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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञान का सागर : क्रमांक - 31

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    विद्यासागरजी ने मदनगंज विहार के दौरान, बाद में, गुरु आज्ञा से, अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का अवसर के.डी. जैन विद्यालय मदनगंज के तत्कालीन प्रिन्सिपल श्री ओमप्रकाश जैन से भी प्राप्त किया था तथा प्राचार्य निहालचन्द जैन अजमेर ने भी अंग्रेजी भाषा का अध्यापन कराया। जब आचार्य ज्ञानसागरजी अपने शिष्य को शास्त्रों का अध्ययन विभिन्न जैन विद्वानों से कराते थे, तब वे स्वत: बीच-बीच में आकर देखते और सुनते थे कि विद्वान गण ठीक-ठीक पढ़ा रहे हैं या नहीं। तनिक-सी भी कसर रह जाती तो ज्ञानसागर जी टोक दिया करते थे। कहते थे कि यह ऐसा नहीं, वैसा है। आदि आदि। उनकी यह चिन्ता दोनों को,  पढ़नेवाले और पढ़ानेवाले को सतर्क बनाये रहती थी।

     

    त्यागी-व्रतियों से वार्ता करते हुए, कभी-कभी आचार्य ज्ञानसागरजी बतलाते थे कि साधु महाव्रती होते हैं, अतः उन्हें ‘स्वरज्ञान' की जानकारी भी रहती है। जिन्हें नहीं होती, वे जानने-सीखने का प्रयास अवश्य करते हैं। उनकी इस तरह की वार्ता से लोगों ने विश्वास कर लिया कि आचार्य श्री को स्वर-ज्ञान है। मंदिरों में तीर्थंकर की मूर्ति के समय वे पूर्व में ही टोक देते थे कि श्रावकगण प्राकृत जल से भगवान का अभिषेक करें। धीरे-धीरे अनेक स्थानों पर यह परम्परा चालू हो गई। वे अपने प्रवचनों में भी प्रेरणा देते रहते थे और कहते कि समय पर देव-दर्शन और अभिषेक की वृत्ति और समय पर शुद्ध तथा सादा भोजन करने की आदत हर श्रावक को बनाना चाहिए।

     

    सन् १९७१ का पीड़ाओं से भरा हुआ समय चला गया, परन्तु पीड़ायें साथ नहीं ले गया, उन्हें पूज्य ज्ञानसागरजी के समीप छोड़ गया। वर्ष १९७२ प्रारम्भ हो चुका था। संघ विहार करते हुए अनेक छोटे-बड़े नगरों को लाभ बाँटता हुआ अजमेर की ओर था। इस कथा का लेखन चल ही रहा था, कि पू. सुधासागरजी के संकेत पर एक धर्मप्रेमी सज्जन से मुझे, सन् १९७२ में लिखा गया एक पुराना पोस्टकार्ड देखने का अवसर मिला, जो तब १०९ कश्मीरीगंज, वाराणसी से पं अमृत लाल जी जैन ने तत्कालीन जैन गजट के प्रबंध सम्पादक पं. श्री अभयकुमार जैन ‘अभय' को लिखा था।

     

    पत्र ने स्पष्ट किया कि अप्रैल ७२ में आचार्य श्रेष्ठ पू. ज्ञानसागरजी अजमेर में अवस्थित थे और जयोदय महाकाव्य की प्रकाशन योजना बनारस से प्रारंभ हो चुकी थी। पं. अभयकुमार ने अजमेर से जयोदय का प्रथम मुद्रित फार्म (कहें प्रथम १६ पृष्ठ) और अपना पत्र, अमृतलालजी (बनारस) को लौटाया था। जिसे वे श्री पं. फागुल्लजी के पास लेकर गये थे और उनसे कहा था कि पूर्व निर्देशानुसार ‘टाइप ठीक -ठीक लगे होवें तो अशुद्धियाँ हटा दीजिए और वांछित कागज खरीद लीजिए। बाद में, वे वहीं, बनारस के अन्य मुहल्ले में निवास कर रहे श्री पं. बेजापुरकर से भी मिले और उन्हें संदेश दिया था कि वे जयोदय के सम्पादन और पूफ संशोधन में पूर्ण सावधानी बरतेंगे।

     

    उस नन्हें से कार्ड में पं. अमृतलाल आगे लिखते हैं, (एक मायने में पं. अभयकुमारजी को स्पष्ट करते हैं) कि यह (जयोदय) उच्च कोटि का महाकाव्य है, यदि इसके मुद्रण में पूर्ण सावधानी रखी गई तो उसका आकर्षण शतगुणित हो जायेगा। इस काल में जिसको जो उत्तरदायित्व सौंपा जाता था उसका प्राणपण से निर्वाह किया जाता था। इसका उदाहरण भी कार्ड में उपलब्ध है, जिसमें अमृतलालजी पं. अभयकुमार को आगे लिखते हैं- “फागुल्ल जी से यह भी कह जाऊँगा कि वे आर्डर किये हुए फार्म को मशीन पर चढ़ाने से पहले, मुझे दिखला दिया करें। पत्र के अगले पैराग्राफ में वे लिखते हैं- “पूज्य श्री आचार्यजी के चरणों में मेरी ओर से शत-शत वन्दन ।' समाज और साहित्य के कार्यों से जुड़े, अमृतलालजी को इतने से संतोष नहीं हुआ, अत: वे पं. अभयकुमार को आगे सम्बोधते हैं- “बैजापुरकर से पुन: एक बार कहूँगा कि वे प्रकाशन में व्यवधान न आने दें। आचार्यश्री के सामने ही उनकी एक कृति प्रकाश में आ जाये तो मुझे हर्ष होगा।'

     

    उक्त शब्दों से यह भी स्पष्ट होता है कि देश के अनेक विद्वानगण पू. आचार्य ज्ञानसागरजी की उम्र और शारीरिक क्षीणता से चिन्तित होने लग गये थे। पं. अमृतलालजी ने जयोदय का अध्ययन अच्छी तरह किया था, अत: उनके मन में कुछ विशेष मूल्यों ने जन्म ले लिया था, फलतः वे कार्ड में जगह समाप्त हो जाने के बाद उसके बायें तरफ की, तनकसी जगह में दो लघु पंक्तियों का एक विशाल विचार लिख देते हैं। प्रकाशन के पश्चात् यह महाकाव्य सरकार के द्वारा भी पुरस्कृत होगा।' जयोदय के प्रति एक मनीषी का १९७२ में उक्त विचार अपने आप में एक महान पुरस्कार है। मगर वे यह भी जानते थे कि निष्पृह संत पू. ज्ञानसागरजी को पुरस्कारों, यशों की वीथियों और चर्चाओं की दीपमालाओं से कुछ लेना नहीं है।

     

    विद्वानजन की लेखनी में जादू होता है, वे पोस्टकार्ड को एक | पूरी पुस्तक बना देने की महारत रखते हैं। उन्हीं में से एक थे हमारे ये कार्ड-लेखक पं. अमृतलालजी। पोस्टकार्ड जब पीछे के भाग (खड़े व आड़े रूप) में पूरा-पूरा भर गया, ठीक से हस्ताक्षर करने के लिये भी जगह नहीं बची, तब वे पुन: कार्ड के मुख पृष्ठ की ओर जहाँ पहले ही लिख कर भर चुके हैं, नजर दौड़ाते हैं और यहाँ भी वही करते हैं जो पिछले पृष्ठ पर किया था, कि कार्ड की बायीं तरफ की बची हुई सकरीसी जगह में दो पंक्तियाँ फिर डाल देते है। इस बार वे पं. अभयकुमारजी एवं उनके अखबार (जैन गजट) के लिये लिखते हैं – “आपका अखबार सदा समय पर प्राप्त हो जाता है, एतदर्थ कोटिशः धन्यवाद”।

     

    लिख चुकने के बाद पत्र में इतनी जगह नहीं थी कि हस्ताक्षरकर्ता का पूरा नाम आ सके, अत: पं. अमृतलाल बची हुई जगह में अ.ला. लिखकर संतुष्ट हो जाते हैं। वह पत्र कहता है कि पत्र लिखकर, पं. अमृतलाल पत्र डालने (पोस्ट करने) नहीं गये, बल्कि श्री फागुल्लजी से मिलने चले गये और उन्हें जो संदेश देने थे, दे आये। वे कितनी दूर रहते थे, प्रश्न यह नहीं था, प्रश्न था पत्र ‘पूर्ण’ कर देने का। फागुल्लजी के यहाँ से लौट कर श्री अमृतलाल जी ने पुन: वह पत्र उठाया जिसमें खड़ा और आड़ा लिख कर पूरा-पूरा स्थान अपने कब्जे में किया जा चुका था। मगर इससे क्या होता है, अभी तो पंडित जी को फागुल्लजी से मिलने की बात लिखनी थी, अतः वे पत्र को उठा कर गौर से देखने लगे कि खाली जगह कहाँ है? तब तक उनकी दृष्टि कार्ड के ऊपर वाले हिस्से पर गड़ गई, जहाँ से उन्होंने कार्ड पर लिखना शुरू किया था। भला वह जगह व्यर्थ क्यों जावे? पत्र रोज-रोज तो लिखा नहीं जाता और फिर उसका मूल्य भी इकट्ठा दस पैसा है।

     

    पंडितजी ने कार्ड को टेबल पर ऐसा घुमाया कि उसका शीर्षभाग नीचे की ओर हो गया। कहें कार्ड की दशा और दिशा दोनों बदल गई। बची हुई तनिक-सी जगह में पंडित जी लिखते हैं- “पत्र लिखने के बाद फागुल्लजी से मिल आया। वे पूरा कागज खरीद चुके हैं। जो अशुद्धियाँ आपने व हीरालाजी ने भेजी (बतलायी) हैं, वे सब हटा देंगे। तब (१९७२) कार्ड की कीमत दस पैसा थी। पर विद्वान जन उससे दस हजार का काम निकाल लेने में सिद्धहस्थ थे।

     

    एक प्रसंग एक ओर आचार्य ज्ञानसागरजी की तत्कालीन स्थिति स्पष्ट करता है तो दूसरी ओर उनका कार्य कर रहे विद्वानों की तत्परता की कहानी कहता है। लोग किस गम्भीरता से जुड़े थे, किस उच्च मानसिकता से कार्य करते थे और कितने कम व्यय में कर देते थे- के उदाहरण भी देता है उक्त ११ अप्रैल ७२ को लिखा गया एक कार्ड। आचार्य ज्ञानसागर के भक्त के द्वारा लिखित कार्ड। उक्त २० अक्टूबर ७२ को वहाँ उपस्थित समस्त विद्वज्जनों एवं सरसेठ भागचन्द जी सोनी आदि समाज सेवियों ने एक मतेन परमपूज्य आचार्यश्री ज्ञानसागरजी को चारित्र चक्रवर्ती” के अलंकरण से विभूषित किया। हजारों लोगों का समूह वाह-वाह कर उठा। जिन्होंने यह योजना बनाई थी उन समस्त कार्यकर्ताओं को जन समुदाय ने हार्दिक धन्यवाद दिया।


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