उनकी वाणी सुनकर जनता पू. विद्यासागरजी की ओर देखने लगी। वे नजरें नीचे किये थे और गम्भीरता से नीचे की ओर देखते रहे। फिर उन्होंने विद्यासागरजी को संकेत से बुलाया, वे गिरे मन से खड़े हुए, गुरुवर के पास आ गये। गुरुवर ने अपने उच्च काष्ठासन पर उन्हें बैठने का निर्देश दिया। वे बैठ गये। गुरुवर ने शास्त्रोक्त रीति से तुरन्त, उपस्थित पंडितों के सहयोग से, आचार्यपद देने तथा अपना आचार्यपद समाप्त करने की विधि सम्पन्न की, फिर आचार्य से मुनि बने ज्ञानसागरजी छोटे आसन पर बैठ गये।
मान का ऐसा मर्दन समाज ने कभी न देखा था, न सुना था, जो पू. ज्ञानसागरजी ने करके दिखलाया था। पद का मोह नष्ट कर देने का ऐसा भाव भी कभी देखने-सुनने न मिला था। जनसमुदाय ज्ञानसागर और विद्यासागर के जयघोष कर रहा था। अनेक आँखों में आँसू उतर आये थे, अनेक कंठ अवरुद्ध हो गये थे। वक्तागण बोलने में अवरोध महसूस कर रहे थे, गले भर आये थे। छोटे (नीचे) आसन से पूज्य मुनि ज्ञानसागरजी ने बड़े (ऊँचे) आसन पर विराजित नवपदारूढ़ आचार्य विद्यासागरजी एवं मुनि ज्ञानसागरजी में नमोऽस्तु प्रति नमोऽस्तु हुआ। आ. विद्यासागर उच्चासन पर एवं अपने उपकारी गुरु को नीचे आसन पर बैठा देखकर आ. विद्यासागर की आँखें रोने को बेताब । चित्त खीजने को उतावला । मन क्रन्दन करने को बावला । जबकि ज्ञानसागरजी के चेहरे पर शांति थी, भार से बचे जाने का भाव, उत्तरदायित्व पूर्ण करने की संतुष्टि थी और नव निर्णायक के प्रति श्रद्धा थी।
एक कार्य पूर्ण ही हुआ था कि परम मेधावी तपस्वी और उदासीन संत ज्ञानसागरजी ने हथेलियों के मध्य पिच्छिका सँभाले हुए, आ. विद्यासागरजी से प्रार्थना की-हे आचार्य ! मैं इस दुर्बल और जर्जर शरीर की सीमायें समझ चुका हूं, सो मुझे अपने निर्देशन में संल्लेखना व्रत प्रदान कीजिए। मैं आपके निर्यापकत्व में समाधिमरण की अभिलाषा करता हूँ। उनके हृदय से निकली आवाज का सत्य जनमानस पहिचान चुका था, अत: हर आँख दृश्य को देखकर डबडबा गई। सरल वैराग्य के साथ ज्ञानसागरजी का निस्पृहभाव एक-एक दर्शक की आँखों में सदा के लिये अँज गया उस दिन।
वह कार्यक्रम तो पूर्ण हो गया, पर पूज्य आचार्य विद्यासागरजी का कार्यक्रम यहाँ से प्रारंभ हो गया था। आचार्य पद धारण कर उसके सच्चे निर्वाह का कार्यक्रम। नसीराबाद तपस्थली बन गया था। दो महान संतों की तप:भूमि। पूज्य विद्यासागरजी रोज सुबह से शाम और शाम से रात्रि पर्यन्त अपना समय निर्यापकत्व में दे रहे थे और पूज्य ज्ञानसागरजी महाराज अपना समय शरीर से परे होने में दे रहे थे। धान को हटाकर अक्षत प्राप्त करने वाले ज्ञानवान किसान की तरह वे नित्य-नित्य अभ्यास कर रहे थे। अपने देह रूपी शीपी मुक्ता को स्वातंत्र्य देने के लिये।
दोनों सन्त नहीं जानते थे कि जीवन की विविध तपस्याओं की तरह संल्लेखना की यह तपस्या भी सु दीर्घकाल तक करनी होगी। जो समाधि के लिए उपस्थित थे, वे तप में ही थे और जो समाधि की दीक्षा देकर उसका निर्वाह करा रहे थे, वे महातप में से होकर गुजर रहे थे - हर पल, हर दिन। गुरुवर आचार्य ज्ञानसागरजी जो अब आचार्य नहीं, मुनि ज्ञानसागरजी थे, आ. विद्यासागरजी से पूछ-पूछ कर प्रतिज्ञाये धारण करते चल रहे थे। अभी दो-चार दिन ही बीते थे कि गुरुवर (ज्ञानसागर जी) ने चारों प्रकार के आहारों में प्रमुख माने जानेवाले अन्न का त्याग कर दिया। त्यागोपरान्त आत्मस्वरूप में विचरण करते रहते, किसी से कोई अनावश्यक वार्ता नहीं करते, तब पू. विद्यासागरजी को लगा कि शुद्धोपयोग पर एक हजार ग्रन्थ लिखने के बाद भी वह अवस्था लोग देख समझ नहीं पाते, वास्तविक शुद्धोपयोग की अवस्था तो यह है जो पू. गुरुवर पल-पल जी कर बतला रहे हैं।
तभी १० दिसम्बर ७२ को नसीराबाद की पावन धरती पर पूज्य आचार्य विमलसागरजी ससंघ उपस्थित हुए और पू. ज्ञानसागरजी की समाधि क्रिया के दर्शन किये। बहुत देर तक वे ज्ञानसागरजी के समीप बैठे रहे। वार्ता होती रही। दो सन्त जीवन के बसंत की सही अवस्था पर मंत्रमुग्ध थे। शाम को चार बजे, पू. विमलसागरजी के साथ आये, वयोवृद्ध मुनि पू. सन्मतिसागर जी ने भी पू. ज्ञानसागरजी की चरित चर्या का अवलोकन किया और भारी संतोष जाहिर किया। बाद में बोले- मैं तो पू. ज्ञानसागरजी की सेवा करने आया हूँ। वे वर्षों पूर्व मेरे शिक्षा गुरु रहे हैं। जी भर कर मुझे ज्ञानदान देते रहे हैं।
बाद में, पू. विमलसागरजी का संघ शिखरजी यात्रा हेतु वहाँ से विहार कर गया। आचार्य विमलसागरजी का अंतिम मिलन का सौभाग्य नसीराबाद को मिला। विमलज्ञान का मिलन। सन्मति विद्या का मिलन विमल विद्या का मिलन महान संतों का मिलन। जब यह संघ शिखरजी को विहार कर रहा था, तब तत्कालीन संत मुनि सुपार्श्वसागर जी शिखरजी में वंदना का लाभ ले रहे थे। १५ दिसम्बर ७२ को वे शिखरजी से विहार कर चुके थे। सन्त, जो शिखरजी की यात्रा पर नहीं थे, वे थे गुरुवर ज्ञानसागर जी, परन्तु वे तब ‘शिखर यात्रा में प्रवृत्त थे। वे थे शिखर की ओर। सप्ताह से माह और माह से दो माह, तीन माह निकल गये। माह बीतते ही जा रहे थे । सम्पूर्ण नसीराबाद के साथ-साथ अजमेर, ब्यावर, जयपुर आदि शहरों के श्रावक और विद्वज्जन उनके दर्शन करने का क्रम बनाये हुए थे। कोई सपरिवार आ रहा है, कोई लौट रहा है।
पूज्य विद्यासागरजी अपने प्राण प्यारे गुरु के समीप बैठे-बैठे उनका चेहरा बाँचने की कोशिश करते रहते- उन्हें चेहरे पर लिखा दीखता कि ज्ञानसागरजी सरल-स्वभावी तेजस्वी-सन्त हैं, वे चेहरा पर पढ़ते कि ये तो जीवन भर नवनीत की तरह कोमल रहे हैं, उनकी वाणी की मिठास कानों में अमृत घोलती रही है, मगर वे साधना में कठोर रहे हैं। दृढ़ निश्चयी। मोहाशा विरक्त । परिपूर्ण अपरिग्रही। परदुख कातर । सहिष्णुता की साकार मूर्ति । भद्र परिणामी। विद्या के पारगामी पथिक । ज्ञान के संरक्षक। आगम के टीकाकार । कवि हृदय । वचनपटु और प्रवचनपटु । समता के आगार। धैर्य के हिमालय । विनय के मानसरोवर। उनके चेहरे पर और भी बहुत से गुण लिखे थे, जिन्हें वे (विद्यासागर) रोज बाँचते रहते थे।
एक दिन चेहरा भर नहीं, पूरे शरीर को बाँचने का प्रयास किया तो पढ़ने में आया- वृद्ध का गौरवर्ण इस उम्र में भी सोने की तरह दमक रहा है। चौड़ा ललाट, २४ ग्रन्थों के आधार भूत होने की सूचना दे रहा है। नयनों की गहराई और चमक आँखों पर चढ़ा हुआ चश्मा (ऐनक) कभी भी नहीं ढाँक पाया। उनकी गंभीरता तो ऐनक के आर-पार तक है। कद ठिगना है, पर व्यक्तित्व विराट है। उनके जर्जर शरीर की सामान्य लम्बाई, चौड़ाई और शक्ति को उनके आत्मचिन्तन ने सहस्रों गुना बढ़ा दिया है। वे हिमालय की तरह अडिग तपस्वी बन कर युग के समक्ष आये हैं। हित, मित, प्रिय वाणी का स्वामित्व एवं शांत मुख मुद्रा धारण करनेवाले जोगी हैं। सध कर और साध कर धरती पर चरण धरनेवाला उनका आचरण कौन भूल सकता है, जिनका मार्ग संयम के धरातल से होकर जाता है।
अष्टगे गोत्र के उदाहरण बन कर धरती पर महान यति कहलाने वाले सन्त विद्यासागरजी खण्डेलवाल समाज के छाबड़ा गोत्र के महासन्त ज्ञानसागरजी को जैसे अपनी गोद में सम्भाले हों। वे उनका चेहरा, उसके बाद देह और फिर उनका जीवन इतिहास पढ़ते हुए बुदबुदाते हैंखण्डेलवालों की यह ज्योति दिगम्बर जैन समाज के इतिहास के दीपक में सदा उजास भरती रहेगी। ठंड की ऋतु सम्पूर्ण नसीराबाद की धरती को ठंडक पहुँचा कर विदा ले चुकी थी। उसके बाद बसंत की बयार संत के मन में प्रवेश पाने में असमर्थ हो चुकी थी। जिस हृदय में तप त्याग के पुष्प बारहों माह खिल कर सत्-पथ के रंग बिखेरते हों, वहाँ माह दो माह रहनेवाले बसंत को कहाँ ठौर ?