वृद्ध संत का चलना-फिरना बन्द होता जा रहा था, जिन्होंने जीवन भर विहार किया हो उनके चरण कहीं, अधिक समय तक कैसे रुक सकते थे। नसीराबाद के उस ऐतिहासिक मंदिर में संत ज्ञानसागर अवश्य ही ठहरे हुए लग रहे थे, पर उनकी आत्मा एक लम्बी यात्रा की। तैयारी कर रही थी। तैयारी एक महायात्रा की। जब मुनि विहार करते हैं, तब भक्त गण साथ-साथ चलते हुए अपनी सेवा और विनय प्रस्तुति की इच्छा पूरी करते हैं, परन्तु जब आत्मा यात्रा करती है तब भक्तगण उत्सव मनाते हैं-जिसे मृत्यु महोत्सव कह दिया जाता है। मृत्यु महोत्सव ही महाविहार है, है वह यात्रा महाप्रयाण।
भक्तों के भयभीत हृदय में इसी तरह के विचार आते थे और चले जाते थे। ठंड और बसंत के बाद ग्रीष्म ऋतु भी आ गई, नसीराबाद की धरती धर्म की भट्टी में पहले ही सोने की तरह तप चुकी थी, अत: उस पर ग्रीष्म का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा। गुरुवर के दर्शनार्थ अजमेर से उनके परम भक्त श्री भागचंद सोनी नसीराबाद पहुँचे। वह १३ फरवरी ७३ का दिवस था। गुरुवर की स्थिति देख कर सोनीजी ने एक दिन में तीन बार गुरुवर से चर्चा की, तब उन्हें संतोष हुआ। गुरुवर की मुक्त वाणी में उन्हें लगा कि स्वास्थ्य लाभ शीघ्र मिल जावेगा, अत: लौटते-लौटते उन्होंने गुरुवर से अजमेर पधारने की प्रार्थना की। ज्ञानमूर्ति मुस्कराने लगे भागचंद के भोलेपन पर, भक्ति प्रभावना पर, फिर बोले- “भागचंद आप किससे अनुरोध कर रहे हैं, मैं अब संघ में मुनि हूँ, आचार्य नहीं, आप आचार्य पू. विद्यासागरजी से चर्चा कीजिए।''
क्षण भर को भागचंदजी ठिठक गये, फिर उन्हें याद आया, हाँ, आचार्य तो पू. विद्यासागरजी हैं, मैं तो मोहवश यह त्रुटि कर बैठा। बाद में वे आचार्य विद्यासागरजी के पास पुन: गये और उनसे ससंघ अजमेर विहार' की प्रार्थना की। “संकोचश्री'' कहने का मतलब “आचार्यश्री'' तब भी भागचंद का भारी संकोच करते थे, अत: अधिक चर्चा न कर सके, मुस्कराकर बोले- “देखिये, क्या होता है ? जो होगा, वैसा निर्णय ले लूंगा।' श्री भागचंदजी संतोष की सांस लेकर लौट पड़े - नसीराबाद से।
भागचंदजी सोनी एवं उन जैसे अनेक भक्तगण आचार्य ज्ञानसागरजी को पंचमकाल के आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य विद्यासागरजी को आचार्य समन्तभद्र मानते रहे हैं, जो आज भी पूर्ण रूपेण प्रासंगिक है। गुरुवर अस्वस्थ थे। आचार्य विद्यासागरजी उनकी वैयावृत्ति में लगे रहते, मगर धर्म से सम्बंधित समस्त कार्य व क्रियाओं के साथसाथ धार्मिक कार्यक्रमों पर पूरा ध्यान दे रहे थे। फरवरी माह में ही समाधिस्थ आचार्य श्री शिवसागरजी की पुण्य तिथि (फागुन वदी अमावस, दिन रविवार को) आचार्य विद्यासागरजी के सान्निध्य में मनाई गई। उस दिन पहले पं. चम्पालालजी श्रावकों की ओर से बोले थे, तो मुनि संघ की तरफ से ब्र. चिरंजीलाल औम स्वत: आचार्य विद्यासागरजी ने उद्बोधन दिया था, मगर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात थी कि समाधि को प्रस्तुत, क्षीणकाय, ज्ञानमूर्ति, आचार्य पू. ज्ञानसागरजी महाराज भी, विद्यासागरजी के अनुरोध पर, अपने मुनि-दीक्षा-गुरु आचार्य शिवसागरजी के विषय में धाराप्रवाहिक रूप में बोले और काँपती आवाज से कहा कि उन महान सन्त ने मुझे अज्ञान रूपी अंधकार से हटाकर ज्ञानरूपी उजास में ला दिया था, उन्होंने मुझे वह महान प्रशस्त पथ प्रदान किया था, जिस पर चल कर मैं यहाँ तक पहुँच चुका हूँ।
गुरु गुण वर्णन करते हुए पू. ज्ञानसागरजी ने सम्पूर्ण श्रोताओं को मंत्रमुग्ध तो कर ही दिया था, बालाबाल जनों को सेवा मुग्ध करने में भी प्रभावक सिद्ध हुए थे। बीमारियाँ या रुग्ण काया सन्तों के कार्य में बाधक बनते हैं, पर सन्त उनसे घबड़ाते नहीं, अपनी धर्म-प्रणीत क्रियायें समय पर सम्पन्न करते चलते हैं। अत: नसीराबाद में हर माह कोई न कोई बड़ा, धार्मिक आयोजन हो ही जाता था। फरवरी माह गया तो मार्च माह आ गया। श्रीसंघ ने इस माह की झोली में भी एक कार्यक्रम डालकर उसे उपकृत कर दिया, २३ मार्च शुक्रवार (चैत्र कृष्ण चौथ) को प्रात:कालीन बेला में वयोवृद्ध तपस्वी, बालब्रह्मचारी मुनि, साक्षात दिवाकर पू. ज्ञानसागरजी महाराज ने जीर्ण कार्या में शक्ति का संचार कर केशलुञ्च प्रारंभ कर दिया। आचार्य विद्यासागरजी अपनी सुंदर बलिष्ठ अंगुलियों का उपयोग कर उनके कार्य में सहयोग करने लगे।
मंदिर परिसर में भारी जन समूह इकटठा हुआ था उस रोज । समूह का हर व्यक्ति ज्ञानसागरजी की दृढ़ता देख कर आश्चर्य कर रहा था। हर कंठ उनके गुणगान करते हुए उनकी जयघोष कर रहा था। मुनि के तप को देख रहे थे लोग, मुनि की उम्र को समझ रहे। थे लोग और मुनि की काया निहार रहे थे लोग। सन् १९७३ में नसीराबाद के श्रावक जब, तप की ऊचाइयाँ देखने का सौभाग्य प्राप्त कर रहे थे, तब उधर मध्यप्रदेश के तीर्थ कुण्डलपुर में कमेटी के लोग नवनिर्मित मानस्तम्भ की ऊचाइयाँ निहार रहे थे। वहाँ हाल ही में मानस्तम्भ तैयार हुआ था, जिसकी प्रतिष्ठा की योजना बन रही थी। सर्वसम्मति से फरवरी ७४ में पंचकल्याणक किये जाने के समाचार अखबारों में प्रकाशित हो रहे थे। एक अखबार पर आचार्य विद्यासागरजी की नजर पड़ ही गई।
सल्लेखना के उस पावनकाल में, कुछ दिवस ऐसे भी आये कि जब शारीरिक कमजोरी के कारण गुरुवर ज्ञानसागर अपने प्रिय भक्तोंश्रावकों को नित्य के प्रवचन नहीं सुना पा रहे थे। शरीर नि:शक्त था। आत्मा तेजयुक्त । श्रावक आते, दर्शन करते, लौट जाते। अपने प्रिय गुरु की वाणी का अमृत कर्ण-कुण्ड में न भर पाते। तब आचार्य विद्यासागरजी मे कार्यकर्ताओं को निर्देश दिये कि आगत श्रावकों को नित्य गुरुवर के वचन हम लोग चाहें तो उपलब्ध करा सकते हैं। गुरुवर ने अपने ग्रन्थों में सहस्रों सूत्र, अमर वाक्य, सूक्तियाँ गुम्फित किये हैं, प्रतिदिन उनका एक ‘‘विचार' मंदिर जी के सूचना पट पर खड़िया से लिखा जावे तो श्रावकगण पढ़ कर गद्-गद् तो होंगे ही, शास्त्र का लाभांश भी ले सकेंगे।
कार्यकर्ताओं को प्रस्ताव बहुत अच्छा लगा, कल्याणकारी और सार्थक। अत: दूसरे दिन से क्रम बन गया | क्रम गुरुवर के “समाधि दिवस' तक चलाया गया बराबर सूचना पट्ट पर लिखने का कार्य शान्ति लाल पाटनी करते थे, आ. श्री के पयाम विश्वस्तरीय भक्तों में से एक पाटनीजी महाकवि ज्ञानसागरजी द्वारा रचित। हस्तलिखित पाण्डुलिपयाँ श्री शान्तिलालपाटनी नसीराबाद के संरक्षण में रहती थीं, आज भी हैं। जो जन मंदिरजी जाते वे सूचनापट पर गुरुवाणी अवश्य पढ़ते और रोमांचित होते। कई विद्वत जनों को तो भाव विह्वल होते देखा जाता था। “गुरु दर्शन” और “गुरु शिक्षा का वह श्रेष्ठ तरीका सम्पूर्ण श्रावक समूह को पसन्द आ गया था।
गुरुवर आहार में किंचित् मात्रा में दुग्धरस लेते थे, किसी दिन आमरस मात्र । कहें साधना में प्रवृत्त रह कर, जीवन की डगर पर प्रभुमय श्वासोच्छवास कर रहे थे। अप्रैल के माह में मुनि पू. सुपार्श्वसागरजी, जो मूलरूप से मदनगंज किशनगढ़ निवासी थे, अंतिम दर्शन करने के लिये विहार कर नसीराबाद की ओर चल पड़े। वे भी वृद्ध थे, कुछ बीमारियाँ उनकी काया में भी निवास कर रही थीं। कुछ योग्य श्रावकों के साथ वे गुरुवर के समक्ष पहुँच गये । नमोऽस्तु के बाद अन्य समाचारों का आदान-प्रदान किया। वे हर चर्चा पर प्रज्ञा की छाप छोड़ रहे थे। पर शरीर दुर्बल हो चुका था।
सुपार्श्वसागरजी ने अपनी व्याधियों की चर्चा भी कर डाली, फिर उन्होंने समाधिमरण की दीक्षा देने की प्रार्थना गुरुवर से की। आचार्य विद्यासागरजी की अनुमति के बाद पू. सुपार्श्वसागरजी को सल्लेखना व्रत प्रदान करने का आवश्वासन मिल गया। वे एक दिन अल्प आहार लेते थे और दूसरे दिन उपवास करते थे। उनकी साधना का क्रम भी नसीराबाद की धरती पर चलने लगा। कुछ ही दिन बाद; १५ मई को उन्हें हृदय में व्याधि बढ़ी। आचार्य विद्यासागर समीप ही थे। उन्होंने उनकी चेतना विदा होते देख ली थी, अत: तत्काल उन्हें समाधिमरण का व्रत प्रदान कर सल्लेखना दीक्षा दे दी। सुपार्श्वसागरज्जी ने दीक्षा पाकर अधरों से आभार में कुछ शब्द बुदबुदाये, पर कुछ समय बाद चेतना गवाँ बैठे। सांसें चलती रहीं संघ और श्रावकों ने उचित व्यवस्था और सेवा का क्रम बनाया, फिरभी १६ मई ७३ बुधवार को प्रातः ७ बजकर २५ मिनिट पर पू. सुपार्श्वसागरजी ने नश्वर संसार त्याग कर दिया।