एक कार्यक्रम डालकर उसे उपकृत कर दिया, २३ मार्च शुक्रवार (चैत्र कृष्ण चौथ) को प्रात:कालीन बेला में वयोवृद्ध तपस्वी, बालब्रह्मचारी मुनि, साक्षात दिवाकर पू. ज्ञानसागरजी महाराज ने जीर्ण कार्या में शक्ति का संचार कर केशलुञ्च प्रारंभ कर दिया। आचार्य विद्यासागरजी अपनी सुंदर बलिष्ठ अंगुलियों का उपयोग कर उनके कार्य में सहयोग करने लगे। मंदिर परिसर में भारी जन समूह इकटठा हुआ था उस रोज । समूह का हर व्यक्ति ज्ञानसागरजी की दृढ़ता देख कर आश्चर्य कर रहा था। हर कंठ उनके गुणगान करते हुए उनकी जयघोष कर रहा था। मुनि के तप को देख रहे थे लोग, मुनि की उम्र को समझ रहे। थे लोग और मुनि की काया निहार रहे थे लोग। सन् १९७३ में नसीराबाद के श्रावक जब, तप की ऊचाइयाँ देखने का सौभाग्य प्राप्त कर रहे थे, तब उधर मध्यप्रदेश के तीर्थ कुण्डलपुर में कमेटी के लोग नवनिर्मित मानस्तम्भ की ऊचाइयाँ निहार रहे थे। वहाँ हाल ही में मानस्तम्भ तैयार हुआ था, जिसकी प्रतिष्ठा की योजना बन रही थी। सर्वसम्मति से फरवरी ७४ में पंचकल्याणक किये जाने के समाचार अखबारों में प्रकाशित हो रहे थे। एक अखबार पर आचार्य विद्यासागरजी की नजर पड़ ही गई। सल्लेखना के उस पावनकाल में, कुछ दिवस ऐसे भी आये कि जब शारीरिक कमजोरी के कारण गुरुवर ज्ञानसागर अपने प्रिय भक्तोंश्रावकों को नित्य के प्रवचन नहीं सुना पा रहे थे। शरीर नि:शक्त था। आत्मा तेजयुक्त । श्रावक आते, दर्शन करते, लौट जाते। अपने प्रिय गुरु की वाणी का अमृत कर्ण-कुण्ड में न भर पाते। तब आचार्य विद्यासागरजी मे कार्यकर्ताओं को निर्देश दिये कि आगत श्रावकों को नित्य गुरुवर के वचन हम लोग चाहें तो उपलब्ध करा सकते हैं। गुरुवर ने अपने ग्रन्थों में सहस्रों सूत्र, अमर वाक्य, सूक्तियाँ गुम्फित किये हैं, प्रतिदिन उनका एक ‘‘विचार' मंदिर जी के सूचना पट पर खड़िया से लिखा जावे तो श्रावकगण पढ़ कर गद्-गद् तो होंगे ही, शास्त्र का लाभांश भी ले सकेंगे। कार्यकर्ताओं को प्रस्ताव बहुत अच्छा लगा, कल्याणकारी और सार्थक। अत: दूसरे दिन से क्रम बन गया | क्रम गुरुवर के “समाधि दिवस' तक चलाया गया बराबर सूचना पट्ट पर लिखने का कार्य शान्ति लाल पाटनी करते थे, आ. श्री के पयाम विश्वस्तरीय भक्तों में से एक पाटनीजी महाकवि ज्ञानसागरजी द्वारा रचित। हस्तलिखित पाण्डुलिपयाँ श्री शान्तिलालपाटनी नसीराबाद के संरक्षण में रहती थीं, आज भी हैं। जो जन मंदिरजी जाते वे सूचनापट पर गुरुवाणी अवश्य पढ़ते और रोमांचित होते। कई विद्वत जनों को तो भाव विह्वल होते देखा जाता था। “गुरु दर्शन” और “गुरु शिक्षा का वह श्रेष्ठ तरीका सम्पूर्ण श्रावक समूह को पसन्द आ गया था। गुरुवर आहार में किंचित् मात्रा में दुग्धरस लेते थे, किसी दिन आमरस मात्र । कहें साधना में प्रवृत्त रह कर, जीवन की डगर पर प्रभुमय श्वासोच्छवास कर रहे थे। अप्रैल के माह में मुनि पू. सुपार्श्वसागरजी, जो मूलरूप से मदनगंज किशनगढ़ निवासी थे, अंतिम दर्शन करने के लिये विहार कर नसीराबाद की ओर चल पड़े। वे भी वृद्ध थे, कुछ बीमारियाँ उनकी काया में भी निवास कर रही थीं। कुछ योग्य श्रावकों के साथ वे गुरुवर के समक्ष पहुँच गये । नमोऽस्तु के बाद अन्य समाचारों का आदान-प्रदान किया। वे हर चर्चा पर प्रज्ञा की छाप छोड़ रहे थे। पर शरीर दुर्बल हो चुका था। सुपार्श्वसागरजी ने अपनी व्याधियों की चर्चा भी कर डाली, फिर उन्होंने समाधिमरण की दीक्षा देने की प्रार्थना गुरुवर से की। आचार्य विद्यासागरजी की अनुमति के बाद पू. सुपार्श्वसागरजी को सल्लेखना व्रत प्रदान करने का आवश्वासन मिल गया। वे एक दिन अल्प आहार लेते थे और दूसरे दिन उपवास करते थे। उनकी साधना का क्रम भी नसीराबाद की धरती पर चलने लगा। कुछ ही दिन बाद; १५ मई को उन्हें हृदय में व्याधि बढ़ी। आचार्य विद्यासागर समीप ही थे। उन्होंने उनकी चेतना विदा होते देख ली थी, अत: तत्काल उन्हें समाधिमरण का व्रत प्रदान कर सल्लेखना दीक्षा दे दी। सुपार्श्वसागरज्जी ने दीक्षा पाकर अधरों से आभार में कुछ शब्द बुदबुदाये, पर कुछ समय बाद चेतना गवाँ बैठे। सांसें चलती रहीं संघ और श्रावकों ने उचित व्यवस्था और सेवा का क्रम बनाया, फिरभी १६ मई ७३ बुधवार को प्रातः ७ बजकर २५ मिनिट पर पू. सुपार्श्वसागरजी ने नश्वर संसार त्याग कर दिया।
  15. उनकी वाणी सुनकर जनता पू. विद्यासागरजी की ओर देखने लगी। वे नजरें नीचे किये थे और गम्भीरता से नीचे की ओर देखते रहे। फिर उन्होंने विद्यासागरजी को संकेत से बुलाया, वे गिरे मन से खड़े हुए, गुरुवर के पास आ गये। गुरुवर ने अपने उच्च काष्ठासन पर उन्हें बैठने का निर्देश दिया। वे बैठ गये। गुरुवर ने शास्त्रोक्त रीति से तुरन्त, उपस्थित पंडितों के सहयोग से, आचार्यपद देने तथा अपना आचार्यपद समाप्त करने की विधि सम्पन्न की, फिर आचार्य से मुनि बने ज्ञानसागरजी छोटे आसन पर बैठ गये। मान का ऐसा मर्दन समाज ने कभी न देखा था, न सुना था, जो पू. ज्ञानसागरजी ने करके दिखलाया था। पद का मोह नष्ट कर देने का ऐसा भाव भी कभी देखने-सुनने न मिला था। जनसमुदाय ज्ञानसागर और विद्यासागर के जयघोष कर रहा था। अनेक आँखों में आँसू उतर आये थे, अनेक कंठ अवरुद्ध हो गये थे। वक्तागण बोलने में अवरोध महसूस कर रहे थे, गले भर आये थे। छोटे (नीचे) आसन से पूज्य मुनि ज्ञानसागरजी ने बड़े (ऊँचे) आसन पर विराजित नवपदारूढ़ आचार्य विद्यासागरजी एवं मुनि ज्ञानसागरजी में नमोऽस्तु प्रति नमोऽस्तु हुआ। आ. विद्यासागर उच्चासन पर एवं अपने उपकारी गुरु को नीचे आसन पर बैठा देखकर आ. विद्यासागर की आँखें रोने को बेताब । चित्त खीजने को उतावला । मन क्रन्दन करने को बावला । जबकि ज्ञानसागरजी के चेहरे पर शांति थी, भार से बचे जाने का भाव, उत्तरदायित्व पूर्ण करने की संतुष्टि थी और नव निर्णायक के प्रति श्रद्धा थी। एक कार्य पूर्ण ही हुआ था कि परम मेधावी तपस्वी और उदासीन संत ज्ञानसागरजी ने हथेलियों के मध्य पिच्छिका सँभाले हुए, आ. विद्यासागरजी से प्रार्थना की-हे आचार्य ! मैं इस दुर्बल और जर्जर शरीर की सीमायें समझ चुका हूं, सो मुझे अपने निर्देशन में संल्लेखना व्रत प्रदान कीजिए। मैं आपके निर्यापकत्व में समाधिमरण की अभिलाषा करता हूँ। उनके हृदय से निकली आवाज का सत्य जनमानस पहिचान चुका था, अत: हर आँख दृश्य को देखकर डबडबा गई। सरल वैराग्य के साथ ज्ञानसागरजी का निस्पृहभाव एक-एक दर्शक की आँखों में सदा के लिये अँज गया उस दिन। वह कार्यक्रम तो पूर्ण हो गया, पर पूज्य आचार्य विद्यासागरजी का कार्यक्रम यहाँ से प्रारंभ हो गया था। आचार्य पद धारण कर उसके सच्चे निर्वाह का कार्यक्रम। नसीराबाद तपस्थली बन गया था। दो महान संतों की तप:भूमि। पूज्य विद्यासागरजी रोज सुबह से शाम और शाम से रात्रि पर्यन्त अपना समय निर्यापकत्व में दे रहे थे और पूज्य ज्ञानसागरजी महाराज अपना समय शरीर से परे होने में दे रहे थे। धान को हटाकर अक्षत प्राप्त करने वाले ज्ञानवान किसान की तरह वे नित्य-नित्य अभ्यास कर रहे थे। अपने देह रूपी शीपी मुक्ता को स्वातंत्र्य देने के लिये। दोनों सन्त नहीं जानते थे कि जीवन की विविध तपस्याओं की तरह संल्लेखना की यह तपस्या भी सु दीर्घकाल तक करनी होगी। जो समाधि के लिए उपस्थित थे, वे तप में ही थे और जो समाधि की दीक्षा देकर उसका निर्वाह करा रहे थे, वे महातप में से होकर गुजर रहे थे - हर पल, हर दिन। गुरुवर आचार्य ज्ञानसागरजी जो अब आचार्य नहीं, मुनि ज्ञानसागरजी थे, आ. विद्यासागरजी से पूछ-पूछ कर प्रतिज्ञाये धारण करते चल रहे थे। अभी दो-चार दिन ही बीते थे कि गुरुवर (ज्ञानसागर जी) ने चारों प्रकार के आहारों में प्रमुख माने जानेवाले अन्न का त्याग कर दिया। त्यागोपरान्त आत्मस्वरूप में विचरण करते रहते, किसी से कोई अनावश्यक वार्ता नहीं करते, तब पू. विद्यासागरजी को लगा कि शुद्धोपयोग पर एक हजार ग्रन्थ लिखने के बाद भी वह अवस्था लोग देख समझ नहीं पाते, वास्तविक शुद्धोपयोग की अवस्था तो यह है जो पू. गुरुवर पल-पल जी कर बतला रहे हैं। तभी १० दिसम्बर ७२ को नसीराबाद की पावन धरती पर पूज्य आचार्य विमलसागरजी ससंघ उपस्थित हुए और पू. ज्ञानसागरजी की समाधि क्रिया के दर्शन किये। बहुत देर तक वे ज्ञानसागरजी के समीप बैठे रहे। वार्ता होती रही। दो सन्त जीवन के बसंत की सही अवस्था पर मंत्रमुग्ध थे। शाम को चार बजे, पू. विमलसागरजी के साथ आये, वयोवृद्ध मुनि पू. सन्मतिसागर जी ने भी पू. ज्ञानसागरजी की चरित चर्या का अवलोकन किया और भारी संतोष जाहिर किया। बाद में बोले- मैं तो पू. ज्ञानसागरजी की सेवा करने आया हूँ। वे वर्षों पूर्व मेरे शिक्षा गुरु रहे हैं। जी भर कर मुझे ज्ञानदान देते रहे हैं। बाद में, पू. विमलसागरजी का संघ शिखरजी यात्रा हेतु वहाँ से विहार कर गया। आचार्य विमलसागरजी का अंतिम मिलन का सौभाग्य नसीराबाद को मिला। विमलज्ञान का मिलन। सन्मति विद्या का मिलन विमल विद्या का मिलन महान संतों का मिलन। जब यह संघ शिखरजी को विहार कर रहा था, तब तत्कालीन संत मुनि सुपार्श्वसागर जी शिखरजी में वंदना का लाभ ले रहे थे। १५ दिसम्बर ७२ को वे शिखरजी से विहार कर चुके थे। सन्त, जो शिखरजी की यात्रा पर नहीं थे, वे थे गुरुवर ज्ञानसागर जी, परन्तु वे तब ‘शिखर यात्रा में प्रवृत्त थे। वे थे शिखर की ओर। सप्ताह से माह और माह से दो माह, तीन माह निकल गये। माह बीतते ही जा रहे थे । सम्पूर्ण नसीराबाद के साथ-साथ अजमेर, ब्यावर, जयपुर आदि शहरों के श्रावक और विद्वज्जन उनके दर्शन करने का क्रम बनाये हुए थे। कोई सपरिवार आ रहा है, कोई लौट रहा है। पूज्य विद्यासागरजी अपने प्राण प्यारे गुरु के समीप बैठे-बैठे उनका चेहरा बाँचने की कोशिश करते रहते- उन्हें चेहरे पर लिखा दीखता कि ज्ञानसागरजी सरल-स्वभावी तेजस्वी-सन्त हैं, वे चेहरा पर पढ़ते कि ये तो जीवन भर नवनीत की तरह कोमल रहे हैं, उनकी वाणी की मिठास कानों में अमृत घोलती रही है, मगर वे साधना में कठोर रहे हैं। दृढ़ निश्चयी। मोहाशा विरक्त । परिपूर्ण अपरिग्रही। परदुख कातर । सहिष्णुता की साकार मूर्ति । भद्र परिणामी। विद्या के पारगामी पथिक । ज्ञान के संरक्षक। आगम के टीकाकार । कवि हृदय । वचनपटु और प्रवचनपटु । समता के आगार। धैर्य के हिमालय । विनय के मानसरोवर। उनके चेहरे पर और भी बहुत से गुण लिखे थे, जिन्हें वे (विद्यासागर) रोज बाँचते रहते थे। एक दिन चेहरा भर नहीं, पूरे शरीर को बाँचने का प्रयास किया तो पढ़ने में आया- वृद्ध का गौरवर्ण इस उम्र में भी सोने की तरह दमक रहा है। चौड़ा ललाट, २४ ग्रन्थों के आधार भूत होने की सूचना दे रहा है। नयनों की गहराई और चमक आँखों पर चढ़ा हुआ चश्मा (ऐनक) कभी भी नहीं ढाँक पाया। उनकी गंभीरता तो ऐनक के आर-पार तक है। कद ठिगना है, पर व्यक्तित्व विराट है। उनके जर्जर शरीर की सामान्य लम्बाई, चौड़ाई और शक्ति को उनके आत्मचिन्तन ने सहस्रों गुना बढ़ा दिया है। वे हिमालय की तरह अडिग तपस्वी बन कर युग के समक्ष आये हैं। हित, मित, प्रिय वाणी का स्वामित्व एवं शांत मुख मुद्रा धारण करनेवाले जोगी हैं। सध कर और साध कर धरती पर चरण धरनेवाला उनका आचरण कौन भूल सकता है, जिनका मार्ग संयम के धरातल से होकर जाता है। अष्टगे गोत्र के उदाहरण बन कर धरती पर महान यति कहलाने वाले सन्त विद्यासागरजी खण्डेलवाल समाज के छाबड़ा गोत्र के महासन्त ज्ञानसागरजी को जैसे अपनी गोद में सम्भाले हों। वे उनका चेहरा, उसके बाद देह और फिर उनका जीवन इतिहास पढ़ते हुए बुदबुदाते हैंखण्डेलवालों की यह ज्योति दिगम्बर जैन समाज के इतिहास के दीपक में सदा उजास भरती रहेगी। ठंड की ऋतु सम्पूर्ण नसीराबाद की धरती को ठंडक पहुँचा कर विदा ले चुकी थी। उसके बाद बसंत की बयार संत के मन में प्रवेश पाने में असमर्थ हो चुकी थी। जिस हृदय में तप त्याग के पुष्प बारहों माह खिल कर सत्-पथ के रंग बिखेरते हों, वहाँ माह दो माह रहनेवाले बसंत को कहाँ ठौर ?
  16. नसीराबाद का चातुर्मास जीवन का अंतिम चातुर्मास है, यह बात आचार्य ज्ञानसागरजी जान चुके थे, अत: वे तदनुसार मुनि विद्यासागर को तैयार कर रहे थे। मुनि को तैयार करने का अर्थ है कि बगैर आत्मपीड़ा पहुँचाये, अनुकूल विचारों पर चलने की मानसिकता शिष्य में निर्मित कर देना। सन् १९७२ के वर्षायोग के बाद आगामी किसी भी वर्षायोग में पू. मुनि विद्यासागरजी को अपने आत्मस्वामी गुरु पूज्य ज्ञानसागरजी का संयोग नहीं मिलेगा, वे यह नहीं जानते थे, परन्तु उनके अस्वास्थ्य से मुन्योचित चिन्ता अवश्य करते रहते थे। ज्ञानसागरजी को दमा के साथसाथ गठियावात के कष्ट तीव्रता से सता रहे थे। वे अपनी जीर्ण काया को रोज-रोज रोगों से लुटता-पिटता देख रहे थे। शरीर में अत्यधिक पीड़ा होने लगी थी। यों कष्ट वे सह रहे थे, पर वह श्रावकों से देखा नहीं जा रहा था। उनके हर जोड़ में दर्द समा गया था, घुटने में, टिहुनी में, कमर में, शरीर के हर जोड़ में। जोड़ों की हर गठान में पीड़ा ही पीड़ा थी। उम्र ८१ वर्ष की ओर कदम धर रही थी, परन्तु देह एक-एक कदम चलने में असमर्थता की मौन घोषणा ज्ञापित करती रहती थी। शिष्योत्तम विद्यासागरजी अपने वयोवृद्ध-ज्ञानवृद्ध-तपवृद्ध गुरु की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। छाया की तरह हरक्षण उन्हीं के पास बने रहते थे। उनकी पीड़ा हरने का प्रयास करते, काश ! उनके वश में होता। कभी पैर सहलाते, कभी सिर दबाते, कभी पीठ पर हाथ फेरते। गुरुवर उठते तो विद्यासागरजी स्वतः पकड़ कर उठाते, लेटते तो अपने हाथों लिटाते । जो जन देख रहे थे- सेवा का भाव और सेवा का क्रम, वे कहने लगते कि एक माता ही अपने शिशु की ऐसी सेवा कर सकती है। श्रेष्ठिवर्ग देखता तो कहते दस लाख रुपये देने पर भी कोई ऐसी आत्मीयता पूर्ण सेवा नहीं प्राप्त कर सकता, जो गुरुवर अपने प्रिय शिष्य से पा रहे हैं। सेवा भी एक दिन या एक सप्ताह नहीं, कई माहों से चल रही थी और आगे काफी समय तक चली। चातुर्मास पूर्ण होने को था। श्रावकों की दृष्टि विद्यासागरजी के सेवाभाव पर हर्षित थी, जबकि पू. विद्यासागरजी कुछ पृथक दृष्टिकोण रखते थे। वे सोचते थे कि इन महान दानी, महान उपकारी गुरुवर ज्ञानसागरजी ने पिछले छह वर्षों में मुझे जो कुछ भी अवदान दिया है। उसके समक्ष मेरे द्वारा की गई टहल, सेवा, गुरुभक्ति आदि कुछ मायने नहीं रखती। मैं कभी उनके उपकार से उऋण नहीं हो सकता, चाहे अपने देहात्म को ही क्यों न होम डालूँ। योग्य शिष्य के योग्य विचारों के समक्ष कोई तर्क उचित नहीं था। वे जो सोच रहे थे, वह यथार्थ के धरातल पर था। श्रावक जो सोच रहे थे- वह भावुकता के धरातल पर था। मगर सत्य दोनों सोचों में था। चातुर्मास के बाद विहार की स्थिति बनती है, पर नसीराबाद के चार्तुमास की विशेष परिस्थितियों के कारण निष्ठापना के बाद भी विहार करने की इजाजत प्रकृति नहीं प्रदान कर रही थी। तब गुरुवर ने शरीर ढोने के बदले शरीर त्यागना ही उचित समझा। मगर समस्या यह थी उनके सामने कि नसीराबाद के आस-पास किसी नगर में कोई आचार्य उस समय अवस्थित नहीं थे, जो थे, वे सैकड़ों मील दूर थे, जहाँ पैदल चल कर पहुँचना उनके दुर्बल शरीर के वश में नहीं था। गुरुवर सोच रहे थे कि जैनागम के अनुकूल, आचार्य भगवन्त से मरण-समाधि की दीक्षा प्राप्त करूं और शरीर के आश्रय का आधार छाडूं। इस बीच उनका चिन्तन सही पात्र के पास पहुँच गया, कुछ क्षणों के बाद ही। उन्होंने विचार किया कि प्रिय शिष्य विद्यासागर को गत पाँच-छह वर्षों में पारंगत कर दिया है। वह अब एक परमयोग्य दिगम्बर मुनि है। आगम निष्णात मुनि । मेरे बाद वह आचार्य होंगे ही, अत: क्यों न मैं स्वत: अपने अंतिम पाठ के रूप में वह पाठ भी उन्हें प्रदान करूं और फिर उन्हीं का होकर समाधि के लिये प्रवृत्त होऊँ। पूज्य ज्ञानसागरजी को अपना सोच सौ प्रतिशत उचित लगा। उन्हें लगा कि कई वर्षों से गुरुताओं का भार सिर पर धर कर चल रहा हूँ, देखें कि अब यह मन लघुता धारण करने में भी आगे बढ़ कर साथ देता है या नहीं। विद्यासागर की अंतिम परीक्षा होगी आचार्यपद धारण करने में और मेरी अंतिम परीक्षा होगी आचार्यपद त्याग करने में। मैं जो एक आचार्य हूँ, अपने ही शिष्य का निर्देशन पाऊँगा क्या ? इस परीक्षा में भी मुझे उत्तीर्ण होना चाहिए। बड़े से लघु बनने की परीक्षा । सागर से बूंद हो जाने की परीक्षा। दो तीन दिनों तक वयोवृद्ध ज्ञानसागरजी का विचार मंथन मन ही मन चलता रहा, फिर एक दिन शिष्य से बोले- “तू आचार्यपद के लायक हो गया है।'' वाक्य सुनकर मुनि विद्यासागर चकित हो गये, फिर बोलेअभी मुझे आचार्य पद नहीं चाहिए, अभी आपकी सेवा करने में धर्म का जो श्रेष्ठ आनन्द पा रहा हूँ, वह नहीं छोड़ना चाहता। गुरुवर बोले - आचार्य बनने के बाद भी तू सेवा का धर्म पा सकता है। - पर मुझे ऐसे ही जब वह मिल रहा है तो विकल्प में क्यों पहूँ ? - काहे का विकल्प, वह तो मेरा दायित्व है। इस पथ पर चलने की एक परीक्षा। - गुरुदेव, अभी परीक्षा का समय नहीं है, पहले आप स्वस्थ हो जाइये। - तू ठीक कहता है, मैं स्व में स्थिर होने के लिये ही तुम्हें अपने संघ का आचार्य मनोनीत करना चाहता हूँ। मेरी अभिलाषा है कि किसी आचार्य भगवन्त से संल्लेखना व्रत प्राप्त कर अपनी यात्रा पूर्ण करूं। - गुरुदेव, आपसे अच्छे आचार्य भगवन्त कहाँ मिलेंगे ? - मेरे समीप ही। विद्यासागर पू. ज्ञानसागर की बातों से शिष्योचित लाज से भीग गये, कहें लजिया गये। थोड़ी देर मौन समाया रहा कक्ष में। फिर ज्ञानसागरजी पुन: कुछ बताने लगे। विद्यासागरजी ने उनके चरण पकड़ कर उन्हें याद दिलाया- गुरुदेव वार्ता का समय समाप्त हो गया, अब तो प्रतिक्रमण का समय है। - वही तो कर रहा हूँ। - नहीं गुरुदेव, भाव आपके अवश्य प्रतिक्रमण के हैं, पर शब्द नहीं हैं। शब्द तो याचना से भरे-भरे हैं। आप याचना न कीजिये, प्रतिक्रमण कीजिए और मुझे भी प्रतिक्रमण का अवसर प्रदान कीजिए। गुणवान शिष्य की वार्ता से पू. ज्ञानसागरजी अपनी काया की सभी पीड़ायें भूले हुए थे। वार्ता बन्द हुई, पीड़ायें देह में रेंगने लगीं। गुरु के आगे शिष्य की बात मानी जावे- जरूरी नहीं है। अत: गुरुवर ने दूसरे दिन ही नगर के समाज प्रमुखों को बुलाकर अपने मन का संकल्प बतला दिया और निर्देश दिये कि आचार्यपद त्याग का एक सादा कार्यक्रम २२ नवम्बर ७२ को रखें। गुरु की आज्ञा के समक्ष पंचों को कर्तव्य करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रह जाता। सम्पूर्ण नसीराबाद में घंटे भर में ही समाचार फैल गया“आचार्यश्री पद त्याग रहे हैं। दूसरे दिन समाचार अजमेर और जयपुर सहित अनेक नगरों तक जा पहुँचा। अनेक नगरों के भक्त पहले से ही नसीराबाद में आकर उनके दर्शनलाभ का पुण्य ले रहे थे, बाद में जिन्हें समाचार समय पर मिलता गया, वे भी आते गये। २२ नवम्बर १९७२ का दिन नसीराबाद के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण दिवस बननेवाला था। समाज के बालाबाल नरनारी कार्यक्रम स्थल पर उपस्थित थे। पंडितगण विधि-विधान के लिये द्रव्य सहित स्थान ले चुके थे। परमपूज्य आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज एक ऊँचे सिंहासन पर विराजमान थे। समीप ही कुछ छोटे (नीचे) काष्ठासन पर पू. मुनि विद्यासागर जी अवस्थित थे, उन्हीं के समीप अन्य साधुगण। समाज के मंत्री महोदय ने श्रोताओं के समक्ष विषय का खुलासा किया। तब तक पूज्य ज्ञानसागर जी स्वमेव मुखरित हो पड़े, वे अत्यंत सहजता से बोले- ‘‘बंधुओ ! यह शरीर नश्वर तो है ही, अब पूर्ण जर्जर हो चुका है, धर्म कार्य ऐसे दुर्बल साधन से कैसे सम्पन्न किये जा सकते हैं, यह बेचारा अब आगे साथ देने में असमर्थता जाहिर करने लगा है, अत: मैं आचार्यपद छोड़कर आत्मकल्याण करना चाहता हूँ। जैनागम में ऐसा करना सर्वथा उचित ब्बतलाया गया है, अतः मैं अभी, इस क्षण, आचार्यपद से श्री विद्यासागरजी मुनि को आज्ञा देता हूँ कि वे यह आचार्यपद स्वीकार करें ताकि मैं अपना आचार्यपद समाप्त कर सकूँ।
  17. विद्यासागरजी ने मदनगंज विहार के दौरान, बाद में, गुरु आज्ञा से, अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का अवसर के.डी. जैन विद्यालय मदनगंज के तत्कालीन प्रिन्सिपल श्री ओमप्रकाश जैन से भी प्राप्त किया था तथा प्राचार्य निहालचन्द जैन अजमेर ने भी अंग्रेजी भाषा का अध्यापन कराया। जब आचार्य ज्ञानसागरजी अपने शिष्य को शास्त्रों का अध्ययन विभिन्न जैन विद्वानों से कराते थे, तब वे स्वत: बीच-बीच में आकर देखते और सुनते थे कि विद्वान गण ठीक-ठीक पढ़ा रहे हैं या नहीं। तनिक-सी भी कसर रह जाती तो ज्ञानसागर जी टोक दिया करते थे। कहते थे कि यह ऐसा नहीं, वैसा है। आदि आदि। उनकी यह चिन्ता दोनों को, पढ़नेवाले और पढ़ानेवाले को सतर्क बनाये रहती थी। त्यागी-व्रतियों से वार्ता करते हुए, कभी-कभी आचार्य ज्ञानसागरजी बतलाते थे कि साधु महाव्रती होते हैं, अतः उन्हें ‘स्वरज्ञान' की जानकारी भी रहती है। जिन्हें नहीं होती, वे जानने-सीखने का प्रयास अवश्य करते हैं। उनकी इस तरह की वार्ता से लोगों ने विश्वास कर लिया कि आचार्य श्री को स्वर-ज्ञान है। मंदिरों में तीर्थंकर की मूर्ति के समय वे पूर्व में ही टोक देते थे कि श्रावकगण प्राकृत जल से भगवान का अभिषेक करें। धीरे-धीरे अनेक स्थानों पर यह परम्परा चालू हो गई। वे अपने प्रवचनों में भी प्रेरणा देते रहते थे और कहते कि समय पर देव-दर्शन और अभिषेक की वृत्ति और समय पर शुद्ध तथा सादा भोजन करने की आदत हर श्रावक को बनाना चाहिए। सन् १९७१ का पीड़ाओं से भरा हुआ समय चला गया, परन्तु पीड़ायें साथ नहीं ले गया, उन्हें पूज्य ज्ञानसागरजी के समीप छोड़ गया। वर्ष १९७२ प्रारम्भ हो चुका था। संघ विहार करते हुए अनेक छोटे-बड़े नगरों को लाभ बाँटता हुआ अजमेर की ओर था। इस कथा का लेखन चल ही रहा था, कि पू. सुधासागरजी के संकेत पर एक धर्मप्रेमी सज्जन से मुझे, सन् १९७२ में लिखा गया एक पुराना पोस्टकार्ड देखने का अवसर मिला, जो तब १०९ कश्मीरीगंज, वाराणसी से पं अमृत लाल जी जैन ने तत्कालीन जैन गजट के प्रबंध सम्पादक पं. श्री अभयकुमार जैन ‘अभय' को लिखा था। पत्र ने स्पष्ट किया कि अप्रैल ७२ में आचार्य श्रेष्ठ पू. ज्ञानसागरजी अजमेर में अवस्थित थे और जयोदय महाकाव्य की प्रकाशन योजना बनारस से प्रारंभ हो चुकी थी। पं. अभयकुमार ने अजमेर से जयोदय का प्रथम मुद्रित फार्म (कहें प्रथम १६ पृष्ठ) और अपना पत्र, अमृतलालजी (बनारस) को लौटाया था। जिसे वे श्री पं. फागुल्लजी के पास लेकर गये थे और उनसे कहा था कि पूर्व निर्देशानुसार ‘टाइप ठीक -ठीक लगे होवें तो अशुद्धियाँ हटा दीजिए और वांछित कागज खरीद लीजिए। बाद में, वे वहीं, बनारस के अन्य मुहल्ले में निवास कर रहे श्री पं. बेजापुरकर से भी मिले और उन्हें संदेश दिया था कि वे जयोदय के सम्पादन और पूफ संशोधन में पूर्ण सावधानी बरतेंगे। उस नन्हें से कार्ड में पं. अमृतलाल आगे लिखते हैं, (एक मायने में पं. अभयकुमारजी को स्पष्ट करते हैं) कि यह (जयोदय) उच्च कोटि का महाकाव्य है, यदि इसके मुद्रण में पूर्ण सावधानी रखी गई तो उसका आकर्षण शतगुणित हो जायेगा। इस काल में जिसको जो उत्तरदायित्व सौंपा जाता था उसका प्राणपण से निर्वाह किया जाता था। इसका उदाहरण भी कार्ड में उपलब्ध है, जिसमें अमृतलालजी पं. अभयकुमार को आगे लिखते हैं- “फागुल्ल जी से यह भी कह जाऊँगा कि वे आर्डर किये हुए फार्म को मशीन पर चढ़ाने से पहले, मुझे दिखला दिया करें। पत्र के अगले पैराग्राफ में वे लिखते हैं- “पूज्य श्री आचार्यजी के चरणों में मेरी ओर से शत-शत वन्दन ।' समाज और साहित्य के कार्यों से जुड़े, अमृतलालजी को इतने से संतोष नहीं हुआ, अत: वे पं. अभयकुमार को आगे सम्बोधते हैं- “बैजापुरकर से पुन: एक बार कहूँगा कि वे प्रकाशन में व्यवधान न आने दें। आचार्यश्री के सामने ही उनकी एक कृति प्रकाश में आ जाये तो मुझे हर्ष होगा।' उक्त शब्दों से यह भी स्पष्ट होता है कि देश के अनेक विद्वानगण पू. आचार्य ज्ञानसागरजी की उम्र और शारीरिक क्षीणता से चिन्तित होने लग गये थे। पं. अमृतलालजी ने जयोदय का अध्ययन अच्छी तरह किया था, अत: उनके मन में कुछ विशेष मूल्यों ने जन्म ले लिया था, फलतः वे कार्ड में जगह समाप्त हो जाने के बाद उसके बायें तरफ की, तनकसी जगह में दो लघु पंक्तियों का एक विशाल विचार लिख देते हैं। प्रकाशन के पश्चात् यह महाकाव्य सरकार के द्वारा भी पुरस्कृत होगा।' जयोदय के प्रति एक मनीषी का १९७२ में उक्त विचार अपने आप में एक महान पुरस्कार है। मगर वे यह भी जानते थे कि निष्पृह संत पू. ज्ञानसागरजी को पुरस्कारों, यशों की वीथियों और चर्चाओं की दीपमालाओं से कुछ लेना नहीं है। विद्वानजन की लेखनी में जादू होता है, वे पोस्टकार्ड को एक | पूरी पुस्तक बना देने की महारत रखते हैं। उन्हीं में से एक थे हमारे ये कार्ड-लेखक पं. अमृतलालजी। पोस्टकार्ड जब पीछे के भाग (खड़े व आड़े रूप) में पूरा-पूरा भर गया, ठीक से हस्ताक्षर करने के लिये भी जगह नहीं बची, तब वे पुन: कार्ड के मुख पृष्ठ की ओर जहाँ पहले ही लिख कर भर चुके हैं, नजर दौड़ाते हैं और यहाँ भी वही करते हैं जो पिछले पृष्ठ पर किया था, कि कार्ड की बायीं तरफ की बची हुई सकरीसी जगह में दो पंक्तियाँ फिर डाल देते है। इस बार वे पं. अभयकुमारजी एवं उनके अखबार (जैन गजट) के लिये लिखते हैं – “आपका अखबार सदा समय पर प्राप्त हो जाता है, एतदर्थ कोटिशः धन्यवाद”। लिख चुकने के बाद पत्र में इतनी जगह नहीं थी कि हस्ताक्षरकर्ता का पूरा नाम आ सके, अत: पं. अमृतलाल बची हुई जगह में अ.ला. लिखकर संतुष्ट हो जाते हैं। वह पत्र कहता है कि पत्र लिखकर, पं. अमृतलाल पत्र डालने (पोस्ट करने) नहीं गये, बल्कि श्री फागुल्लजी से मिलने चले गये और उन्हें जो संदेश देने थे, दे आये। वे कितनी दूर रहते थे, प्रश्न यह नहीं था, प्रश्न था पत्र ‘पूर्ण’ कर देने का। फागुल्लजी के यहाँ से लौट कर श्री अमृतलाल जी ने पुन: वह पत्र उठाया जिसमें खड़ा और आड़ा लिख कर पूरा-पूरा स्थान अपने कब्जे में किया जा चुका था। मगर इससे क्या होता है, अभी तो पंडित जी को फागुल्लजी से मिलने की बात लिखनी थी, अतः वे पत्र को उठा कर गौर से देखने लगे कि खाली जगह कहाँ है? तब तक उनकी दृष्टि कार्ड के ऊपर वाले हिस्से पर गड़ गई, जहाँ से उन्होंने कार्ड पर लिखना शुरू किया था। भला वह जगह व्यर्थ क्यों जावे? पत्र रोज-रोज तो लिखा नहीं जाता और फिर उसका मूल्य भी इकट्ठा दस पैसा है। पंडितजी ने कार्ड को टेबल पर ऐसा घुमाया कि उसका शीर्षभाग नीचे की ओर हो गया। कहें कार्ड की दशा और दिशा दोनों बदल गई। बची हुई तनिक-सी जगह में पंडित जी लिखते हैं- “पत्र लिखने के बाद फागुल्लजी से मिल आया। वे पूरा कागज खरीद चुके हैं। जो अशुद्धियाँ आपने व हीरालाजी ने भेजी (बतलायी) हैं, वे सब हटा देंगे। तब (१९७२) कार्ड की कीमत दस पैसा थी। पर विद्वान जन उससे दस हजार का काम निकाल लेने में सिद्धहस्थ थे। एक प्रसंग एक ओर आचार्य ज्ञानसागरजी की तत्कालीन स्थिति स्पष्ट करता है तो दूसरी ओर उनका कार्य कर रहे विद्वानों की तत्परता की कहानी कहता है। लोग किस गम्भीरता से जुड़े थे, किस उच्च मानसिकता से कार्य करते थे और कितने कम व्यय में कर देते थे- के उदाहरण भी देता है उक्त ११ अप्रैल ७२ को लिखा गया एक कार्ड। आचार्य ज्ञानसागर के भक्त के द्वारा लिखित कार्ड। उक्त २० अक्टूबर ७२ को वहाँ उपस्थित समस्त विद्वज्जनों एवं सरसेठ भागचन्द जी सोनी आदि समाज सेवियों ने एक मतेन परमपूज्य आचार्यश्री ज्ञानसागरजी को चारित्र चक्रवर्ती” के अलंकरण से विभूषित किया। हजारों लोगों का समूह वाह-वाह कर उठा। जिन्होंने यह योजना बनाई थी उन समस्त कार्यकर्ताओं को जन समुदाय ने हार्दिक धन्यवाद दिया।
  18. पर ज्ञानसागरजी समतभाव से बैठे रहे, किसी पर नाराजगी नहीं बतलाई। श्रावकों को दुखी देख कर समझाने लगे- इस घटना में आपकी कोई त्रुटि नहीं है। यह जो हुआ, मेरे कर्मों के अनुसार हुआ है। आप दुखी न हों, चिन्ता न करें। भक्ति और श्रद्धा के चलते ऐसे क्षणों का उपस्थित होना कोई बन्ध का कारण नहीं है। आपकी वत्सलता के समक्ष ऐसी लघु घटनाओं पर सन्त ध्यान नहीं देते। आप जाइये और अपने कार्य उत्साह से कीजिए।श्रावक चले गये, पर वे अपना दुख तभी कम कर सके, जब बाद के दिनों में उन्हें निर्विघ्न आहार देने का सुयोग मिल गया। सन् १९७० में एक बार पू. मुनि ज्ञानसागरजी ससंघ दाँता पधारे थे, तब वह उनका पाँचवाँ प्रवास था, उस समय उनके साथ पू. मुनि विद्यासागरजी भी थे। श्रावक बतलाते हैं कि वहाँ पं. इंद्रमणि शर्मा पू. ज्ञानसागरजी के परिचय में आये। वे हिन्दी के अच्छे ज्ञाता थे, तब ज्ञानसागरजी ने उनसे कहा था कि वे संघस्थ साधु विद्यासागरजी को हिन्दी पढ़ायें। संघ करीब ढाई माह तक दाँता में रुका और अपने सत्लक्ष्य की पूर्ति की। एक मायने में सन् १९७० का आगमन पीड़ाओं का आगमन था। शारीरिक पीड़ाओं का। पीड़ायें तो पहले भी रहती थीं आचार्यवर्य की पावन काया में, पर सन् १९७० से उन्होंने जैसे सिर उठा लिया हो, बीड़ा उठा लिया हो, कष्ट को बढ़ाने का। आचार्यश्री का शरीर, जर्जर होता जा रहा था और पीड़ायें भी जवान। भला हो, कि जिनवाणी भक्त पू. विद्यासागर जी छाया की तरह गुरुवर के आस-पास ही बने रहते थे। श्रावकों के कई माह से चल रहे अनुरोधों पर दया करते हुए गुरुवर ने सन् १९७१ में, वर्षायोग की स्थापना मदनगंज-किशनगढ़ में की और श्रावकों के साथ-साथ अपने संघस्थ शिष्यों के लिये ज्ञान का प्रशस्त पथ तो बतलाया ही, सभी को धर्म की राह पर जीवन जीने की कला भी प्रदान की। सीकर निवासी श्री धर्मचंद जैन, प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी, भारत के पूर्वी प्रान्त से चलकर, वर्षायोग का लाभ लेने मदनगंज पहुँच गये थे। इस बार उनके साथ उनकी माताजी तो थी ही, धर्मपत्नी भी थीं। वृद्धावस्था और स्वास्थ्य की दुर्बलता के कारण गुरुवर सीमित स्थानों पर विहार क्षेत्र बनाये रहे। जयपुर, लाडनूं, सीकर, फुलेरा, नसीराबाद, अजमेर, किशनगंज-मदनगंज, ब्यावर, दादिया, मोजमाबाद आदि नगरों, शहरों, बस्तियों के मंदिरों, धर्मशालाओं, नसियों के पवित्रकक्ष इसकी साक्षी देते हैं। दुबले-पतले होते-होते पू. ज्ञानसागरजी इतने अधिक ‘दुबरे हो चुके थे इस सन् तक कि जब वे डोरीवाला चश्मा कान पर चढ़ा कर लिखने-पढ़ने बैठते तो बच्चे क्या, बुजुर्ग तक कह पड़ते- ये तो बिलकुल गाँधीबाबा जैसे दिखते हैं। उनकी छवि सब की आँखों में समाई रहती थी। सब उन्हें एक नजर देख लेने आते थे, चर्चा करना सबके वश की बात नहीं थी। यों जो जन साहस करते, उन्हें अवश्य ही अवसर मिल जाता था। सन्त जीवनी का लेखन कार्य गति चाह रहा था कि तभी एक पत्र श्री मदनलाल जैन छाबड़ा मदनगंज-किशनगढ़ का मिला, जिससे ज्ञात हुआ कि वे मदनगंज के तीन ऐसे श्रावकों से मिल कर चर्चा कर सके हैं जो आचार्य ज्ञानसागर के भक्त हैं। उनमें से एक हैं श्री चेतन प्रसाद लुहाड़िया, दूसरी हैं श्री रतनचंद चूड़ीवालों की माताजी श्रीमती जतनी देवी पाटोदी और तीसरे हैं श्री चाँदमल झांझरी। तीनों से वार्ता के पश्चात् जो सूत्र संदर्भ श्री मदनलाल पा सके वे सामान्य से अधिक हैं, उन्हें कथा में गूंथने के बजाय, लेखत्व-भाव से स्पष्ट करना उचित मानता हूँ, वह यह कि - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी सदा दुबले-पतले ही रहे। वे दिन भर लिखते रहते थे। इतने सरल थे कि २-५ श्रावक मिलकर उनके पास बैठते और प्रवचन करने का अनुरोध करते तो वे किसी भी समय प्रवचन देने में अवरोध महसूस नहीं करते थे। अपने मनोविनोद की दृष्टि से उनका यह कार्य उन्हें और श्रावकों को प्रसन्नता का प्रसाद अवश्य प्रदान कर जाता था। आहार की मात्रा कम लेते थे। मुश्किल से ५० ग्राम अन्न पेट में पहुँच पाता था। कई बार तो अँगूठे पर जितना दलिया, आता, मात्र उतना लेकर दूध पी लेते थे। संत-चित्त का सारल्या समझने के लिये श्री चेतन प्रसाद लुहाड़िया का यह प्रसंग कभी नहीं भुलाया जा सकता- वे एक बार आचार्य श्री के आहारों के समय उनके पीछे-पीछे चल रहे थे - धोती, कमीज और कोट पहिने थे। आचार्यश्री ३-४ स्थानों तक गये, किन्तु पड़गाहने के लिय वहाँ महिलायें ही खडी दीखीं। साथ में पुरुष नहीं थे, अत: वे बढ़ते जा रहे थे। चेतनजी उन की पहेली का समाधान जुटाने की सोच रहे थे, पर कुछ कह नहीं पा रहे थे। एक स्थल पर ज्यों ही चेतनजी ने पुनः मात्र महिलाओं को पड़गाते देखा, वे दौड़ कर उनके पास गये, शीघ्रता से शुद्ध कपड़े पहनकर स्वत: महिलाओं के साथ पड़गाहने खड़े हो गये। आचार्य श्री जब वहाँ पहुँचे तो उनकी विधि मिल गई, वे रुक गये। चेतनजी ने सम्पूर्ण भक्ति से महिलाओं के साथ उन्हें पड़गाहा। चेतनजी उन्हें भोजनशाला में ले गये, उच्चासन पर विराजमान कराया, पूजा की और निर्विघ्न आहार भी दिये। कहने का तात्पर्य यह कि आचार्यश्री का रुका रहना उनकी सरलता की महान पहचान देता है। वैसे स्वभावी संत अब विरले ही देखने मिलते हैं। आचार्य श्री आहारों के समय रोज कतिपय श्रावकों के चौकों तक अवश्य जाते थे, परंतु विधि एक ही श्रावक के यहाँ मिलती थी, धीरे-धीरे सात दिन निकल गये। श्रावक चिंतित । अन्य श्रावकों के यहाँ विधि नहीं मिल रही? आठवें दिन एक अन्य चौके में विधि मिल गई, इस बार यहाँ के श्रावक खुश और चिन्तामुक्त। एक श्रावक अपने गुरुवर को भाँति-भाँति के व्यंजन/पकवान खिलाना चाहते थे, पर गुरुवर थे कि अत्यंत सादा भोजन ही स्वीकृत करते थे। एक बार उस श्रावक ने चतुराई करते हुए पहले ग्रास में ही मेवा-मिष्ठान्न युक्त खीर गुरुवर की हथेलियों पर रख दी। खीर देखते ही गुरुवर धर्मसंकट में पड़ गये। वे श्रद्धालु भक्त की श्रद्धापूर्ण चालाकी समझ गये, अत: उसकी ओर देख कर पहले मुस्कुराये, फिर अपनी साधु-सापेक्ष चातुरी बतलाते हुए - हथेली पर रखी गई खीर खायी और आहार समाप्त कर जल लेकर बैठ गये। श्रावक आश्चर्य में पड़ गया, हाथ जोड़ कर बोला- गुरुदेव ! यह क्या? कुछ लिया ही नहीं? गुरुवर मुस्कुरा कर बोले- आप जो मेवा-मिष्ठान्न खिलाना चाहते हैं, वह हमारा (साधुओं का) आहार नहीं है, उसे श्रावकों का भोजन कहना उपुयक्त होगा। सो वह आप लोग स्वीकारिये, मुझे जितना लेना था, ले लिया। - बिलकुल प्रसाद जैसा लिया? - हाँ, प्रसाद जैसा । - क्यों? - क्योंकि प्रसाद से संतोष प्राप्त हो जाता है। - मगर हमें पाप लगेगा, आप भूखे रह गये हैं। - सन्त भूख मिटाने के लिये आहार नहीं लेते। उन्हें भूख रहती ही नहीं। वे तो तन को सक्रिय रखने के लिये आहार लेते हैं। तन से धर्म-कार्य जो लेना है। अस्तु। श्रावक चुप रह गया। गुरुवर के चरणों में काफी देर रुका रहा। उनसे सान्त्वना प्राप्त हो जाने के बाद ही उठा। मदनगंज का ही एक प्रसंग और स्पष्ट किया गया है पत्र में लिखा है कि जब आचार्य ज्ञानसागरजी नवदीक्षित शिष्य मुनि विद्यासागर को लेकर पहली बार मदनगंज-किशनगढ़ विराजे थे (सन् १९७१) तब वे प्रिय के शिक्षण हेतु सचेत थे। कुछ दिनों में श्रावकों से वार्ता कर उन्होंने पता लगा लिया कि यहाँ के दो बुद्धिजीवी विद्याागरजी को अंग्रेजी-भाषा पढ़ा सकते हैं। उन्होंने पहले श्री फियाज अली को बुलवाया। वे मुस्लिम थे, अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान पाया था। आचार्य श्री से आदेश प्राप्त कर श्री फियाज अली ने अंग्रेजी का शिक्षण कार्य प्रारंभ कर दिया। वे नित्य नियत समय पर आ जाते और अपना दायित्व पूर्ण कर लौट जाते । (श्री अली अभी भी मदनगंज निवास करते हैं, गतवर्ष सन् १९९७ में जब पू. मुनि सुधासागरजी मदनगंज पहुँचे और उन्हें श्री अली का परिचय ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने आशीष से उनका हृदय तृप्त कर दिया। समाज के मंच से उनका सम्मान कराया गया और उनका विस्तृत परिचय समाज के नये सदस्यों तक पहुँचाया गया।)
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