सीकर में पू. ज्ञानसागर के प्रथम शिष्य (श्रावक) श्री धर्मचंद मिले थे, वे अपने घर ले गये, परिवार के लोगों से परिचय हुआ। शाम का भोजन वहीं सम्पन्न हुआ। वे जितने विद्वान हैं, उतने ही विनम्र। उनकी पूजा माता विदामी देवी जैन के दर्शन करना चाहते थे हम, क्योंकि वे पू. ज्ञानसागरजी के कृपा-क्षेत्र की महान गृहिणी रही हैं, उन्होंने अनेकों बार, उन्हें आहार देने का पुण्य सँजोया था। उन्हीं महिला रत्न के कारण ज्ञानसागरजी ने धर्मचंद को जैनधर्म की गूढ़ शिक्षा प्रदान की थी। हमारा अनुरोध सुन वे गम्भीर हो गये, बोले- अभी करीब दो ढाई माह पूर्व (११ जुलाई ९८) को उनका निधन हो गया। हमें आत्मा में धक्का-सा लगा। विषय बदल दिया हमने। तब तक उन्होंने स्वत: बतलाया कि उनकी पत्नी श्रीमती विनोद देवी भी नहीं रहीं, माँ से ८ माह पूर्व (२१ दिसम्बर ९७ को) उनका निधन हो गया था। मुझे लगा मेरी इस जीवन कथा के दो पात्र बिछुड़ गये हैं।
गतवर्ष १९९८ में, महावीर जयंती के बाद ही पू. आर्यिका श्री विद्युतमती के दर्शन, नसीराबाद यात्रा के समय किये थे, वे २८ अगस्त ९८ को स्वर्गलोक वासी हो गई हैं। नसीराबाद की भद्र श्राविका ५२ वर्षीय श्रीमती शांति देवी का संस्मरण- नसीराबाद अंग्रेजों के समय से ही सैनिक छावनी रहा है, अत: वहाँ नगर स्तर पर समय और स्थान की पाबन्दी बनी रहती थी। जब पू. ज्ञानसागरजी का निधन हुआ था, तब वहाँ के सदर क्षेत्र से डेढ़ कि.मी. तक मृतकों को जलाने (अग्नि देने) पर रोक थी। तब कतिपय प्रमुख जन वहाँ के ब्रिगेडियर से मिले और स्थान की स्वीकृति प्राप्त की, तब जाकर पू. ज्ञानसागरजी की देह का अग्नि संस्कार सम्पन्न हुआ था। करीब १० बजे दिन में आचार्यश्री की समाधि हुई, दोपहर १२ से २.३० तब वैकुण्ठी ने विचरण किया और शाम ४ बजे अंतिम संस्कार किया जा सका।
पू. ज्ञानसागरजी का अंतिम आहार नसीराबाद की धरती पर, श्री भंवरलाल छाबड़ा के यहाँ सम्पन्न हुआ था। पानी लिया था आहार में। श्रावकों के साथ-साथ स्वत: उनके शिष्य आचार्य विद्यासागर जी उन्हें अपने हाथों से आहार दे रहे थे। जैसा कि कथा में वर्णित है कि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की वैकुण्ठी में सभी वर्ग और जाति के धार्मिक जन शामिल थे। मदनजी लिखते हैं कि श्री गनीभाई लुहार पूरे समय तक वैकुण्ठी में रहे और अपने हाथों से सभी कार्यों में सहयोग करते रहे। चिता बनाने में और मृत देह को जलाने में अंतिम क्षण तक वहाँ ही बने रहे और कार्य करते रहे।
नसीराबाद में जिस स्थान पर पू. ज्ञानसागरजी का स्मारक बन रहा है, वह सैकड़ों साल से बाघसुरी के नाम से जाना जाता रहा है जो एक व्यक्ति की निजी जमीन का भू-भाग है, पर उन सज्जन महोदय ने वह वाघसुरी नि:शुल्क भेंट कर दी थी। वे सज्जन महोदय धन्य हैं। यादों की यात्रा आँखों में चलती रही और ट्रेन की यात्रा पातों पर। ट्रेन ने हमें जबलपुर पहुँचा दिया। हम एक सफल यात्रा पर मुग्ध थे। याद आ रहे थे पू. सुधासागरजी, पू. गम्भीरसागरजी और पू. धैर्यसागरजी। दो माह ही बीते होंगे कि पं. भूरामलजी के वंशज श्री ताराचंदजी देवधर (बिहार) से सरलकुटी पधारे। दो दिसंबर ९८ की बात है। रात्रि विश्राम किया। उनके साथ उनकी धर्मपत्नी श्रीमती गुणमाला जैन और मामा-मामी (श्रीमान बाबूलालजी दाँतारामगढ़ (राज.) व श्रीमती ललिता देवीजी) भी थे।
मेरे पूछने पर उन्होंने बतलाया कि माता घृतवरी के जीते जी, पं. भूरामल जी ने इसलिये दीक्षा नहीं ली थी, क्योंकि पूज्य माँ ने अपने प्यारे लाल' को कसम जो दी थी। उसका उन्होंने निर्वाह भी किया और माता के निधनोपरान्त ही मुनिपद की दीक्षा की ओर मन किया था। ताराचंदजी की मामीजी एवं पत्नी ने संयुक्त रूप से जानकारी दी थी कि जब देवीलाल जन्मे थे और माता जापे (प्रसव) में थी, तभी उनके पिता श्री चतुर्भुजजी का निधन हो गया था। श्री देवीलालजी, जो कि भूरामलजी के सबसे छोटे भ्राता थे, ताराचंद उन्हीं के सुपुत्र हैं। वे तीन भाई हैं - ताराचंद, संतोषकुमार और अशोककुमार।
मुझे लगा कि जब आचार्य श्री के वंशज ही ‘सरल कुटी’ पहुँच गये हैं तो क्यों न उनसे पूज्य श्री के पाँचों भाइयों की वंशपरम्परा के अनुवर्ती सदस्यों की जानकारी ले लें। वे बोले- “पू. सुधासागरजी कहते हैं कि आचार्य श्री की वंश-परम्परा में आप लोग नहीं, हम लोग हैं। आप लोग पं. भूरामल के वंश के हैं, हम लोग आचार्य ज्ञानसागर के वंशज हैं।' मुझे पू. सुधासागरजी का तर्क न्यायसंगत लगा, अतः मैंने प्रश्न को परिवर्तित कर रखा- ठीक है, पं. भूरामल और उनके भाइयों की जानकारी दीजिए।
हम सब तर्क के प्रभाव में आकर हँसते हैं। फिर वार्ता प्रारंभ होती है- श्री भूरामलजी पाँच भाई हैं, उनके वंशज इस तरह हैं
- प्रथम श्री छगनलालजी - उनकी एक पुत्री है जिनका विवाह धूलियान में श्री ज्ञानचंदजी से सम्पन्न हुआ था।
- द्वितीय श्री पं. भूरामलजी हैं, जो उम, भर बाल ब्र. रहे, पर उनके वंशजों में आचार्य विद्यासागर और मुनि सुधासागरजी सहित आचार्यश्री के समस्त शिष्यगणों को कहा जा सकता है|
- तृतीय श्री गंगाबक्शजी - उनके दो पुत्र श्री महावीरप्रसादजी एवं श्री नेमीचंदजी । प्रथम के चार पुत्र प्रेमचंद, पवन, सुरेश और रमेश । द्वितीय के तीन प्रमोद, बंटी, पिन्टू। गंगाबक्श जी की एक पुत्री हैश्रीमती भगवती देवीजी जो दुर्ग में श्री छीतरमलजी बाकलीवाल को ब्याही हैं।
- चतुर्थ श्री गौरीलालजी, उनकी एक पुत्री- श्रीमती गुणमालाजी उनके पति श्री मोहनलाल भरर्तया, भिवन्डी।।
- पाँचवे श्री देवीलालजी - उनके तीन पुत्र उक्तानुसार हैं। उनमें से प्रथम, ताराचंद के राजेश और राजीव नाम के बेटे हैं। राजेश की गोद में ऋषभ है। राजीव की में सिद्धार्थ। ताराचंद के द्वितीय भाई संतोष के पुत्र रोहित और राहुल हैं। तीसरे भाई अशोकजी के पुत्र रवि हैं।
श्री ताराचंदजी परम धार्मिक एवं कट्टर मुनिभक्त हैं। परम पूज्य आचार्य विद्यासागरजी महाराज के गुरु स्व. आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज, गृहस्थ जीवन में आपके पिताजी देवीदत्तजी के, ज्येष्ठ भ्राता आप राजस्थान के सीकर जिला के राणौली नाम स्थान के निवासी हैं। आप का जन्म देवधर में हुआ था। ताराचंदजी दूसरे दिन प्रात: कुण्डलपुर के लिए प्रस्थान कर गये। ‘जीवनी' लेखन के तारतम्य में पं. भूरामलजी के वंशजों का ‘सरल-कुटी' में आना, परोक्ष रूप से, पं. भूरामलजी की गोपन उपस्थित कह दें तो ? तब तक फिर एक पत्र पर नजर चली गई उसमें लिखा था कि ११ अक्टूबर ९८ को सीकर में, दस हजार के जन समूह के मध्य, पू. सुधासागरजी के सान्निध्य में श्री रतनलालजी पाटनी के द्वारा पुस्तक ‘सुधा का सागर' का लोर्कापण किया गया। उसी दिन प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की २१ फुट उतंग पद्यासन-प्रतिमा का वहाँ धूमधाम से “प्रतिभावलोकन समारोह आयोजित किया गया। तत्कालीन उपमुख्यमंत्री एवं अन्य नेता तथा अधिकारी उपस्थित रहे।
इसी दिन श्रीमान् अशोक पाटनी, आर. के. मार्बल्स किशनगढ़ द्वारा मार्बल्स उद्योग में कीर्तिमान स्थापित कर गिनीज बुक में नाम दर्ज कराने के उपलक्ष्य में अखिल भारत वर्षीय दिगम्बर जैन समाज द्वारा ‘जैन गौरव' की उपाधि से अलंकृत किया गया। इसी उपलक्ष्य में श्रीमान् अशोक पाटनी द्वारा विश्व का प्रथम ११ फुट उतंग प्रतीक चिह्न भेंट किया गया । १५ लाख रुपये की लागत का यह प्रतीक चिह्न चाँदी, सोने एवं रत्नों से जड़ित बनाया गया। अन्य पत्र देखता हूँ। उसमें समाचार है, कि अतिशय तीर्थ क्षेत्र रेवासा में पू. मुनिवर सुधासागरजी ने भाव व्यक्त किये हैं कि भगवान सुमतिनाथ की प्राचीन मूर्ति के कारण प्रकाशित यह स्थल 'भव्योदय तीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध होवे।