पर ज्ञानसागरजी समतभाव से बैठे रहे, किसी पर नाराजगी नहीं बतलाई। श्रावकों को दुखी देख कर समझाने लगे- इस घटना में आपकी कोई त्रुटि नहीं है। यह जो हुआ, मेरे कर्मों के अनुसार हुआ है। आप दुखी न हों, चिन्ता न करें। भक्ति और श्रद्धा के चलते ऐसे क्षणों का उपस्थित होना कोई बन्ध का कारण नहीं है। आपकी वत्सलता के समक्ष ऐसी लघु घटनाओं पर सन्त ध्यान नहीं देते। आप जाइये और अपने कार्य उत्साह से कीजिए।श्रावक चले गये, पर वे अपना दुख तभी कम कर सके, जब बाद के दिनों में उन्हें निर्विघ्न आहार देने का सुयोग मिल गया।
सन् १९७० में एक बार पू. मुनि ज्ञानसागरजी ससंघ दाँता पधारे थे, तब वह उनका पाँचवाँ प्रवास था, उस समय उनके साथ पू. मुनि विद्यासागरजी भी थे। श्रावक बतलाते हैं कि वहाँ पं. इंद्रमणि शर्मा पू. ज्ञानसागरजी के परिचय में आये। वे हिन्दी के अच्छे ज्ञाता थे, तब ज्ञानसागरजी ने उनसे कहा था कि वे संघस्थ साधु विद्यासागरजी को हिन्दी पढ़ायें। संघ करीब ढाई माह तक दाँता में रुका और अपने सत्लक्ष्य की पूर्ति की। एक मायने में सन् १९७० का आगमन पीड़ाओं का आगमन था। शारीरिक पीड़ाओं का। पीड़ायें तो पहले भी रहती थीं आचार्यवर्य की पावन काया में, पर सन् १९७० से उन्होंने जैसे सिर उठा लिया हो, बीड़ा उठा लिया हो, कष्ट को बढ़ाने का।
आचार्यश्री का शरीर, जर्जर होता जा रहा था और पीड़ायें भी जवान। भला हो, कि जिनवाणी भक्त पू. विद्यासागर जी छाया की तरह गुरुवर के आस-पास ही बने रहते थे। श्रावकों के कई माह से चल रहे अनुरोधों पर दया करते हुए गुरुवर ने सन् १९७१ में, वर्षायोग की स्थापना मदनगंज-किशनगढ़ में की और श्रावकों के साथ-साथ अपने संघस्थ शिष्यों के लिये ज्ञान का प्रशस्त पथ तो बतलाया ही, सभी को धर्म की राह पर जीवन जीने की कला भी प्रदान की। सीकर निवासी श्री धर्मचंद जैन, प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी, भारत के पूर्वी प्रान्त से चलकर, वर्षायोग का लाभ लेने मदनगंज पहुँच गये थे। इस बार उनके साथ उनकी माताजी तो थी ही, धर्मपत्नी भी थीं।
वृद्धावस्था और स्वास्थ्य की दुर्बलता के कारण गुरुवर सीमित स्थानों पर विहार क्षेत्र बनाये रहे। जयपुर, लाडनूं, सीकर, फुलेरा, नसीराबाद, अजमेर, किशनगंज-मदनगंज, ब्यावर, दादिया, मोजमाबाद आदि नगरों, शहरों, बस्तियों के मंदिरों, धर्मशालाओं, नसियों के पवित्रकक्ष इसकी साक्षी देते हैं। दुबले-पतले होते-होते पू. ज्ञानसागरजी इतने अधिक ‘दुबरे हो चुके थे इस सन् तक कि जब वे डोरीवाला चश्मा कान पर चढ़ा कर लिखने-पढ़ने बैठते तो बच्चे क्या, बुजुर्ग तक कह पड़ते- ये तो बिलकुल गाँधीबाबा जैसे दिखते हैं। उनकी छवि सब की आँखों में समाई रहती थी। सब उन्हें एक नजर देख लेने आते थे, चर्चा करना सबके वश की बात नहीं थी। यों जो जन साहस करते, उन्हें अवश्य ही अवसर मिल जाता था।
सन्त जीवनी का लेखन कार्य गति चाह रहा था कि तभी एक पत्र श्री मदनलाल जैन छाबड़ा मदनगंज-किशनगढ़ का मिला, जिससे ज्ञात हुआ कि वे मदनगंज के तीन ऐसे श्रावकों से मिल कर चर्चा कर सके हैं जो आचार्य ज्ञानसागर के भक्त हैं। उनमें से एक हैं श्री चेतन प्रसाद लुहाड़िया, दूसरी हैं श्री रतनचंद चूड़ीवालों की माताजी श्रीमती जतनी देवी पाटोदी और तीसरे हैं श्री चाँदमल झांझरी। तीनों से वार्ता के पश्चात् जो सूत्र संदर्भ श्री मदनलाल पा सके वे सामान्य से अधिक हैं, उन्हें कथा में गूंथने के बजाय, लेखत्व-भाव से स्पष्ट करना उचित मानता हूँ, वह यह कि - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी सदा दुबले-पतले ही रहे। वे दिन भर लिखते रहते थे। इतने सरल थे कि २-५ श्रावक मिलकर उनके पास बैठते और प्रवचन करने का अनुरोध करते तो वे किसी भी समय प्रवचन देने में अवरोध महसूस नहीं करते थे। अपने मनोविनोद की दृष्टि से उनका यह कार्य उन्हें और श्रावकों को प्रसन्नता का प्रसाद अवश्य प्रदान कर जाता था।
आहार की मात्रा कम लेते थे। मुश्किल से ५० ग्राम अन्न पेट में पहुँच पाता था। कई बार तो अँगूठे पर जितना दलिया, आता, मात्र उतना लेकर दूध पी लेते थे। संत-चित्त का सारल्या समझने के लिये श्री चेतन प्रसाद लुहाड़िया का यह प्रसंग कभी नहीं भुलाया जा सकता- वे एक बार आचार्य श्री के आहारों के समय उनके पीछे-पीछे चल रहे थे - धोती, कमीज और कोट पहिने थे। आचार्यश्री ३-४ स्थानों तक गये, किन्तु पड़गाहने के लिय वहाँ महिलायें ही खडी दीखीं। साथ में पुरुष नहीं थे, अत: वे बढ़ते जा रहे थे। चेतनजी उन की पहेली का समाधान जुटाने की सोच रहे थे, पर कुछ कह नहीं पा रहे थे। एक स्थल पर ज्यों ही चेतनजी ने पुनः मात्र महिलाओं को पड़गाते देखा, वे दौड़ कर उनके पास गये, शीघ्रता से शुद्ध कपड़े पहनकर स्वत: महिलाओं के साथ पड़गाहने खड़े हो गये।
आचार्य श्री जब वहाँ पहुँचे तो उनकी विधि मिल गई, वे रुक गये। चेतनजी ने सम्पूर्ण भक्ति से महिलाओं के साथ उन्हें पड़गाहा। चेतनजी उन्हें भोजनशाला में ले गये, उच्चासन पर विराजमान कराया, पूजा की और निर्विघ्न आहार भी दिये। कहने का तात्पर्य यह कि आचार्यश्री का रुका रहना उनकी सरलता की महान पहचान देता है। वैसे स्वभावी संत अब विरले ही देखने मिलते हैं। आचार्य श्री आहारों के समय रोज कतिपय श्रावकों के चौकों तक अवश्य जाते थे, परंतु विधि एक ही श्रावक के यहाँ मिलती थी, धीरे-धीरे सात दिन निकल गये। श्रावक चिंतित । अन्य श्रावकों के यहाँ विधि नहीं मिल रही? आठवें दिन एक अन्य चौके में विधि मिल गई, इस बार यहाँ के श्रावक खुश और चिन्तामुक्त।
एक श्रावक अपने गुरुवर को भाँति-भाँति के व्यंजन/पकवान खिलाना चाहते थे, पर गुरुवर थे कि अत्यंत सादा भोजन ही स्वीकृत करते थे। एक बार उस श्रावक ने चतुराई करते हुए पहले ग्रास में ही मेवा-मिष्ठान्न युक्त खीर गुरुवर की हथेलियों पर रख दी। खीर देखते ही गुरुवर धर्मसंकट में पड़ गये। वे श्रद्धालु भक्त की श्रद्धापूर्ण चालाकी समझ गये, अत: उसकी ओर देख कर पहले मुस्कुराये, फिर अपनी साधु-सापेक्ष चातुरी बतलाते हुए - हथेली पर रखी गई खीर खायी और आहार समाप्त कर जल लेकर बैठ गये। श्रावक आश्चर्य में पड़ गया, हाथ जोड़ कर बोला- गुरुदेव ! यह क्या? कुछ लिया ही नहीं? गुरुवर मुस्कुरा कर बोले- आप जो मेवा-मिष्ठान्न खिलाना चाहते हैं, वह हमारा (साधुओं का) आहार नहीं है, उसे श्रावकों का भोजन कहना उपुयक्त होगा। सो वह आप लोग स्वीकारिये, मुझे जितना लेना था, ले लिया।
- बिलकुल प्रसाद जैसा लिया?
- हाँ, प्रसाद जैसा ।
- क्यों?
- क्योंकि प्रसाद से संतोष प्राप्त हो जाता है।
- मगर हमें पाप लगेगा, आप भूखे रह गये हैं।
- सन्त भूख मिटाने के लिये आहार नहीं लेते। उन्हें भूख रहती ही नहीं। वे तो तन को सक्रिय रखने के लिये आहार लेते हैं। तन से धर्म-कार्य जो लेना है। अस्तु।
श्रावक चुप रह गया। गुरुवर के चरणों में काफी देर रुका रहा। उनसे सान्त्वना प्राप्त हो जाने के बाद ही उठा। मदनगंज का ही एक प्रसंग और स्पष्ट किया गया है पत्र में लिखा है कि जब आचार्य ज्ञानसागरजी नवदीक्षित शिष्य मुनि विद्यासागर को लेकर पहली बार मदनगंज-किशनगढ़ विराजे थे (सन् १९७१) तब वे प्रिय के शिक्षण हेतु सचेत थे। कुछ दिनों में श्रावकों से वार्ता कर उन्होंने पता लगा लिया कि यहाँ के दो बुद्धिजीवी विद्याागरजी को अंग्रेजी-भाषा पढ़ा सकते हैं। उन्होंने पहले श्री फियाज अली को बुलवाया। वे मुस्लिम थे, अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान पाया था। आचार्य श्री से आदेश प्राप्त कर श्री फियाज अली ने अंग्रेजी का शिक्षण कार्य प्रारंभ कर दिया। वे नित्य नियत समय पर आ जाते और अपना दायित्व पूर्ण कर लौट जाते । (श्री अली अभी भी मदनगंज निवास करते हैं, गतवर्ष सन् १९९७ में जब पू. मुनि सुधासागरजी मदनगंज पहुँचे और उन्हें श्री अली का परिचय ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने आशीष से उनका हृदय तृप्त कर दिया। समाज के मंच से उनका सम्मान कराया गया और उनका विस्तृत परिचय समाज के नये सदस्यों तक पहुँचाया गया।)