निधन का समाचार शहर तो शहर अन्य शहरों में भी पहुँच गया। मगर कुछ सज्जन भ्रम में पड़ गये, उन्हें मालूम था कि पू. ज्ञानसागरजी मात्र जल पर जीवन यात्रा चला रहे हैं, अत: समझे कि उन्हीं की समाधि हो गई है। समाचार के भ्रम से वे भक्त जो पू. ज्ञानसागरजी के दर्शन कर लेना चाह रहे थे, अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर नसीराबाद जा पहुँचे। वहाँ पहुँचने के बाद भ्रम समाप्त हो गया। लोगों ने ज्ञानमूर्ति गुरुवर ज्ञानसागरजी के दर्शन किये, उनके हाथों से आशीष पाया और फिर उनके निर्देशानुसार पू. सुपार्श्वसागरजी की अंतिमयात्रा और अंतिम दर्शन के निमित्त से उनके समीप बने रहे। समाज ने धूमधाम से सुपार्श्वसागरजी की अंतिमयात्रा निकाली और अंतिमक्रिया सम्पन्न की।
लोग गुरुवर ज्ञानसागरजी की जय बोलते हुए अपने-अपने घरों को वापिस हो पड़े। सरस्वती-सूनु, ज्ञान प्रभाकर, तप:सम्राट, चारित्र चक्रवर्ती वयोवृद्ध तपसी परमपूज्य ज्ञानसागरजी ने सुपार्श्वसागरजी के निधन के चार दिन बाद ही, २० मई ७३ को आचार्य विद्यासागरजी से अनुमति ले, समस्त प्रकार के खाद्य पदार्थों का त्याग कर दिया। तथा २७ जून को जल का भी त्याग कर दिया। सम्पूर्ण नगर में हाहाकार मच गया, पर मोहान्ध भक्तों को ज्यों ही स्मरण दिलाया गया कि यह त्याग ही तो तप की विधि है, इसी में से होकर आत्मा शिखर की ओर जाती है, तब कहीं उनका ज्ञान जागा। मातम समाप्त हो गया।
गुरुवर की कृशकाया धीरे-धीरे इतनी क्षीण हो पड़ी कि उन्हें बैठाने के लिये भी स्वत: विद्यासागरजी को पल-पल साथ रहना होता, आहारादि जीवनदायक पदार्थों के त्याग कर देने के बाद भी पू. ज्ञानसागरजी का जीवन रथ चलता रहा और धीरे-धीरे एक या दो नहीं चार दिन बीत गये। उस समय तक उनके श्रीसंघ के सदस्यों में जो अन्य साधु संत थे, उनके नाम इस तरह हैं- पू. मुनि विवेकसागरजी, ऐलक सन्मतिसागरजी, क्षुल्लक विनयसागरजी, (बाद में ये मुनि विजयसागर हुए) क्षु. सम्भवसागरजी, क्षु. सुखसागरजी (बाद में समाधिस्थ हो गये) एवं क्षु. स्वरूपानन्दजी। ये समस्त सदस्य पू. आचार्य विद्यासागरजी के संघ के सदस्य कहलाने लगे थे।
गुरुवर के महान त्याग ने सिद्ध कर दिया कि वे शरीर से ममत्व हटा चुके हैं और निवृत्ति की ओर चरण धर चुके हैं। सही अर्थों में वे शारीरिक आधि-व्याधि की ओर भी पूर्ण उपेक्षाभाव धारण कर चुके थे। उपाधि की उपेक्षा तो वे महान सन्त छह माह पूर्व, २२ नवम्बर ७२ को ही कर चुके थे। अब वे केवल अंतरात्मता की ओर कदम-कदम चल रहे थे। वे पूर्ण शांति किन्तु बहादुरी से अपने पथ पर थे। वीरता उनके अंतरंग से नि:सृत हो रही थी, वहाँ निराकुलता को ठौर नहीं थी। वे अपना ‘उपयोग' अंतर्मुखी करते चल रहे थे। वे उस क्षण एक साथ दो महान कलाओं का प्रतिपादन कर रहे थे। उनके जीवन ने “जीने की कला'' दी और दिया अहिंसाव्रत का बोध, तो उनकी सल्लेखना ने दिया “मरण कला का प्रादर्श। वे शनैः शनै: अदृश्य की ओर बढ़ रहे थे।
वह एक जून ७३ का दिन था- शुक्रवार । सुबह १० बजकर २० मिनट पर उनकी आत्मा ने शरीर का वह जर्जर पिंजरा त्याग दिया। श्रीसंघ के मध्य उनका शरीर था, आत्मा सिद्धों की दिशा में पंछी की तरह उड़ गई थी। आचार्य विद्यासागरजी काफी समय पूर्व से उन्हें अपने सँधे कंठ से संस्कृत में भक्तामर आदि सुना रहे थे। वे सुन रहे थे, पर सुनाने और सुनने के मध्य एक पल ऐसा आया कि सुनानेवाले सुनाते रह गये, सुनने वाला जागा, उठा और ऊर्ध्व लोक की ओर विहार कर गया। मंदिर परिसर में हजारों भक्त खड़े थे। पूरा क्षेत्र जैनाजैन बंधुओं ने घेर सा लिया था। जो जहाँ था- काष्ठवत् रह गया था। एक सौ अस्सी दिन से जो काया काष्ठवत् रह कर समाधि में प्रवीण हुई थी, उसकी संचालक आत्मा यंत्रवत् चली गई थी। इस युग में दो ही आचार्य इस आगमनुसार संल्लेखना को पूर्ण कर सके, एक आचार्य शान्तिसागरजी एवं आचार्य ज्ञानसागरजी।
नसीराबाद के समस्त सीमा क्षेत्र में वियोग का सागर उतर आया। हर आँख ने अश्रु बिन्दु के अर्घ्य चढ़ाकर श्रद्धांजलि प्रेषित की। हृदय की श्रद्धा आँखों के रास्ते होकर छलक रही थी। मातायें-बहिनें हिचकियाँ ले ले रो रही थीं, बच्चे उनके बहते आँसू देख किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े रह गये थे। नगर के लोग संताप की गवाही देने के लिये निकले आँसुओं को पोंछ-पोंछ कर, बड़े मंदिरजी की ओर भागे चले जा रहे थे, जहाँ अधिकांश वरिष्ठ जन पहले ही से उपस्थित थे। देखते ही देखते समाचार हवा के साथ उड़कर अन्यान्य नगरों में जा पहुँचा। नसीराबाद के समस्त फोन उस दिन एक साथ वापरे जा रहे थे। फोनों की घंटियाँ दूसरे नगर में जाकर घनघना रही थीं, लोग समाचार से अवगत हो रहे थे। नगर से बाहर जाने वाली हर बस, टैक्सी और रेले समाचार लेकर जा रही थीं। एक जून का दिन गर्मी का विशेष दिवस कहलाता है। मगर उस दिन की गर्मी कुछ अधिक ही आँच दे रही थी। मध्यान्त में अंतिम यात्रा निकाली गई। तब तक बाहर से काफी भक्तगण आकर उनके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त कर चुके थे।
गुरुवर पद्मासन में निर्वाण डोली पर बैठे चले जा रहे थे। डोली को हजारों जन काँधा देने उतावले थे। हजारों भक्त शांतिपूर्वक जुलूस में पू. ज्ञानसागरजी की जय बोलते हुए चल रहे थे। लोग सत्य बोलो मुक्ति है - का निनाद समझ रहे थे। बड़ा मंदिर नगर की वायव्य दिशा में। बीच में नगर की बसाहट जुलूस नगर की सड़कों को अंतिम झलक का अवसर दिलाता हुआ, श्मशान पहुँच गया। समस्त संघ पाँव-पाँव साथ था। संघ के सदस्य धर्म और विवेक के सूत्रों से बँधे थे, उन्होंने प्रयास किया कि मोह की मारी थे आँखें कहीं अचानक मोह की कहानी कहने लगें, अत: सभी का ध्यान आत्मा पर था, दृष्टि गुरुवर पर । संघ के समीप ही सीकर निवासी श्रावक धर्मचंद थे, उनकी माताजी थीं, था पूरा श्रावक समाज।
श्रावकों ने आचार्य विद्यासागरजी से मार्गदर्शन प्राप्त किया, फिर भग्नि-क्रिया पूर्ण की। देखते ही देखते अग्नि की ज्वालाओं ने ज्ञान सौर धर्म से लबालब अपने प्रिस्य सन्त को अपने में समेट लिया। एक (खर ज्ञानी साधु प्रकृति की प्रखरता में समा गया। तीव्र धूप को सहनेवाले नसीराबाद के महान श्रावक सन्त का वियोग नहीं सह पा रहे थे, मगर रोते-किलपते हुए एक-दूसरे से आँखें भी नहीं मिला पा रहे थे। श्मशान में शांतिसभा की गई। दो मिनट का मौन धारण कर श्रद्धांजलि दी गई। लोग अपने प्रिय को अग्नि की गोद में ध्यानस्थ अनुभूत कर रहे थे। धीरे-धीरे पाँव लौटने लगे मंदिरजी की ओर। सब मौन । सब चुप । न किसी की जय । न कोई शोर । न बाजे, न बेनर। यह थी वापसी की यात्रा श्रावक शांति से वापिस लौट आये। गुरुवर शांति से ‘‘निजघर' चले गये। दुख के मारे भक्तजन पूज्य कवि दौलतरामजी की पंक्तियाँ स्व. गुरुवर ज्ञानसागरजी की धीमी आवाज में सुनने का प्रयास कर रहे थे- जिया तुम चालो अपने देश । शिवपुर थारो शुभथान ।
कुछ भक्तों के मन में कविवर भागचंदजी की पंक्तियाँ अभिगुंजित हो रही थीं- ऐसे विमल भाव जब पावै, तब यह नरभव सुफल कहावै। जैनेतर जन भी जुलूस में थे, उनकी आँखों में भी श्रद्धा की गंगा थी, उनके कान भी गुरुवर की मंद-मंद आवाज सुन रहे थे- हम तो जाते अपने गाम, सबको राम-राम-राम। वापसी के बाद मंदिरजी में शोक सभा का आयोजन किया गया। लोगों ने उनकी महायात्रा को शरीर पर आत्मा की विजय निरूपित किया और उनके वियोग को जैन धर्म एवं जैन साहित्य की महान क्षति बतलाया। शाम हो गई थी। संघ सामायिक पर बैठ चुका था। श्रावक समूह स्मृतियों के रथ पर।