उस दिन निर्वाण भूमि (श्मशान) से लौट कर जब श्रावकगण अपने घर पहुँचे तो अनेक गुणी श्रावकों को पहली बार अनुभव में आया था कि वे (श्रावक) घर आये जरूर हैं, पर सत्य यह है कि निज घर तो पहुँचे ही नहीं हैं। निजघर तो वे पहुँच रहे हैं जिन्हें अभी-अभी आग के हवाले करके आये हैं। श्रावक घर नहीं पहुँचे। उनके मन में पूज्य दौलतराम के शब्द उतर आये- “हम तो कबहूँ न निजघर आये। परघर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये।। हम तो..........। जब वे जमाने से आँखें मूंद चुके, तब सारा देश कह रहा थाआगम ही उनके नेत्र थे, चर्म-चक्षुओं के मूंद जाने से क्या होता है, उनकी प्रज्ञा चक्षुये सदा संही संकेत प्रदान करती रहेंगी।
दूसरे दिन देश के अनेक नगरों-महानगरों और लघु ग्रामों में शोक सभायें हुईं। कहीं-कहीं समाचार दो-चार दिन विलम्ब से पहुँचा। जहाँ-वहाँ तब शोक लहर छा गयी। लगभग १५ दिनों तक देश में शोक सभाओं का क्रम चलता रहा। “ज्ञान' फैलाकर ‘‘दिवाकर चला गया था। मगर “ज्ञानदिवाकर' शब्द को ठोस अर्थ पहिना गया था। नसीराबाद के प्रबुद्ध समाज ने अपने प्रिय और पूजनीय सन्त की स्मृति में वहाँ एक “छतरी' का निर्माण कराया, जिसकी छाँव में गुरुवर के चरण कमल की तरह खिले रहते हैं।
गुरुवर ज्ञानसागरजी नहीं थे, पर उनकी चर्चायें हर स्थल पर थीं। उनका कर्तृत्व मुस्कुरा रहा था। कागजों में से उनकी लेखनी पुकार - पुकार कह रही थी- वे सदा देश में रहेंगे। देश के ग्रन्थों में रहेंगे। ग्रन्थों को पढ़ने-गुनने वाले श्रावकों में रहेंगे। अपनी शिष्य परम्परा में शिष्यों के भीतर स्थापित मिलेंगे। हर नगर में उनकी चर्चा चल रही थी। कहीं दो महाजन मिलकर बतिया रहे थे, कहीं दो विद्वान, कहीं दो सन्त तो कहीं दो साहित्यकार।सभी की चर्चा में ऐसे तथ्य थे जो भविष्य के लिये 'पाठ' बन कर सभ्य समाज में स्थान ले सके। कतिपय प्रमाणित आलोचकों के मानस में भी गुरुवर के निधनोपरान्त विचारों की मथानी घूमी।
वे गुरुवर की स्तुति कर रहे थे, मगर अपने तुलनात्मक लहजे में। उनकी वाणी से तब शाश्वत मूल्यों की स्थापना को बल मिला, कह रहे थे- वे सच्चे मायने में त्यागी थे, उन्होंने मंदिर निर्माण या ग्रन्थ प्रकाशन या अन्य कार्यों हेतु चन्दा नहीं माँगा। उन्होंने अपने या संघ के कार्य के लिये कभी कोई नौक नहीं रखा। स्वस्थ्य रहते हुए किसी मंदिर, धर्मशाला, संस्था परिसर में स्थायी रूप से नहीं रहे, जब रहने/रुकने की मजबूरी देह-तत्त्व के समक्ष आयी तो उन्होंने समाधि ले ली। रुपया पैसा तो दूर, सामान्य पदार्थ तक का कभी कोई संचय कर पास में नहीं रखे, न उनके संघस्थ सदस्यों ने कभी ऐसा किया। वे किसी श्रावक के निजी रहवास (भवनादि) में कभी नहीं रहे।
अपने संघ के नाम से कभी कहीं, कैसी भी स्थिति में, चौका नहीं रखा। शिष्यों को मुनिदीक्षा यों ही तुरत-फुरत में कभी नहीं दी, कम से कम उन्हें साल भर पास रख कर परखा, शिक्षण दिया, तब दीक्षादि के विषय में सोचा। श्रावकों की सहायता से तीर्थयात्रा नहीं की, वे जहाँ रुकते थे, उसी स्थल तीर्थ की गरिमा प्रकट करने का सत् प्रयास करते रहते थे। वे जब क्षुल्लक अथवा ऐलक अवस्था में थे, तभी से वाहन का उपयोग नहीं करते थे। अपने संघ के सदस्यों की नित्य क्रियायें एक साथ करते-कराते थे। धार्मिक ग्रन्थों का क्रमिक अभ्यास कराने का, उनका विशेष गुण कौन भुला सकता है। कोई परिजन संघ में नहीं रह सकता था, अपरिग्रह की अलख उनके हृदय में सदा पूँजती रहती थी। अत: डायरी, पेन्सिल और कागज तो क्या, भक्ति पाठ की पुस्तकें तक परिमित मात्रा में ही स्वीकार करते थे।
उनके संघ में मुनि, ऐलक, क्षुल्लक पृथक् स्थान पर एवं आर्यिकायें, क्षुल्लिकायें या ब्रह्मचारिणी बहिनें अन्य स्थान पर ससमूह रुकते थे। अध्ययन योग्य शास्त्रों-ग्रन्थों को सायास प्राप्त कर, अध्ययन क्रम के अनुसार, समूह में पढ़ाते थे। उनके संघ के त्यागी व्रती संघ छोड़ कर अन्य संघ न जावें, न ही अन्य संघों के सदस्य अपना संघ त्याग कर उनके संघ में आवे-जावें, ध्यान रखते थे। वे स्वत: स्वालम्बन पर विश्वास करते थे, शिष्यों को भी स्वावलम्बी बनने की शिक्षा देते थे। जो त्यागी गृह त्याग कर, घर की मोह ममता छोड़ कर, संघ में रहते थे, उन्हें ही रखते थे, इधर-उधर घूम कर, फिर संघ में लौट आने वाले त्यागियों के लिये उनके पास न स्थान होता था, न समय।
वे वार्ता या प्रवचन के दौरान, या सन्त-समागम के अवसर पर वाणी की वाचालता और विकथाओं से बचे रहते थे। वे स्तोत्र पठन, जाप, सामायिक निश्चित समय पर नियमित रूप से करते थे और वैसा ही संघस्थ साधुओं को करने की प्रेरणा करते थे। अन्य संघ के त्यागी जनों को अपने संघ में प्रवेश नहीं देते। थे, पर जो अपने गुरुजनों से आज्ञा लाते थे, या जिनके गुरु समाधिस्थ हो जाते थे, उनकी पात्रता परख लेने के बाद, प्रार्थना स्वीकार करते थे। ऐसे त्यागियों से संकल्प कराते थे कि वे अब केवल गुरुवर के संघ में रहेंगे और आत्मकल्याण करेंगे। जो त्यागी केवल अध्ययन के लिये उनके संघ में आते थे, उन्हें अपने गुरु की आज्ञा लानी होती थी और स्थिरचित्त से अध्ययन में समर्पित होना होता था।
गुरुवर अपने संघ के अधीन बसें, ट्रक या अन्य वाहन नहीं रखते थे, न किसी सज्जन का इस तरह का दान/सहयोग स्वीकारते थे। उक्त विचारों से गुरुवर की सही-सही छवि का खुलासा तो होता ही है, वर्तमान पीढ़ी को दिशा भी मिलती है। एक आलोचक होता तो बात यहीं समाप्त हो जाती, मुनियों के जितने भक्त होते हैं, शायद उतने ही आलोचक होते हैं। एक मायने में हर सच्चे भक्त के भीतर एक स्वस्थ आलोचक भी छुपा रहता है जो समय-समय पर उचित आलोचनायें प्रगट भी करता चलता है। दूसरे शहर के दूसरे आलोचक चर्चा कर रहे थे- पूज्य आचार्य ज्ञानसागरजी केशलुञ्चन का विज्ञापन नहीं करते-कराते थे, वे इस क्रिया को शांति युक्त एकान्त में करना उचित मानते थे। श्रावकों से प्रतिज्ञा करने का आग्रह नहीं करते थे। केवल प्रमाणित कथाओं पर उपदेश करते थे, कभी प्रामाणिक उपदेश नहीं दिया। चश्मे का उपयोग सहज ही नहीं कर लिया था, जब संघस्थ साधुओं ने और विद्वतवर्ग ने प्रार्थना की कि चश्मा आप अपनी सुविधा के लिये नहीं, अपूर्ण ग्रन्थों को पूरा करने, संशोधन करने के लिये, लीजिए, तब उन्होंने उस पर विचार किया था।
आहारों के समय संकेत देकर आहार तैयार करवाने या लेने की बात उचित नहीं मानते थे, उनमें आहार के प्रति रुझान या लोलुपता रंचमात्र भी नहीं थी। वे अहिंसा महाव्रत में प्रकारान्तर से भी कोई दोष नहीं आने देते थे, फलतः विध्वंशक या रचनात्मक कार्य जिनके साथ हिंसा की सम्भावना होती थी, के लिये उपदेश या आदेश नहीं देते थे। चातुर्मास के समय श्रावकों का हित देखकर ही निर्णय लेते थे। वे सतत् विहारशील बना रहना ही उचित मानते थे, परन्तु काया-कष्ट के समक्ष आगमोचित विराम भी लेते थे। महिलाओं को चरण स्पर्श कर लेने की अनुमति नहीं देते थे, उचित दूरी और उचित स्थान पर ध्यान रखते थे। सवारी में या डोली में चलना अनुचित मानते थे। मूलगुणों की उपेक्षा कर उत्तरगुणों की ओर ध्यान नहीं देते थे। रात्रि काल में पूर्ण रूपेण मौन धारण करते थे। इशारे/संकेत/फुसफुसाहट को जीवन में स्थान नहीं दिया। ईर्या-समिति की मर्यादा में रहते थे, अत: चलते समय बातचीत नहीं करते थे।
श्रावकों या उनके नौकरों से कहकर सिगड़ी या अँगीठी या हीटर पर पानी गर्म कर देने का आदेश नहीं देते थे। श्रावकों-सेठों-पंडितों के अनुरोध पर या निमंत्रण पर उनके कार्यक्रम में पहुँच जाने की अनुमति नहीं देते थे, न चातुर्मास करने की पूर्वाज्ञा। जैन संस्थाओं द्वारा आयोजित नाटक देखने या रेडियो से प्रसारित धार्मिक महत्त्व के समाचार या टेप-रिकार्ड पर किसी कवि विशेष की कविता सुनना उचित नहीं मानते थे। पत्र व्यवहार के लिये तनिक भी स्थान न था उनके जीवन में, धर्म-चर्चा और धार्मिक ग्रन्थों से सम्बंधित पत्र ही पढ़ना-पढ़वाना, गुरु आज्ञा के बाद, सम्भव था। आहार हो जाने के बाद, चौका लगानेवाले श्रावकों से दान की घोषणा की प्रेरणा नहीं करते थे। न ऐसा करना उचित मानते थे। किसी संस्था, ट्रस्ट या संस्थान से सम्बंध नहीं रखते थे। सत्य तो यह है कि भक्तों के संसार की तरह आलोचकों का संसार भी वृहत् होता है। तभी तो आलोचकों के तीसरे दल के कुछ नये प्रतिमान सुनने मिले, वे बतला रहे थे।